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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

Times Darpan
Last updated: 2020-04-25 22:18
By Times Darpan 2.3k Views
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23 Min Read
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है, जो अपने सदस्य देशों की वैश्विक आर्थिक स्थिति पर नज़र रखने का काम करती है। यह सदस्य देशों को अंतरराष्ट्रीय बाजार में पर्याप्त तरलता के माध्यम से उनके भुगतान संतुलन (BOP) में सुधार में मदद करता है, वैश्विक मौद्रिक सहयोग में बढ़ोतरी को बढ़ावा देता है।

Contents
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष: परिचयअंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का उद्देश्यअंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यआईएमएफ की ऋण सुविधाएंअंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की उपलब्धियोंअंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की आलोचनाएं

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष: परिचय

  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से विश्व-आर्थिक परिदृश्य पर विचार विमर्श करने के उद्देश्य से 1945 में बेटनबुडस सम्मलेलन में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा परिषद की बैठक में 44 मित्र राष्ट्रों के प्रतिनिधित्व ने विश्व-स्तरीय दो मौद्रिक संस्थाओं-अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की स्थापना का प्रस्ताव रखा। 
  • 27 दिसंबर, 1945 को 29 देशों के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद आईएमएफ की स्थापना हुई।
  • यह 188 देशों द्वारा प्रशासित किया जाता है और ये देश इसके कार्यों के लिए जवाबदेह भी हैं।
  • इसका मुख्यालय वॉशिंगटन डी॰ सी॰, संयुक्त राज्य में है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की विशेष मुद्रा एसडीआर (स्पेशल ड्राइंग राइट्स) है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्त के लिए कुछ देशों की मुद्रा का इस्तेमाल किया जाता है, इसे एसडीआर कहते हैं। एसडीआर में यूरो, पाउंड, येन और डॉलर हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष सदस्य राष्ट्रों की मुद्रा सम्बन्धी माँग को केवल कोष के आधार पर ही पूर्ण कर सकता है उसके पास मुद्रा के निर्माण कर सकने की शक्ति नहीं है।
  • साथ ही सभी देश अपनी आतंरिक अर्थ-नीति को निर्धारित करने के विषय में स्वतन्त्र हैं।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) का उद्देश्य

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के समझौते के अनुच्छेदों के अनुसार इसके मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं–

  • अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग :- स्थायी संस्था जो अन्तराष्ट्रीय मौद्रिक समस्याओं पर परामर्श देगी और पारस्परिक सहयोग के लिए उचित उपाय को यथासम्भव बनाकर स्थापना करना।
  • संतुलित आर्थिक विकास : अंतराष्ट्रीय व्यापार विस्तार और सतुंलित विकास की सुविधा प्रदान करना और इस प्रकार सभी सदस्य देशों में रोजगार का ऊंचा स्तर बनाए रखना।
  • विनिमय स्थायित्व :- विनिमय स्थिरता उत्पन्न करना, सदस्य देशों के मध्य विनिमय व्यवस्थाओं को बनाए रखना तथा प्रतियोगी विनिमय अवमूल्यन को रोकना।
  • बहुमुखी भुगतान :- सदस्यों के मध्य चालू व्यवसायों के सबंध में बहुमुखी भुगतान की वयवस्था की स्थापना तथा विदेशी विनिमय सबंधी प्रतिबंधो को हटाने में योगदान करना।
  • आर्थिक सहायता :- समुचित सुरक्षा के साथ सदस्य देशों के लिए कोष के साधनों को उपलब्ध कर उनमें विश्वास उत्पन्न करना और इस प्रकार उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उन्नति में बाधक रीतियों को अपनाए बिना ही भुगतान-संतुलन संबंधी असंतुलनों को दूर करने का अवसर प्रदान करना।
  • असंतुलन कम करना :- उपर्युक्त व्यवस्थाओं के अनुसार सदस्य देशों के अंतर्राष्ट्रीय भुगतान-सतुलन संबधी असंतुलनों को दूर करने का अवसर प्रदान करना और असंतुलनों की अवधि और अंश को कम करना।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्य

अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्राथमिक काम अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली– विनिमय दरों और अंतरराष्ट्रीय भुगतानों की वह प्रणाली जो देशों (और वहां के लोगों) को एक दूसरे के साथ कारोबार करने में सक्षम बनाता है, की स्थिरता सुनिश्चित करना है। अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यों पर नीचे चर्चा की जा रही है –

1. सदस्य देशों की मुद्राओं की सम-मूल्य दरों का निर्धारण 

  • जब सभी देश अपनी-अपनी मुद्राओं का मूल्य स्वर्ण में घोषित कर देते थे तो विनिमय दरों को निर्धारित करना अति सहज हो जाता था।
  • पहले मुद्रा कोष की स्थापना के आरम्भ में प्रत्येक देश को अपनी मुद्रा का मूल्य डॉलर अथवा स्वर्ण में निर्धारित करना होता था। 
  • यदि कोई भी देश 10% से 20% तक परिवर्तन करना चाहता है तो उसके लिए आवश्यक है कि वह मुद्रा कोष की पूर्व स्वीकृति ले परन्तु इससे अधिक परिवर्तन के लिए दो-तिहाई सदस्यों की सहमति आवश्यक हैं।
  • किसी देश द्वारा मुद्रा के किए जाने वाले अवमूल्यन के मनमाने व्यवहार पर प्रतिबंध लगाने का माध्यम है।

2. विनिमय नियत्रंण पर रोक

  • अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष का उद्देश्य विनिमय दर में स्थिरता लाने के साथ-साथ बहुपक्षीय व्यापार को प्रोत्साहित करना है।
  • मुद्रा कोष उन प्रतिबन्धों को दूर करने की दिशा में भी प्रयत्नशील रहता है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास में बाधक होता हैं।
  • इस संबध में सभी सदस्य देशों पर यह प्रतिबंध लगाया गया है कि वे चालू व्यवसायों के ऊपर तभी प्रतिबन्ध लगा सकेंगे जब मुद्रा कोष से इस सबंध में पूर्व अनुमति प्राप्त कर ले।

3. विनिमय स्थायित्व

  • मुद्रा कोष की स्थापना के मुख्य उद्देश्य, सदस्य देशों के मध्य विनिमय स्थायित्व को कायम रखने के लिए, यह निश्चित किया गया था कि सब देशों की मुद्रा को स्वर्ण अथवा डालर में निर्धारित कर दिया जाए। 
  • 1 जनवरी 1976 में कोष की अन्तरिम समिति ने अपनी जमैका में हुई बैठक मे यह निर्णय लिया गया कि विनिमय दरों के सम्बन्ध में सदस्य देश अपनी स्वतन्त्र नीति अपना सकते हैं परन्तु कोष और अन्य देशों के साथ विनिमय की उचित व्यवस्था बनाने का उत्तरदायित्व सदस्यों पर रहेगा। 

4. मुद्रा कोष के प्रकाशन

  • मुद्रा कोष द्वारा मुद्रा, बैकिंग, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रशुल्क नीति से सम्बन्धित कई प्रकाशन प्रकाशित किए जाते हैं।
  • नमें वार्षिक रिपोर्ट, विनिमय प्रतिबन्ध पर वार्षिक प्रतिवेदन, भुगतान शेष, वार्षिकी, मुद्रा केाष सर्वे (पाक्षिक), अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सांख्यिकी (मासिक) व्यापार दिशा (मासिक) वित्त एवं विकास (त्रौमासिक एवं स्टार पेपर्स इत्यादि हैं। 
  • मुद्रा कोष विश्व बैंक के साथ मिल कर “The Fund and the Bank Review” त्रौमासिक पित्राका का प्रकाशन भी करता है।

5. तकनीकी सहायता

  • सदस्य देशों को डिजाइन एवं प्रभावी नीतियों के कार्यान्वयन में उनकी क्षमता को बढ़ाने में सदस्य देशों की मदद के लिए तकनीकी सहायता एवं प्रशिक्षण मुहैया कराता है।
  • कर नीति एवं प्रशासन, खर्च प्रबंधन, मौद्रिक एवं विनिमय दर नीतियां, बैंकिंग एवं वित्तीय प्रणाली पर्यवेक्षण एवं नियमन, विधायी रुपरेखा और आंकड़े समेत तकनीकी सहायता कई क्षेत्रों में दी जाती है।
  • आवश्यकता पड़ने पर मुद्रा कोष द्वारा बाहरी विशेषज्ञों को भी जटिल समस्याओं के समाधान के लिए सदस्य देशों में भेजा जाता है।

6. प्रशिक्षण कार्यक्रम

  • 1951 से सदस्य देशों के प्रतिनिधियों को मुद्रा कोष द्वारा प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय भुगतान, आर्थिक विकास, आंकड़ों का संकलन और विश्लेषण और वित्तीय व्यवस्था इत्यादि का प्रशिक्षण सम्मिलित हैं।
  •  यह प्रशिक्षण अधिकतर केन्द्रीय बैंक तथा सरकार के वित्त विभाग के उच्च पदाधिकारियों के लिए होता है।

7. वित्तीय सहायता

  • यह अपने सदस्यों को भुगतान समस्याओं के संतुलनः आईएमएफ फाइनैंसिंग द्वारा समर्थित आईएमएफ के साथ करीबी सहयोग में राष्ट्रीय प्राधिकरण डिजाइन समायोजन कार्यक्रम, को सही करने के लिए धन मुहैया कराता है।
  • मुद्रा कोष द्वारा किसी सदस्य देश को ऋण देने पर जिस मुद्रा में उसे ऋण दिया जाता है वह मुद्रा मात्रा में कोष की निश्चित मुद्रा की मात्रा में से कम हो जाता हैं अर्थात वह देश कोष का ऋणी हो जाता है और उसे वे सभी शर्ते माननी होती हैं जो तात्कालिक प्रभाव में लागू होती है। 
  • कोष से ऐसे कार्यो के लिए ऋण नहीं लेता जो अनावश्यक प्रकृति के होते हैं। 

आईएमएफ की ऋण सुविधाएं

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष को स्वर्ण और सदस्य देशों की मुद्राओं में जो पूंजी प्राप्त होती है उसके द्वारा अस्थाई ऋणों के रूप में सदस्यों को मौद्रिक सहायता मुद्रा के विक्रय के रूप में दिया जाता है।

किसी भी सदस्य देश को ऋण देने की तीन सीमाएं होती है-

  1. मांगी गई मुद्रा का प्रयोग चालू भुगतान के लिए किया जाता है। 
  2. सीमा क अंतर्गत यह ध्यान रखा जाता है कि मुद्रा कोष ने मांगी हुई मुद्रा को दुर्लभ घोषित न किया हो।
  3. जो सदस्य देश अपनी मुद्रा देकर, अन्य देश की मुद्रा खरीद रहा है, उससे सदस्य देश के अभ्यंश में एक वर्ष की अवधि तक के 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं होगी।

किसी सदस्य देश की मुद्रा की कमी न हो इसलिए मुद्राकोष द्वारा सदस्यों देश पर प्रतिबन्ध लगाते है कोई भी देश अपने अभ्यंश के 200 प्रतिशत से अधिक मूल्य का विदेशी विनिमय मुद्रा कोष से नहीं खरीद सकता। कोष के हितों का ध्यान रखते हुए यह व्यवस्था की जाती है कि ऋण अल्पकालीन व अस्थाई हों व तीन से पांच वर्ष की अवधि में ऋणों का भुगतान कर दिया जायेगा तथा कभी-कभी किसी विशेष परिस्थिति में मुद्रा कोष देने की शर्तो को उदार भी बना सकता हे।

आईएमएफ ने निम्न श्रेणियों में ऋण सुविधाएं देने का प्रावधान किया है –

  • स्टैंड–बाई अरेंजमेंट (एसबीए): इसके जरिए आईएमएफ आर्थिक संकट से जूझ रहे देशों को भुगतान समस्याओं में संतुलन (बीओपी) को ठीक करने में मदद करता है।
  • फ्लेक्सिबल क्रेडिट लाइन (एफसीएल): यह उन देशों के लिए हैं जिनकी बुनियाद, नीतियां और नीति कार्यान्वयन में ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा है। यह आईएमएफ द्वारा दिए जाने वाले कोष वित्तीय सहायता में महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है खासकर हाल में हुए बदलावों का जिसके अनुसार इसमें किसी चालू ( पूर्व दिए गए) शर्तों का उल्लेख नहीं है और न ही क्रेडिट लाइन के आकार की कोई सीमा निर्धारित की गई है।
  • एहतियाती और चलनिधि रेखा: The Precautionary and Liquidity Line (PLL) पीएलएल अच्छी नीतियों वाले देशों को भुगतान के वास्तविक या संभावित संतुलन को पूरा करने के लिए धन प्रदान कराता है और इसकी उद्देश्य बीमा के तौर पर सेवा करने एवं संकट को दूर करने में मदद करने की है।
  •  एक्सटेंडेट फंड फैसिलिटी (विस्तारित निधि सुविधा) का उपयोग संरचनात्मक समस्याओं से आंशिक रूप से संबंधित भुगतान संतुलन को ठीक करने में किया जाता है जिसे व्यापक आर्थिक संतुलन के जरिए ठीक करने में अधिक समय लग सकता है।
  • व्यापार एकीकरण तंत्र (The Trade Integration Mechanism): यह तंत्र आईएमएफ को अपनी इस सुविधा के तहत उन विकासशील देशों को ऋण मुहैया कराने की सुविधा प्रदान करता है जो बहुपक्षीय व्यापार और उदारीकरण की वजह से विपरीत भुगतान संतुलन की समस्या से जूझ रहे हैं क्योंकि बहुपक्षीय व्यापार उदारीकरण की वजह से ऐसे देश कुछ खास बाजारों में तरजीही पहुंच खो देते हैं और उनकी निर्यात से होने वाली आमदनी कम हो जाती है या कृषि सब्सिडी कम कर दिए जाने की वजह से उनके द्वारा आयात किए जाने वाले भोजन की कीमतों में इजाफा हो जाता है।
  • स्थायित्व ऋण- सब देशों के भुगतान के लिए समान विनिमय दर स्थापित करने के लिए इस प्रकार के ऋण दिए जाते हैं। कभी-कभी विनिमय नियंत्रण की सहायता लेकर एवं बहु विनिमय दरों को अपना कर भी बहुत से देश अपने भुगतान शेष की कठिनाई को दूर करने का प्रयास करते हैं, किन्तु इन दरों के कारण विनिमय मे काफी मुश्किल समायोजन करने पड़ते हैं, ऐसी स्थिति में वे मुद्रा कोष से अस्थाई ऋण लेकर एक समता दर अपनाने का प्रयास करते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की उपलब्धियों

सन् 1944 में द्वितीय महायुद्ध से त्रस्त जिन देशों ने ब्रेटनवुडस में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक जैसी पुर्ननिर्माण संस्थाओं को बनाया था उन संस्थाओं ने काफी आशाजनक परिणाम प्रस्तुत किए। हालांकि लक्ष्य : शत प्रतिशत तो पूर्ण नहीं हो सके परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने बहुत सी सफलताएं प्राप्त की जिन्हे निम्न प्रकार दर्शाया जा सकता है:-

विश्व व्यापार में वृद्धि (Increasing World Trade)

  • मुद्रा कोष का सदैव यह प्रयत्न रहा कि विश्व व्यापार में आने वाले रूकावटों को दूर करने के समस्त प्रयत्न किए जाए। मुद्रा कोष ने भुगतानों का सरलीकरण किया, भुगतान असन्तुलन की स्थिति को साम्य की दशा अथवा देश के पक्ष में भुगतान सन्तुलन करने आदि में मदद दी।
  • यह तथ्य इस बात से भी स्पष्ट है कि जहां 1948 में विश्व निर्यात केवल 53 लाख डालर के थे, वे 1993 में बढ़कर 1923 मिलियन डालर के हो गए हैं।

समता दरों की उपयोगिता (Utility of Equi Rates)

  • अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समय पूर्व में जो विनिमय दर निर्धारिक किए जाने का प्रश्न उठता था तो मार्ग में कई अवरोध आते थे जैसे किसी देश की मुद्रा का अवमल्यन होना, विनिमय नियमों एवं मात्रा में कठिनाई, आदि।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विनिमय दरों के स्थान पर सदस्य देशों के मध्य समता दरें निर्धारित की जिससे विश्व-व्यापार में एक अवरोध कम हुआ। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष समझौते की धारा 4 के अन्तर्गत सदस्य देशों की विनिमय दरों पर कड़ी नजर रखता है।
  • ऐसा इस कारण किया जाता है ताकि विनिमय दरों में इतने अधिक उच्चावचन न आ जायें जिससे कि विश्व व्यापार की वृद्धि में कोई अवरोध उत्पन्न हो।

बहुपक्षीय व्यापार के पक्ष में (In favour of Multi Lateral Trade)

  • द्विपक्षीय व्यापार में तो दोनों देशों की मुद्रा का आपसी विनिमय सुगमता से किया जा सकता है, परन्तु यदि देश बहुपक्षीय व्यापार करते हैं तो कुछ अनावश्यक अवरोध आने की संभावना रहती है।
  • परन्तु मुद्रा कोष ने बहुपक्षीय भुगतान प्रणाली की स्थापना की और इसके परिणामस्वरूप चालू भुगतानों के लिए मुद्रा केाष ने महत्वपूर्ण प्रगति की है तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सुगम बनाया है।

भुगतान सन्तुलन में सहायक (Helpful in Balance of Payments)

  • आज देशों के सामने जो सबसे भीषण अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है, वह है भुगतान-असन्तुलन की स्थिति की। अब जो घाटे की स्थिति पैदा हो जाती है वह यदि निरन्तर ही बनी रहती है तो वह देश आर्थिक रूप से जर्जर हो जायेगा।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा ने इस सम्बन्ध में अति सूझबूझ के साथ उचित निर्णय लिए हैं तथा अपने उद्देश्यों में से इसे प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया कि सदस्य देशों के अल्पकालिक घाटों को दूर किया जाए।
  • सन् 1978 में 33 विलियन डालर का अतिरेक था जो 1979 में 10 विलियन डालर के घाटे में परिवर्तित हो गया। अत: मुद्रा कोष हर संभव प्रयोग करके अल्पकालिक घाटों को दूर करके भुगतान-असन्तुलन को दूर कने का प्रयास करता है तथा इसमें उसे सफलता भी मिली है।

अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग (International Monetary Cooperatioin)

  • अपने सदस्य देशों को मुद्रा कोष अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग भी प्रदान करता है। वह उनको आर्थिक प्रशुल्क एवं वित्तीय नीतियों तथा भुगतान सन्तुलन की कठिनाइयों सम्बन्धी सहायता प्रदान करता है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक समस्याएं कोई देश अकेला ही हल नहीं कर सकता है उसे अन्य देश की नीतियों के हिसाब से चलना होता है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा मौद्रिक सहयोग के लिए एक मंच प्रदान करता है। ताकि सभी देश मिल जुलकर अपनी समस्याओं को हल कर सकें।

र्निमाण एवं विकास उद्देश्य (Reconstruction and Development Moto)

  • विभिन्न देशों के, जिनकी आर्थिक स्थिति जर्जर है अथवा जो अपन विकास करना चाहते है उनके लिए भी अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष अपनी सेवाएं प्रदान करता है। इससे कोषों का अधिक सार्थक उपयोग होने लगा है।
  • पहले कोष का उद्देश्य यह रहता था कि कोष का प्रयोग केवल भुगतान असन्तुलन की समस्या को निपटाने के लिए ही किया जाता था परन्तु अब देशों के आर्थिक विकास के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है।

विकासशील देशों की ओर विशेष ध्यान (Special Attention towards developing countires)

  • विकसित देशों को तो अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की सहायता अपना आर्थिक स्तर बढ़ाने के लिए मिलती है परन्तु विकासशील देश जो संख्या में भी अधिक हैं तथा जिन्हें अपने विकास के लिए धन की आवश्यकता है।
  • उन्हें मुद्रा कोष उदारतापूर्वक विशेष सहायता प्रदान करता हैं इस विशेष सहायता को प्राप्त करके कई देश भुगतान-असन्तुलन की समस्या से उभर सके है: अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा केाष ने पिछड़े एवं विकासशील देशों के लिए एक ट्रस्ट कोष (Trust Fund) भी बनाया है।
  • सन् 1993 तक प्रदान की गई कुल सहायता का लगभग 68 प्रतिशत विकासशील देशों को ही प्रदान किया गया। कोष द्वारा प्रदत्त यह मात्रा लगभग 73,007 मिलियन SDR के बराबर है जिससे विकासशील देशों को अपना स्तर सुधारने में सहायता मिली है।

तकनीकी ज्ञान के विस्तार में सहायक (Helpful in extension of Technical knowledge)

  • भारत तथा अन्य विकासशील देशों के विकसित न हो पाने के पीछे एक कारण यह है कि उनके पास जो आर्थिक समाधान पाए जाते है वे वहां पूर्ण उपभोग नहीं हो पाते। किस्म एवं मात्रा दानों में ही कमी के कारण उचित मात्रा का निर्यात संभव नहीं हो पाता क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार प्रतिस्पर्धात्मक होता है।
  • इन देशों के पास यदि उचित तकनीक हो तो वे अपने माल को कच्चे रूप में न भेजकर अर्धनिर्मित या निर्मित दशा में भेज सकते हैं तथा अपने सामान की उचित कीमत वसूल कर सकते हैं।
  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इन देशों की तकनीकी ज्ञान की समस्या को हल करता है। इसका प्रशिक्षण संस्थान तकनीकी समस्याओं को समझकर कोष से एक निश्चित धनराशि दिलाकर तकनीकी रूप से देश के विकास करने में सहायता प्रदान करता है।
  • कोष द्वारा इस संबंध में प्रशुल्क मामलों का विभाग तथा केन्द्रीय बैंकिंग सलाह सेवाएं अति महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।

विकास और मुद्रा कोष (Development and IMF)

  • अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष प्रत्येक देश के विकास के लक्ष्य को लेकर निर्मित किया गया हैं इसके सदस्य देशों में से 24 देशों के समूह, जिन्हें G-24 के नाम से सम्बोधित किया जाता है, ने विकासशील देशों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का अध्ययन करके उन्हें विकसित देशों के साथ उचित तालमेल की सलाह दी है।
  • 1987 में G-24 ने “विकास के साथ समायोजन में मुद्रा कोष की भूमिका” विषय पर विकास गोष्ठी सम्पन्न की जिसकी रिपोर्ट के अनुसार मुद्रा कोष के कार्यक्रमों में आर्थिक विकास के समायोजन हेतु वित्तीय कार्यक्रमों के पूर्व विकास से सम्बन्धित कार्यो को पूर्ण करने की सलाह दी गई थी।
  • विभिन्न देशों द्वारा लिए गए ऋणों की मात्रा, उन पर आरोपित ब्याज की दरें आदि को भी मुद्रा कोष ध्यान में रखता है तथा विकास के साथ समायोजन करता हैं।

मुद्रा कोष ने वर्तमान समय तक विभिन्न सदस्य देशों के लिए बहुत ही सफल कार्य किये हैं। भारत की दृष्टि से भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की आलोचनाएं

मुद्रा कोष द्वारा किये गए विकास कार्यों के साथ-साथ इसकी आलोचना भी बहुत हुई है। कुछ अर्थशास्त्री की टिप्पणी के अनुसार “मुद्रा कोष अपने उद्देश्यों में सर्वथा विफल रहा है।”

  • मुद्रा कोष विकसित तथ सबल राष्ट्रों को प्राथमिकता देता हैं और सबल राष्ट्र यदि कुछ गलत भी कर दें तो मुद्रा कोष उन पर पूर्ण ध्यान नहीं देता। जो कि एक भेदभाव पूर्ण नीति है।
  • मुद्रा कोष को आधार विनिमय आवश्यकताओं, भुगतान शेषों की प्रतिकूलता, विकास की स्थिति आदि तत्वों पर आधारित होना चाहिए था।
  • मुद्रा कोष जब राष्ट्रों को विकसित एवं पुननिर्मित करने का दायित्व निर्वाह कर रहा है तो दीर्घकालिक ऋण भी उपलब्ध कराने चाहिए जबकि कोष केवल अल्पकालीक सहायता ही उपलब्ध कराता हैं।
  • मुद्रा कोष सदस्य देशों की विदेशी मुद्रा संबंधी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाया।
  • कार्यकारी समिति अधिकतर विकसित देशों के हितों की रक्षा करती है, अल्प विकसित देशों की और पूर्ण ध्यान नहीं दे पाती।
  • विकासशील देशों को अपर्याप्त सहायता प्राप्त हो सकी हैं।
  • ऋणों को अल्पावधि का एवं इसका क्षेत्रा सीमित कर दिया गया हैं
  • कोष डालर के अभाव को पूर्ण रूप से दूर नहीं कर पाया।
  • कोष ने समता मूल्यों के निर्धारण उचित आधार पर नहीं किये है।

मुद्रा कोष ने सदस्य देशों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय मौद्रिक सहयोग प्रदान करने में विशिष्ट सहायता प्रदान की है। लेकिन मुद्रा कोष हमेशा विकसित देशों को प्राथमिकता देता है जो कि दोहरी नीति को दर्शाता है। आज विकासशील देशों के सम्मुख ऊर्जा समस्या, खाड़ी संकट, मन्दी की दशाऐं, भुगतान असन्तुलन की समस्या आदि विभिन्न प्रकार की समस्याएं विद्यमान हैं, जिनका समाधान अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष बखूबी कर सकता हैं।

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