पश्चिमी भारत में दलित आंदोलन का मुख्य कारण। भारत की समाज सरंचना में चातुवर्ण व्यवस्था का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। ये चारो वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में जाने जाता है। ये एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था थी परम्परा से यह व्यवस्था जन्म से जुड गयी थी। जिस परिवार में आपका जन्म हुआ उस परिवार की जाति ही आपकी जाति है। इतिहास के दौर में ये चार वर्ण अनेको जाति में विभाजित हो गयी क्योंकि समाज ज्यों-ज्यों संश्लिष्ट होता गया, व्यवसाय बढ़ता गया और उसी क्रम में जाति भी बढ़ती गयी और जाति व्यवस्था सामाजिक रूप से धीरे-धीरे सुदृढ़ हो गया।
अंग्रेजो के शासन काल में
अंग्रेजी शासन से भारत की जाति व्यवस्था पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा। क्योकि वे स्वयं अजातिय व्यवस्था से आये थे। उनके यहाँ विभेद वर्ण आधारित न होकर वर्ग आधारित था। वहीँ विभिन्न जातियों में विभाजित भारत की सामाजिक व्यवस्था उनकी साम्राज्यवादी नीति ‘फूट डालो और राज करो’ के अनुकूल थी। 19वीं और 20वीं शताब्दी में कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिनमे निम्न जातियों में जातीय चेतना जगी और उन्होंने जातीय समानता प्राप्त करने का भर अपने ऊपर ले लिया उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप दक्षिणी और पश्चिमी भारत में भिन्न-भिन्न जातीय आंदोलन शुरू हो गया।
अंग्रेजो की बनाई गयी नीति
अंग्रेजो की ‘बांटो और राज करो’ की नीति के फलस्वरूप पश्चिमी विद्या प्रणाली के प्रसार के कारण, एक समान दंड संहिता (1861) तथा दंड प्रक्रिया संहिता (1872) में लागु होने से, रेलों के विस्तार से (जिनमे प्रत्येक व्यक्ति टिकट मोल लेकर किसी भी उपलब्ध स्थान पर बैठ सकता था), राष्ट्रीय जागरण के विकसित होने से, समानता तथा सामाजिक समतावाद पर आधारित आधुनिक राजनितिक विचारो का प्रसार, सभी ने एक ऐसा सामाजिक तथा राजनैतिक वातावरण बना दिया।
जिसमे जाति प्रथा का न्याय संगत कहना असंभव हो गया। इसलिए निम्न जातियों में ऐसे नेता उभरे जिन्होंने स्वयं इस समानता के आंदोलन का नेतृत्व किया।
पश्चिमी भारत में दलित आंदोलन
पश्चिमी भारत में दलित आंदोलन से पहले कुछ धार्मिक सुधार आंदोलन भी प्रारम्भ हो गए थे। महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आन्दोलन 1840 में प्रारम्भ हो गया था। इस आंदोलन की शुरुआत परमहंस मंडली की स्थापना से हुई, जिसका उद्देश्य था मूर्तिपूजा और जाति-प्रथा का विरोध अथवा विधवा-विवाह का समर्थन।
पश्चिमी भारत में सबसे पहले धार्मिक सुधारक ‘गोपाल हरि देश मुख’ हुए जो ‘लोकहितवादी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने मराठी में लिखा और हिन्दू धर्म की रूढ़िवादिता पर गंभीर रूप से प्रहार किया। उन्होंने धार्मिक और सामाजिक समानता का समर्थन किया। इसके बाद पश्चिमी भारत में अनेक संस्था का गठन हुआ जिसमे ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि।
जिन्होंने समाज में जाति व्यवस्था और पुरोहितों के आधिपत्य की आलोचना की। भारत में निम्न जाति आंदोलन के रूप में किये गए प्रयास भारत में निम्न जाति के स्थिति में सुधार के लिए प्रारंभिक प्रयास महाराष्ट्र में ज्योतिवा फुले के नेतृत्व किया गया। पश्चिमी भारत में ज्योतिवा फुले (1827-90) ने निम्न जातियों के लिए संघर्ष किया। ज्योतिवा राव ने पुणे में माली कुल में जन्म लिया।
उसके पूर्वज पेशवाओ को पुष्प, मालाएं इत्यादि उपलब्ध कराया करते थे। इसलिए उन्हें फुले कहा जाने लगा। महाराष्ट्र में फुले चातुवर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण विरोधी आंदोलन के प्रथम प्रवक्ता बने। उनकी दृष्टि में भारतीय समाज की मूल समस्या थी ब्राह्मणो के लोक जीवन के हर क्षेत्र में वर्चस्वता। इसलिए उन्होंने ब्राह्मणेत्तर समूहों को एकजुट होने के लिए आवाहन किया। इसके लिए 1873 में उन्होंने पुणे में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की।
सत्यशोधक समाज
फुले ने ‘सत्यशोधक समाज‘ नामक संस्था द्वारा धार्मिक सुधार आंदोलन के कार्यक्रमों का निर्धारण एवं क्रियान्वन किया इसके द्वारा समाज में व्याप्त रूढ़ियाँ एवं शोषणकारी समाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के विरुद्ध जनमानस में वास्तविकता का बोध कराने का प्रयास किया गया।
तत्कालीन महाराष्ट्र में सामाजिक स्तरीकरण वर्णाश्रम धर्म से नियंत्रित था जिसके अंतर्गत क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक वर्गों की असमान जाति का क्रम व्यवस्था के आधार पर समाज का विभाजन किया गया। इसमें स्तरीकरण से नियंत्रित विभिन्न जातियों के बीच आपसी सामाजिक संबंध को अनेक अंधविश्वासों, कुरूतियों एवं अमानवीय अत्याचारों द्वारा शोषणकारी बना दिया गया।
ब्रिटिश शासन के दौरान ब्राह्मण अंग्रेजी शिक्षा को सफलतापूर्वक अपनाकर औपनिवेशिक काल में छाये रहे। इस स्थिति ने गैर ब्राह्मण जातियों में दर पैदा कर दिया। साथ ही, इस प्रकार की रूढ़ सामाजिक व्यवस्था की ईसाई मिशनरियो एवं राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों द्वारा पश्चिमी उदारवादी विचारधारा के सन्दर्भ में तीव्र आलोचना की जा रही है। इन्ही परिस्थितियों ने फुले को सत्यशोधक समाज की स्थापना हेतु प्रेरित किया।
सत्यशोधक समाज का विशेष प्रभाव
सत्यशोधक समाज ने सार्वजनिक धर्म का समर्थन करते हुए छुआ-छूत व गुलामी प्रथा के विरुद्ध आंदोलन किया। इस आंदोलन ने धर्म पर ब्राह्मणो का एकाधिकार को चुनौती दी और उस पर सार्वजनिक अधिकार को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। सत्यशोधक समाज जाति प्रथा के पूर्ण उन्मूलन और सामाजिक आर्थिक समानता का पक्षधर था तथा ब्राहम्णो के वर्चस्व को समाप्त कर अछूत जातियों की सामाजिक पहचान हेतु क्रियाशील था।
सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मण और पुरोहित वर्ग को समाज के शोषक वर्ग के रूप में देखते हुए लगातार उनके विशेषाधिकार एवं वर्चस्व का विरोध करते हुए एक समतावादी समाज की स्थापना का प्रयास में संलग्न में रहा।