किसी अन्य लिखित संविधान के समान भारतीय संविधान में भी परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप उसे संशोधित और व्यवस्थित करने की व्यवस्था है। हालांकि संविधान का संशोधन प्रक्रिया ब्रिटेन के समान आसान अथवा अमेरिका के समान अत्यधिक कठिन नहीं है। दूसरे शब्दों में, भारतीय संविधान न तो लचीला है, न कठोर; यद्यपि यह दोनों का समिश्रण है।
संविधान का संशोधन
संविधान के भाग XX के अनुच्छेद-368 में संसद को संविधान एवं इसकी व्यवस्था में संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है। यह प्रावधान करता है कि संसद अपनी संवैधानिक शक्ति का प्रयोग, करते हुए इस संविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन कर सकती है। हालांकि संसद उन व्यवस्थाओं को संशोधित नहीं कर सकती, जो संविधान के मूल ढांचे से संबंधित हों। यह व्यवस्था उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानंद भारती मामले (1973) में दी गई थी।
संविधान का संशोधन प्रक्रिया (Constitution Amendment Process)
अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का निम्नलिखित तरीकों से उल्लेख किया गया है:
- संविधान के संशोधन का आरंभ संसद के किसी सदन में इस प्रयोजन के लिए विधेयक पुनः स्थापित करके ही किया जा सकेगा और राज्य विधानमण्डल में नहीं।
- विधेयक को किसी मंत्री या गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पुनः स्थापित किया जा सकता है और इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं है।
- विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है। यह बहुमत सदन की कुल सदस्य संख्या के आधार पर सदन में उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत या मतदान द्वारा होना चाहिए।
- प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है। दोनों सदनों के बीच असहमति होने पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में विधेयक को पारित कराने का प्रावधान नहीं है।
- यदि विधेयक संविधान की संघीय व्यवस्था के संशोधन के मुद्दे पर हो तो इसे आधे राज्यों के विधानमंडलों से भी सामान्य बहुमत से पारित होना चाहिए। यह बहुमत सदन में उपस्थित सदस्यों के बीच मतदान के तहत हो।
- संसद के दोनों सदनों से पारित होने एवं राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के बाद जहां आवश्यक हो, फिर राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए भेजा जाता है।
- राष्ट्रपति विधेयक को सहमति देंगे। वे न तो विधेयक को अपने पास रख सकते हैं और न ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं।
- राष्ट्रपति की सहमति के बाद विधेयक एक अधिनियम बन जाता है (संविधान संशोधन अधिनियम) और संविधान में अधिनियम की तरह इसका समावेश कर लिया जाएगा।
संशोधनों के प्रकार
अनुच्छेद 368 दो प्रकार के संशोधनों की व्यवस्था करता है। ये हैं:
- संसद के विशेष बहुमत द्वारा और
- आधे राज्यों द्वारा साधारण बहुमत के माध्यम से संस्तुति द्वारा।
लेकिन कुछ अन्य अनुच्छेद संसद के साधारण बहुमत से ही संविधान के कुछ उपबंध संशोधित हो सकते हैं, यह बहुमत प्रत्येक सदन में उपस्थित एवं मतदान (साधारण विधायी प्रक्रिया) द्वारा होता है। उल्लेखनीय है कि ये संशोधन अनुच्छेद 368 के उद्देश्यों के तहत नहीं होते।
इस तरह संविधान संशोधन तीन प्रकार से हो सकता है:
- संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन।
- संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन।
- संसद के विशेष बहुमत द्वारा एवं आधे राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के उपरांत संशोधन।
1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा
संविधान के अनेक उपबंध संसद के दोनों सदनों द्वारा साधारण बहुमत से संशोधित किए जा सकते हैं। ये व्यवस्थाएं अनुच्छेद 368 की सीमा से बाहर हैं।
इन व्यवस्थाओं में शामिल हैं:
- नए राज्यों का प्रवेश या गठन।
- नए राज्यों का निर्माण और उसके क्षेत्र, सीमाओं या संबंधित राज्यों के नामों का परिवर्तन
- राज्य विधानपरिषद का निर्माण या उसकी समाप्ति।
- दूसरी अनुसूची – राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा अध्यक्ष, न्यायाधीशों आदि के लिए परिलद्धियां, भत्ते, विशेषाधिकार आदि।
- संसद में गणपूर्ति
- संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते
- संसद में प्रक्रिया नियम
- संसद, इसके सदस्यों और इसकी समितियों को विशेषाधिकार
- संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग
- उच्चतम न्यायालयों में अवर न्यायाधीशों की संख्या
- उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र को ज्यादा महत्व प्रदान करना
- राजभाषा का प्रयोग
- नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति
- संसद एवं राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचन
- निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण
- केंद्रशासित प्रदेश
- पांचवीं अनुसूची-अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन
- छठी अनुसूची-जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन।
2. संसद के विशेष बहुमत द्वारा
संविधान के ज्यादातर उपबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है अर्थात् प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई का बहुमत। कुल सदस्यता अभिव्यक्ति का अर्थ सदन के सदस्यों की कुल संख्या से है फिर चाहे इसमें रिक्तियां या अनुपस्थिति हो।
‘स्पष्ट शब्दों में विशेष बहुमत की आवश्यकता विधेयक के तीसरे पठनचरण पर केवल मतदान के लिए आवश्यक होती है। परन्त पर्ण बचाव के लिए विधेयक की सभी अवस्थाओं के संबंध में सभा के नियमों में विशेष बहुमत की आवश्यकता की व्यवस्था की गई है।
इस तरह की संशोधन व्यवस्था में शामिल हैं
- मूल अधिकार
- राज्य की नीति के निदेशक तत्व, और
- वे सभी उपबंध, जो प्रथम एवं तृतीय श्रेणियों से संबद्ध नहीं हैं।
3. संसद के विशेष बहुमत एवं राज्यों की स्वीकृति द्वारा
नीति के संघीय ढांचे से संबंधित संविधान के उपबंधों को संसद के विशेष बहमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है और इसके लिए यह भी आवश्यक है कि आधे राज्य विधानमंडलों में साधारण बहुमत के माध्यम से उनको मंजूरी मिली हो। यदि एक, कुछ या बचे राज्य विधेयक पर कोई कदम नहीं उठाते तो इसका कोई फर्क नहीं पड़ता। आधे राज्य उन्हें अपनी संस्तुति देते हैं,तो औपचारिकता पूरी हो जाती है। विधेयक को स्वीकृति देने के लिए राज्यों के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। निम्नलिखित उपबंधों को इसके तहत संशोधित किया जा सकता
- राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया।
- केंद्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार।
- उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय।।
- केंद्र एवं राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन।
- वस्तु और सेवा कर परिषद (GST)
- सातवीं अनुसूची से संबद्ध कोई विषय।
- संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व।
- संविधान का संसोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया (अनुच्छेद 368 स्वयं) |
संशोधन प्रक्रिया की आलोचना (Criticism of the amendment process)
आलोचकों ने संविधान संशोधन प्रक्रिया की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की है:
1. संविधान संशोधन के लिए किसी विशेष निकाय, जैसे-सांविधानिक सभा (अमेरिका) या सांविधानिक परिषद हेतु कोई उपबंध नहीं है। संसद को संविधायी शक्ति व्यापक रूप से प्राप्त है, कुछ मामलों में राज्य विधानमंडलों को।
2. संविधान संशोधन की शक्ति संसद में निहित है। इस तरह अमेरिका’ के विपरीत राज्य विधानमंडल राज्य, विधानपरिषद के निर्माण या समाप्ति के प्रस्ताव के अतिरिक्त कोई विधेयक या संविधान संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकता। यहा भी संसद इसे या तो पारित कर सकती है या नहीं या इस पर कोई कार्यवाही नहीं कर सकती।
3. संविधान के बड़े भाग को अकेले संसद ही विशेष बहुमत या साधारण बहुमत द्वारा संशोधित कर सकती है। सिर्फ कुछ मामलों में राज्य विधानमंडल की संस्तुति भी आवश्यक होती है, वह भी उनमें से आधे की, जबकि अमेरिका में यह तीन-चौथाई राज्यों के द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक है।
4. संविधान ने राज्य विधानमंडलों द्वारा संशोधन संबंधी मंजूरी या उसके विरोध को प्रस्तुत करने की समय सीमा निर्धारित नहीं की है। वह इस मुद्दे पर मौन है कि अपनी संस्तुति के बाद क्या राज्य इसे वापस ले सकता है।
5. किसी संविधान संशोधन अधिनियम के संदर्भ में गतिरोध हो तो संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं है, दूसरी तरफ एक साधारण विधेयक के मुद्दे पर संयुक्त बैठक आहत की जा सकती है।
6. संशोधन की प्रक्रिया विधानमंडलीय प्रक्रिया के समान है। केवल विशेष बहुमत वाले मामले के अतिरिक्त संविधान संशोधन विधेयक को संसद से उसी तरह पारित कराया जा सकता है, जैसे-साधारण विधेयक।
7. संशोधन प्रक्रिया से संबद्ध व्यवस्था बहुत अपर्याप्त है; अत: इन्हें न्यायपालिका को संदर्भित करने के व्यापक अवसर होते हैं।
इन कमियों के बावजूद यह नकारा नहीं जा सकता कि प्रक्रिया साधारण व सरल है और परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार है। संविधान संशोधन की प्रक्रिया को इतना लचीला नहीं होना चाहिए कि उसे सत्तारूढ़ पार्टी अपने हिसाब से परिवर्तित करा ले, न ही इसे इतना कठोर होना चाहिए कि आवश्यक परिवर्तनों को भी स्वीकार न कर पाए।
संशोधन प्रक्रिया का महत्व
के.सी. व्हेयर ने ठीक ही कहा है-“लचीलेपन व जटिलता के बीच बेहतर संतुलन है।” इस संदर्भ में पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा “हम इस संविधान को इतना ठोस बनाना चाहते हैं जितना स्थायी हम इसे बना सकते हैं और संविधान में कुछ भी स्थायी नहीं है।” इसमें कुछ लचीलापन होना चाहिए। यदि आप संविधान को कठोर और स्थायी बनाते हैं तो आप राष्ट्र की प्रगति को, रोकते हैं।’
इसी तरह डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में महसूस किया कि ‘सभा ने इस संविधान पर किसी अंतिम और भ्रमित मोहर लगाने से स्वयं को दूर रखा है, ऐसा उसने कनाडा की तरह लोगों को संविधान संशोधन का अधिकार न देने, अथवा अमेरिका या आस्ट्रेलिया की तरह असाधारण नियमों और शर्तों को पूरा करने के बाद संशोधन प्रक्रिया, से स्वयं को दूर रखकर किया है बल्कि संविधान संशोधन हेतु सरल प्रक्रिया बनायी है।’
के.सी. व्हेयर भारत के संविधान में विभिन्न प्रकार की संशोधन प्रकिया के प्रशंसक हैं। वे कहते हैं-‘संशोधन व्यवस्था में यह विविधता बुद्धिमत्तापूर्ण लेकिन मुश्किल से ही मिलने वाली है।” ग्रीनविल ऑस्टिन के अनुसार “संशोधन प्रक्रिया अपने आप में सिद्ध करती है कि यह संविधान का सर्वाधिक स्वीकार्य भाग है। यद्यपि यह बहुत जटिल है, ‘यह काफी विविध गुण वाला है।“
Read more chapter:-
- Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- Chapter-2: संविधान का निर्माण
- Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
- Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
- Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
- Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
- Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
- Chapter-8: राज्य के नीति निदेशक तत्व
- Chapter-9: मूल कर्तव्य | Fundamental Duties