शरीर में जब किसी प्रकार का कष्ट या तकलीफ होता है या शरीर के अंग अपने-अपने कार्य जब सही ढंग से नहीं कर पाते तब उसे शारीरिक रोग कहते हैं।
शारीरिक रोग की परिभाषा
आक्फोर्ड शब्दकोश के अनुसार- ‘‘शारीरिक रोग शरीर के या शरीर के किसी अंग की वह दशा है जिसमें इसके कार्य बाधित होते हैं या व्यतिक्रमित होते हैं।’’
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार- ‘‘शारीरिक रोग प्रकृति की वह प्रक्रिया है जिससे शरीर की सफाई होती है। शरीर से मल और रोगों के हटाने के प्रयत्न को रोग कहते हैं।’’
शारीरिक रोग के कारण
व्यक्ति के अप्राकृतिक जीवनयापन, प्रकृति विरूद्ध आहार-विहार, दूषित वातावरण व खाद्य पदार्थों से हमारे शरीर में दोष बढ़ने लगते है और हमारे शरीर में शारीरिक रोग के रूप में प्रकट होते हैं। शारीरिक रोग बिना कारण के नहीं होते हैं। भोजन आवश्यकता से अधिक अथवा गलत तरीके का भोजन किया जाता है तो पाचन तंत्र पर विशेष रूप से दबाव पड़ता है और कुछ समय बाद पाचन तंत्र अपना कार्य सुचारु रूप से करने में असमर्थ हो जाता है। मल बाहर निकलने में समय लगता है। तो शारीरिक रोग को बढ़ावा देते है।
फेफड़े, वृक्क, त्वचा तथा आंतों से दोष शरीर से बाहर निकलता है। यदि किसी कारण से उस मल का बाहर निकल जाने का रास्ता अवरूद्ध हो जाता है या कम निकलता है तो यह पहले पेडू के पास इकट्ठा होता है और धीरे-धीरे दूसरे अंगों के पास पहुँच जाता है लेकिन जब फरमेन्टेशन होता है तो पदार्थ ऊपर की ओर जैसा कि गैसों का ऊपर उठने का स्वभाव होता है, बढ़ता है।
इसी कारण सबसे पहले रोग शरीर के ऊपरी भाग में सिरदर्द के रूप में होता हैं फरमेन्टेशन उष्णता लाता है। रक्त का तापक्रम बढ़ता है जो ज्वर के रूप में दीखता है। ज्वर तभी होता है जब शरीर में दोष होता है तथा मल निष्कासन के तरीके अवरूद्ध हो जाते हैं, पेट साफ नहीं होता है, मूत्र कम निकलता है, त्वचा के रोमकूप बाधित होते हैं तथा श्वसन तंत्र प्रभावित होता है।
शारीरिक रोग दो रूपों में पहला तीव्र रोग एवं दूसरा जीर्ण रोग के रूप में होते हैं।
- तीव्र रोग हैं, जैसे- बुखार, सिरदर्द, दस्त, वमन आदि। लेकिन जब तीव्र रोगों को दवा आदि से दबा दिया जाता है या
- जब जीवनीशक्ति कमजोर हो जाती है तो वही तीव्र रोग जीर्ण रोग के रूप में परिवर्तित हो जाती है, जैसे- दमा, यक्ष्मा, गठिया, लकवा, मधुमेह, मोटापा आदि।
शारीरिक रोग के कई कारणों में अप्राकृतिक जीवनयापन जिसमें भोजन संबंधी गलत आदतें, आलस्य, पंचतत्वों का कम से कम उपयोग, मिथ्योपचार, कृत्रिमता से लगाव, मानसिक कुविचार आदि हैं। इसके अतिरिक्त जीवनीशक्ति की कमी, विजातीय द्रव्य की वृद्धि, वंश परंपरा संस्कार, बाह्य प्रहार या आकस्मिक दुर्घटना, रोगोत्पादक जीवाणु, दूषित व विषाक्त वातावरण आदि शारीरिक रोग के प्रमुख कारण हैं।
शरीर शुद्धि के चार मार्ग या संस्थान हैं जिसके माध्यम से दोष बाहर निकलते हैं-
- श्वसन मार्ग से दूषित वायु के रूप में,
- मूत्र मार्ग से तरल के रूप में,
- त्वचा मार्ग से तरल पसीने के रूप में तथा
- मल या गुदा मार्ग से ठोस मल के रूप में।
रोग के प्रकार
शारीरिक रोग का विभाजन आयुर्वेद में चार श्रेणियों में हुआ है, जो निम्नलिखित हैं-
- शरीर में विजातीय द्रव्य या दोष के कारण जो रोग होते हैं, उन्हें शारीरिक रोग कहते हैं। जैसे- ज्वर, मलेरिया, दमा, कैन्सर आदि।
- अभिघात (चोट लगने, दुर्घटना आदि) से जो पीड़ायें होती हैं, उन्हें आगंतुक रोग कहते हैं। जैसे- पेड़ से गिरना, चोट लगना आदि।
- क्रोध, शोक, भय, लोभ, मोह आदि रोगों निमित्तक मानसिक रोग कहते हैं
- क्षुधा, प्यास, जरा एवं मृत्युजन्य क्लेश स्वाभाविक रोग या व्याधियाँ कहलाती हैं।
Read more: