मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव
मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव: एक ओर मूल अधिकारों की न्यायोचितता और निदेशक तत्वों की गैरन्यायोचितता तथा दूसरी ओर निदेशक तत्वों (अनुच्छेद 37) को लागू करने के लिए राज्य की नैतिक बाध्यता ने दोनों के मध्य टकराव को जन्म दिया है। यह स्थिति संविधान लागू होने के समय से ही है। चम्पाकम दोराइराजन मामले (1951)20 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि निदेशक सिद्धांत एवं मूल अधिकारों के बीच किसी तरह के टकराव में मूल अधिकार प्रभावी होंगे। इसमें घोषणा की गयी है कि निदेशक सिद्धांत, मूल अधिकारों के पूरक के रूप में निश्चित रूप से लागू होंगे। लेकिन यह भी तय हुआ कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के तहत संशोधित किया जा सकता है। इसी के फलस्वरूप संसद ने प्रथम संशोधन अधिनियम (1954), चौथा संशोधन अधिनियम (1955) एवं सत्रहवां संशोधन अधिनियम (1961) द्वारा कुछ निर्देशों में लागू किया।
गोलकनाथ मामले
उपरोक्त परिस्थिति में 1967 में उच्चतम न्यायालय के फैसले में गोलकनाथ मामले से एक व्यापक परिवर्तन हुआ। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि संसद किसी मूल अधिकार, जो अपनी प्रकृति में उल्लंघनीय है को समाप्त नहीं कर सकती। दूसरे शब्दों में, निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता। संसद ने गोलकनाथ मामले (1967) पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पर 24वें संशोधन अधिनियम (1971) एवं 25वें संशोधन अधिनियम (1971) के द्वारा प्रतिक्रिया व्यक्त की। 24वें संशोधन अधिनियम में घोषणा की गई कि संसद को यह अधिकार है कि वह संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत मूल अधिकारों को समाप्त करे या कम कर दे।
25वें संशोधन अधिनियम के तहत एक नया अनुच्छेद 34ग जोड़ा गया, जिसमें निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गईं :
- अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में वर्णित समाजवादी निदेशक तत्वों को लागू कराने वाली किसी विधि को इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि वह अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण) , अनुच्छेद 19 (वाक् स्वतंत्रय, सम्मेलन, संचरण के संबंध में छह अधिकारों का संरक्षण) या अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार) द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
- ऐसी नीति को प्रभावी बनाने की घोषणा करने वाली किसी भी विधि को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि यह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं करता।
केशवानंद मामले
केशवानंद भारतीय केस (1973) में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 31ग के उपरोक्त दूसरे प्रावधान को इस आधार पर असंविधानिक और अवैध घोषित किया कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और इसलिए इससे इसे नहीं छीना जा सकता। हालांकि अनुच्छेद 31ग के उपरोक्त प्रथम प्रावधान को संवैधानिक एवं वैध माना गया है। 42वें संविधान अधिनियम (1976) में उपरोक्त अनुच्छेद 31ग की पहली व्यवस्था के प्रावधानों को विस्तारित किया गया।
इसमें न केवल अनुच्छेद 39(ख) और (ग) में वर्णित को किसी निदेशक तत्व को लागू करने वाली विधि को अपने संरक्षण में सम्मिलित किया गया। दूसरे शब्दों में, 42वें संशोधन अधिनियम में निदेशक तत्व की प्राथमिकता एवं सर्वोच्चता को मूल अधिकारों पर प्रभावी बनाया गया। उन अधिकारों पर, जिनका उल्लेख अनुच्छेद 14, 19 एवं 31 में है।
मिनर्वा मिल्स मामले
हालांकि इस विस्तार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मिनर्वा मिल्स मामले‘ (1980) में असंवैधानिक एवं अवैध घोषित किया गया। इसका तात्पर्य है कि निदेशक तत्व को एक बार फिर मूल अधिकारों के अधीनस्थ बताया गया। लेकिन अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 द्वारा स्थापित मूल अधिकारों को अनुच्छेद 39(ख) और (ग) में बताए गए निदेशक तत्व के अधीनस्थ माना गया। अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार) को 44वें संशोधन अधिनियम (1978) द्वारा समाप्त कर दिया गया।
मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था भी दी कि, “भारतीय संविधान मूल अधिकारों और निदेशक तत्वों के बीच संतुलन के रूप में है। ये आपस में सामाजिक क्रांति के वादे से जुड़े हुए हैं। ये एक रथ के दो पहियों के समान हैं तथा एक-दूसरे से कम नहीं हैं। इन्हें एक-टूसरे पर लादने से संविधान की मूल भावना बाधित होती है। मूल भावना और संतुलन संविधान के बुनियादे ढांचे की आवश्यक विशेषता है। निदेशक तत्वों के तय लक्ष्यों को मूल अधिकारों को प्राप्त किए बगैर, प्राप्त नहीं किया जा सकता।”
इस तरह वर्तमान स्थिति में मूल अधिकार, निदेशक तत्व पर उच्चतर हैं। फिर भी इसका अभिप्राय यह नहीं है; कि निदेशक तत्वों को लागू नहीं किया जा सकता। संसद, निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। इस संशोधन से संविधान के मूल ढांचे को क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए।
मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों के मध्य विभेद
मूल अधिकार | निदेशक तत्व |
1. ये नकारात्मक हैं जेसा कि ये राज्य को कुछ मसलों पर कार्य करने से प्रतिबंधित करते हैं। | 1. ये सकारात्मक हें, राज्य को कुछ मसलों पर इनकी आवश्यकता होती है। |
2. ये न्यायोचित होते हैं, इनके हनन पर न्यायालय द्वारा इन्हें लागू कराया जा सकता है। | 2. ये गैर-न्यायोचित होते हैं। इन्हें कानूनी रूप से न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता। |
3. इनका उद्देश्य देश में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना है। | 3. इनका उद्देश्य देश में सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है। |
4. ये कानूनी रूप से मान्य हैं। | 4. इन्हें नैतिक एवं राजनीतिक मान्यता प्राप्त है। |
5. ये व्यक्तिगत कल्याण को प्रोसाहन देते हैं, इस प्रकार ये वैयक्तिक है। | 5. ये समुदाय के कल्याण को प्रोस्ाहित करते हैं, इस तरह ये समाजवादी हैं। |
6. इनको लागू करने के लिए विधान की आवश्यकता नहीं, ये स्वतः लागू हैं। | 6. इन्हें लागू रखने विधान की आवश्यकता होती है, ये स्वत: लागू नहीं होते। |
7. न्यायालय इस बात के लिए बाध्य है कि किसी भी मूल अधिकार के हनन की विधि को वह गैर-संवैधानिक एवं अवैध घोषित करे। | 7. निदेशक तत्वों का उल्लंघन करने वाली किसी विधि को न्यायालय असंवेधानिक और अवैध घोषित नहीं कर सकता। यद्यपि विधि की वैधता को इस आधार पर सही ठहराया जा सकता है कि इन्हें निदेशक तत्वों को प्रभावी करने के लिए लागू किया गया था। |
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Read more chapter:-
- Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- Chapter-2: संविधान का निर्माण
- Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
- Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
- Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
- Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
- Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
- Chapter-8: राज्य के नीति निदेशक तत्व