दर्शन (philosophy) वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। भारतीय दर्शन (philosophy) उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके। ‘तत्व दर्शन’ या ‘दर्शन'(philosophy) का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृति के लिए या तत्व ज्ञान कराने के लिए दर्शन का जन्म हुआ है।
पाणिनी व्याकरण के अनुसार ‘दर्शन’ शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन (philosophy) का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन आदि।
भारतीय दर्शन (Indian philosophy)
भारतीय दर्शन (philosophy) का आरंभ वेदों से होता है। ‘वेद’ भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्रोत हैं। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हज़ारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा-सा अंश है। वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये ‘संहिता’, ‘ब्राह्मण’, ‘आरण्यक‘ और ‘उपनिषद’ हैं। मनु का कथन है कि सम्यक दर्शन प्राप्त होने पर कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं डाल सकता तथा जिनको सम्यक दृष्टि नहीं है वे ही संसार के मोह और जाल में फंस जाते हैं। दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र कहते हैं।
तत्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारत वर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ कहते हैं। ऋग्वेद के अत्यंत प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्वों के विवेचन में कृत कार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्वों के समीक्षण में समर्थ होती है।
भारतीय दर्शन (Indian philosophy) का विषय
दर्शन (philosophy) को हम दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक और अलौकिक अथवा मानवी(सापेक्ष) और आध्यात्मिक(निरपेक्ष)। दर्शन सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय जड़ और चेतन दोनों हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्वों के विषय साहित्य में मिलते हैं। दर्शनशास्त्रों के प्रथम सूत्र उस दर्शन (philosophy) की विषय वस्तु का परिचय देते हैं –
- अथातो धर्म जिज्ञासा (पूर्व मीमांसा)
- अथातो ब्रह्म जिज्ञासा। (वेदान्त सूत्र)
- अथ योगानुशासनम्। (योग सूत्र)
- अथातो धर्म व्याख्यास्यामः। (वैशेषिक सूत्र)
- अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। (सांख्य सूत्र)
- प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्त सिद्धान्तावयवतर्क निर्णयवाद जल्पवितण्डा हेत्वाभासच्छल जातिनि ग्रहस्थानानाम्तत्त्व ज्ञानात्निः श्रेयसाधिगमः। (न्याय सूत्र)
भारतीय दर्शन (Indian philosophy) की यात्रा
वैदिक ऋषियों ने एकांत अरण्यों(वनों) में रहकर जिन ग्रंथों की रचना की, वे आरण्यक कहलाये। इन ग्रंथों में तप को ज्ञान मार्ग का आधार मानकर तप पर बल दिया गया था। भारतीय यज्ञ पद्धति का सम्यक विवेचन श्रौत सूत्रों में मिलता है, मानव जीवन के सोलह संस्कारों का विवेचन स्मृति सूत्रों में उपलब्ध है। विद्वानों ने महात्मा बुद्ध से प्राचीन सांख्य, योग और मीमांसा को माना है। ये दर्शन उस समय किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिक दर्शन बुद्ध से प्राचीन ही है। आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांस और वैशेषिक समझे जाते थे। जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक महावीर स्वामी भी बुद्ध से प्राचीन थे।
भारतीय दर्शन (Indian philosophy) का स्रोत
भारतीय दर्शन (philosophy) का आरंभ वेदों से होता है। “वेद” भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्रोत हैं। धार्मिक और सांस्कृतिक कृतियों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार मिलते हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदि स्रोत मानते हैं। ये “आस्तिक दर्शन”(Theistic philosophy) कहलाते हैं।
वैदिक साहित्य का चार चरण संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को “संहिता” कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। इन वेद मंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना वैदिक धर्म का मूल रूप था। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। “आत्मा” विषय जगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों से अलग एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है।
दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को “वेदांत” भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। सन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर सन्यास वाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है।
भारतीय दर्शन-परम्परा
हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यंत प्राचीन परम्परा रही है। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छह दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये छह दर्शन ये हैं – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। गीता का कर्मवाद इनके समकालीन है। षडदर्शनों को ‘आस्तिक दर्शन’ कहा जाता है। हिन्दू दार्शनिक परम्परा में विभिन्न प्रकार के आस्तिक दर्शनों के अलावा अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दार्शनिक परम्पराएँ विद्यमान रहीं हैं।
न्याय दर्शन(Justice philosophy)
महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मों में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
वैशेषिक दर्शन(special philosophy)
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छह पदार्थों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधर्म्य तथा वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों चेतन हैं। किंतु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
सांख्य दर्शन (numerology philosophy)
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदाथों का वर्णन किया गया है। पुरुष 25वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है।
योग दर्शन (Yoga philosophy)
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। साथ ही योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं?, इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है।
मीमांसा दर्शन (Epistemology philosophy)
मीमांसा सूत्र के रचयिता महर्षि जैमिनि हैं, यह दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। यदि योग दर्शन अंतःकरण शुद्धि का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्यों और अकर्तव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
वेदान्त दर्शन (Vedanta philosophy)
वेदान्त का अर्थ है वेदों का अन्तिम सिद्धान्त। महर्षि व्यास द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस दर्शन को उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन में ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता या संहारकर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। जन्म-मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार है। वेदान्त के अनेक सम्प्रदाय(अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि) बने।
चार्वाक दर्शन (इसे षड्दर्शन में नहीं जोड़ा जाता है)
वेद विरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण इसका इतिहास और साहित्य उपलब्ध नहीं है। “बृहस्पति सूत्र” के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार केवल प्रत्यक्ष प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं।सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
अवैदिक दर्शनों का विकास
जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ। महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया। वेदों को नहीं मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को “नास्तिक दर्शन” कहते हैं।
इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप में है जो प्राकृत और पालि की भाषाओं में मिलता है। बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावस्था में सन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मों का उपदेश और प्रचार किया। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जाति भेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है। अहिंसा उपनिषदों में विद्यमान हैं। फिर भी अहिंसा की ध्वज को फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
जैन दर्शन (Jain philosophy)
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का “तत्वार्थाधिगम सूत्र” (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दूसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है।
बौद्ध दर्शन (Baudh philosophy)
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं जो सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। बौद्ध मत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके “अनात्मवाद” की स्थापना की गई है। आत्मा का न मानने पर भी बौद्ध धर्म करुणा से ओत प्रोत हैं। दुःख से द्रवित होकर बुद्ध ने सन्यास लिया और दुःख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दुःख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया। वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे।
भारतीय दर्शन तथा उनके प्रवर्तक (Indian philosophy and their originator)
प्रमुख दर्शन | प्रवर्तक |
चार्वाक (भौतिकवादी) | चार्वाक |
सांख्य | कपिल |
योग | पतंजलि (योग सूत्र) |
न्याय | गौतम (न्याय सूत्र) |
वैशेषिक | कणाद या उलूक |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी |
उत्तर मीमांसा | महर्षि व्यास (ब्रह्मसूत्र) |