जैन धर्म (Jain Dharm) विश्व के सबसे प्राचीन दर्शन या धर्म में से एक है। यह भारत की श्रमण परंपरा का प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन का अर्थ कर्मों का नाश करने वाले। सिंधु घाटी से जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है। ‘जिन’ के अनुयायी को ‘जैन’ कहते हैं। ‘जिन’ शब्द का अर्थ है, जीतने वाला। जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे। जैन धर्म के 24 तीर्थंकर हैं, जिनमें अंतिम और प्रमुख महावीर स्वामी हैं।
Jain Dharm का इतिहास
जैन धर्म का उदय वैदिक काल में हो गया था। जैनों के धर्म गुरुओं को तीर्थकर कहा जाता है। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर (जन्म-मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं।
जैन धर्म (Jain Dharm) के तीर्थकर
- ऋषभदेव – इन्हें ‘आदि नाथ’ भी कहा जाता है।
- अजित नाथ
- सम्भव नाथ
- अभिनंदन जी
- सुमतिनाथ जी
- पद्ममप्रभु जी
- सुपार्श्वनाथ जी
- चंदाप्रभु जी
- सुविधिनाथ – इन्हें ‘पुष्पदन्त’ भी कहा जाता है।
- शीतलनाथ जी
- श्रेयांसनाथ
- वासुपूज्य जी
- विमलनाथ जी
- अनंतनाथ जी
- धर्मनाथ जी
- शांतिनाथ
- कुंथुनाथ
- अरनाथ जी
- मल्लिनाथ जी
- मुनिसुव्रत जी
- नमिनाथ जी
- अरिष्टनेमि जी – इन्हें ‘नेमिनाथ’ भी कहा जाता है। जैन के अनुसार ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे।
- पार्श्वनाथ
- भगवान महावीर – इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर कहा जाता है।
ऋषभदेव
जैन धर्म(Jain Dharm) के संस्थापक और प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हैं। भगवान ऋषभदेव राजा नाभिराज के पुत्र थे। भगवान ऋषभदेव का विवाह यशावती और सुनंदा से हुआ। ऋषभदेव के 100 पुत्र और दो पुत्रियाँ थी। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। दूसरे पुत्र बाहुबली एक महान राजा एवं कामदेव पद से बिभूषित थे। इनके अलावा ऋषभदेव के वृषभसेन, अनंत विजय, अनंत वीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि 98 पुत्र तथा ब्राम्ही और सुंदरी नामक दो पुत्रियां हुई। जैन ग्रंथो के अनुसार लगभग 1000 वर्षो तक तप करने के पश्चात ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
पार्श्वनाथ
पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें(23वें) तीर्थंकर हैं। इनका जन्म ईसा के पूर्व 8वीं शताब्दी में हुआ। वाराणसी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष-कृष्ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्प-चिन्ह था। वामा देवी ने गर्भ काल में एक बार स्वप्न में एक सर्प देखा था, इसलिए पुत्र का नाम ‘पार्श्व’ रखा गया। उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। पार्श्वनाथ के अनुयायी को निर्ग्रन्थ कहा जाता था। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए।
भगवान महावीर
भगवान महावीर जैन धर्म के चौंबीसवें (24वें) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के यहाँ चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ था। उनके बचपन का नाम वर्धमान था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। 72 वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। भगवान महावीर के 11 शिष्य थे जिन्हे गणघट कहा जाता था जिसमे मुख्य इंद्रभूति थे।
दिगंबर परंपरा के अनुसार महावीर बाल ब्रह्मचारी थे। भगवान महावीर का ब्रह्मचर्य प्रिय विषय था। इनके माता-पिता शादी करवाना चाहते थे। दिगंबर परंपरा के अनुसार उन्होंने इसके लिए मना कर दिया था। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इनका विवाह यशोदा नामक सुकन्या के साथ सम्पन्न हुआ था और कालांतर में प्रियदर्शिनी नाम की कन्या उत्पन्न हुई जिसका युवा होने पर राजकुमार जमाली के साथ विवाह हुआ। भगवान महावीर का साधना काल 12 वर्ष का था। दीक्षा लेने के उपरान्त भगवान महावीर ने दिगंबर साधु की कठिन चर्चा को अंगीकार किया और निर्वस्त्र रहे। श्वेतांबर सम्प्रदाय जिसमें साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। महावीर दीक्षा उपरान्त कुछ समय छोड़कर निर्वस्त्र रहे और उन्होंने केवल ज्ञान की प्राप्ति दिगंबर अवस्था में की।
जैन धर्म(Jain Dharm) के सिद्धान्त
रागद्वेषी शत्रुओं पर विजय पाने के कारण ‘वर्धमान महावीर‘ की उपाधि ‘जिन’ थी। उनके द्वारा प्रचारित धर्म ‘जैन’ कहलाता है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इस धर्म में प्राणि वध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को हिंसा का एक अंग बताया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए।
जैन धर्म(Jain Dharm) का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म। महावीर ने कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है। जैन धर्म में ईश्वर को जगत् का कर्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है। जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं, श्वेतांबर(उजला वस्त्र पहनने वाला) और दिगंबर(नग्न रहने वाला)।
श्वेतांबर एवं दिगंबर में अंतर (Differences between Swetambara and Digambar)
श्वेतांबर | दिगंबर | |
1 | मोक्ष की प्राप्ति के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक नहीं | | मोक्ष के लिए वस्त्र त्याग आवश्यक |
2 | इसी जीवन में स्त्रियां निर्वाण के अधिकारी | स्त्रियों को निर्वाण संभव नहीं | |
3 | कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता | | केवली प्राप्ति के बाद भोजन की आवश्यकता नहीं |
4 | श्वेतांबर मतानुसार महावीर विवाहित थे | | दिगंबर मतानुसार महावीर अविवाहित है | |
5 | 19वीं तीर्थकर स्त्री थी | | 19वें तीर्थकर पुरुष थे | |
जैन धर्म(Jain Dharm) में छह द्रव्य माने गए हैं –
- जीव,
- पुद्गल,
- धर्म,
- अधर्म,
- आकाश
- काल
ये द्रव्य लोकाकाश में पाए जाते हैं, अलोकाकाश में केवल आकाश ही है।
जैन धर्म(Jain Dharm) में सात तत्व हैं।
- जीव
- अजीव
- आस्रव
- बंध
- संवर
- निर्जरा
- मोक्ष
इन तत्वों के श्रद्धान से सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है। जैन सिद्धांत में त्रिरत्न की पूर्णता प्राप्त कर लेने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये ‘त्रिरत्न’ हैं –
- 1.सम्यक श्रद्धा – सत्य में विश्वास
- 2.सम्यक ज्ञान – शंकाविहीन एवं वास्तविक ज्ञान
- 3.सम्यक आचरण – बाह्य जगत के प्रति उदासीनता
जैन धर्म(Jain Dharm) का तीसरा मुख्य सिद्धांत अनेकांतवाद है। इसे अहिंसा का ही व्यापक समझना चाहिए। रागद्वेष जन्य संस्कारों के वशीभूत न होकर दूसरे के दृष्टि बिंदु को सही से समझने का नाम अनेकांतवाद है। इससे मनुष्य सत्य के निकट पहुँच सकता है। आगे चलकर इसे स्याद्वाद(सप्तभंगी) नाम से कहा जाने लगा। ये निम्न हैं –
- 1.स्यात् अस्ति’
- 2.’स्यात् नास्ति’
- 3.स्यात् अस्ति नास्ति’
- 4.’स्यात् अवक्तव्य’
- 5.’स्यात् अस्ति अवक्तव्य’
- 6.’स्यात् नास्ति अवक्तव्य’
- 7.’स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य’
जैन धर्म(Jain Dharm) में नौ पदार्थ –
- आस्रव,
- बन्ध,
- संवर,
- निर्जरा,
- मोक्ष,
- पुण्य,
- पाप
- अजीव
- द्रव्य
पार्श्वनाथ के चार महाव्रत थे –
- अहिंसा – किसी भी जीव को मन, वचन, कार्य से पीड़ा नहीं पहुँचाना। किसी जीव के प्राणों का घात नहीं करना।
- सत्य – हित, मित, प्रिय वचन बोलना।
- अस्तेय (चोरी) – बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना।
- अपरिग्रह(गृह त्याग) – पदार्थों के प्रति ममत्वरूप परिणमन का बुद्धि पूर्वक त्याग।
भगवान महावीर ने पाँचवाँ महाव्रत ‘ब्रह्मचर्य’ (मन, वचन, कार्य, मैथुन कर्म का त्याग करना) के रूप में स्वीकारा। जैन सिद्धांतों की संख्या 45 है,जिनमें 11अंग हैं।
जैन के मत में 3 प्रमाण हैं –
- प्रत्यक्ष
- अनुमान
- आगम।
जैन धर्म(Jain Dharm) का चार कषाय
- क्रोध,
- मान,
- माया,
- लोभ
जैन धर्म(Jain Dharm) की चार गति
- देव गति,
- मनुष्य गति,
- तिर्यंच गति,
- नर्क गति।
- मोक्ष को पंचम गति भी कहा जाता है।
जैन धर्म(Jain Dharm) में चार निक्षेप
- नाम निक्षेप,
- स्थापना निक्षेप,
- द्रव्य निक्षेप,
- भाव निक्षेप
जैन संगीतियाँ
प्रथम संगीति
- कालक्रम–322–298 ई०पू०
- स्थल–पाटलिपुत्र
- अध्यक्ष–स्थूलभद्र
- शासक–चंद्रगुप्त मौर्य
- कार्य–प्रथम संगीति में 12 अंगों का प्रणयन किया गया।
द्वितीय संगीति
- कालक्रम–512 ई०,
- स्थल–वल्लभी (गुजरात में),
- अध्यक्ष देवर्धि क्षमाश्रमण,
- कार्य–द्वितीय जैन संगीति के दौरान जैन धर्मग्रंथों को अंतिम रूप से लिपिबद्ध एवं संकलित किया गया।
जैन तीर्थकर एवं उनके प्रतीक (Jain Tirthankars and their symbols)
प्रथम | ऋषभदेव | सांड |
द्वितीय | अजीत नाथ | हाथी |
इक्कीसवें | नेमिनाथ | शंख |
तेइसवें | पार्श्वनाथ | सांप |
चौबीसवें | महावीर | सिंह |
कैलाश पर्वत | ऋषभदेव का शरीर त्याग |
सम्मेद पर्वत | पार्श्वनाथ का शरीर त्याग |
वितुलांचल पर्वत | महावीर का प्रथम उपदेश |
माउंट आबू पर्वत | दिलवाड़ा जैन मंदिर |
शत्रुंजय पहाड़ी | अनेक जैन मंदिर |
जैन धर्म(Jain Dharm) का काल चक्र
जैन धर्म में काल दो प्रकार का है – उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। अवसर्पिणी काल में समयावधि, हर वस्तु का मान, आयु, बल इत्यादि घटता है जबकि उत्सर्पिणी में समयावधि, हर वस्तु का मान और आयु, बल इत्यादि बढ़ता है। इन दोनों का काल मान दस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम का होता है अर्थात एक समयचक्र बीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण का जन्म होता है। इन्हें त्रिसठ श्लाकापुरुष कहा जाता है।