जीवन में नैतिक आदर्श :- नीतिशास्त्र का एक और क्षेत्र ऐसे आदर्श जीवन से सम्बन्धित है जैसा कि मानव को बिताना चाहिए। मुख्य शुभ (Good) या जीवर के लक्ष्य के बारे में विभिन्न विचार हैं। ऐसा एक लक्ष्य सुख भोग (pleasure) है जो किसी विशेष अन्त प्रेरणा पैदा होने पर उसके पूरा हो जाने से माना जाता है। इसे सुखवाद (hedoism) के नाम से जाना जाता है। खुशी (सुख) को जीवन का एक और लक्ष् माना जाता है।
जीवन में नैतिक आदर्श (Ethical Ideals in Life)
मनुष्य के पूरे जीवन में खुशी की इच्छा की जाती है। इसमें संयमन में एवं क्षय (अपव्यय) से बचने में विभिन्न सुख भोगों का आनन्द लेना शामिल है। सुखभोग में परिवार व मित्रता के बन्धन, बौद्धिक रुचियाँ, सौन्दर्यपरक सुखभोग एवं आध्यात्मिक अनुसरण आते हैं। कुछ लेखक जैसे हॉब्स एवं नित्शे ने यह तर्क देते हुए कि लोग एक वैकल्पिक लक्ष्य के तौ पर शक्ति या आत्म-गौरव का अनुसरण कर सकते हैं, एक पूर्णतः भिन्न दृष्टिकोण (विचार) लिया है।
आदर्श मानव जीवन की एक लोकोत्तर अवधारणा है। यह मानता है कि मानव आवेगों को बुद्धिपरक प्रणाली के दायरे में लाने के लिए उनको नैतिक नियमों के अधीन होना चाहिए। यह विचार तर्क के या कर्तव्य के नियम पर बल देता है। जीवन के इस ढंग को अपनाने में लोग जिन अनुभूतियों का अनुभव करते हैं वे मात्र संतोषों की अनुभूतियों से बहुत भिन्न हैं। अपनी रुचि में संलग्नता से जिस प्रकार की संतुष्टि प्राप्त होती है वह कर्त्तव्य के पालन से बिल्कुल भिन्न है; एन्द्रिय (कामुक) आनन्द जो संतुष्टि देते हैं, वे उनसे भिन्न हैं जो काव्यात्मक या धार्मिक मनोभावों से प्राप्त होते हैं।
आलइल ऐसी उच्चतर अनुभूतियों को आनन्द की अपेक्षा धन्यता (blessedness) बताता है स्पिनोजा इन अर्थों में परमानन्द (beautitude) शब्द का प्रयोग करता है। स्पेिनोजा के अनुसार इस प्रकार का आनन्द ‘ईश्वर के बौद्धिक प्रेम में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धान्त की प्राप्ति के रूप में ब्रह्माण्ड की प्रशंसा में मिलता है। स्पिनोजा कहता है कि आनन्द (परमानन्द) सद्गुणों का पुरस्कार नहीं है, अपितु यह स्वयं ही सद्गुण है। अर्थात् सही दृष्टिकोण प्राप्त करने में अनिवार्य पहलू है। इन मामलों में प्रत्येक में एक बहुत भिन्न आत्मबोध प्राप्त होता है और इसलिए आत्मानुभूति भी अलग ही प्रकार की होती है।
नैतिकता और हमारे जीवन के मूल्य
इन अवधारणाओं में नैतिक आदर्श आत्म-बोध के किसी रूप में विद्यमान रहता है, अर्थात् चरित्र के विकास के किसी रूप में; और अन्त में इसे आनन्द के स्थान पर नैतिक पूर्णता के तौर पर देखा जाता है। नैतिक जीवन को विकास की प्रक्रिया के तौर पर माना जाता है। ग्रीन के अनुसार, मानव की प्रकृति में अनिवार्य तत्व बुद्धिपरक या आध्यात्मिक सिद्धान्त है। भूख अनुभूति व मानसिक धारणाओं (images) के साथ मनुष्य पशुओं के समान है। तथापि, ये सभी तथा मानव की प्रकृति में शेष सभी बातें उसके तर्क (बुद्धिपरकता) (reason) से संशोधित (परिवर्तित हो जाती हैं।
ऐसा इसलिए है कि मानव बुद्धिपरक, आत्म सचेतन और आध्यात्मिक है। यह मानव प्रकृति का अनिवार्य पहलु है नैतिक जीवन का महत्त्व इस सिद्धान्त को अधिक से अधिक सुस्पष्ट बनाने के लिए लगातार प्रयास करने में है जिससे हम अपनी बुद्धिपरक, आत्म-सचेतन एवं आध्यात्मिक प्रकृति को अधिक से अधिक सम्पूर्णता प्रदान कर सकें। ग्रीन का कहना है कि आदमी को ऐसी नैतिक स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिए जो सर्वाधिक पूर्णतः बुद्धिपरक हो।
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