भारत में संविधान सभा के गठन (Making of the Constitution) कैबिनेट मिशन योजना द्वारा सुझाए गए प्रस्तावों के तहत नवंबर 1946 में संविधान सभा का गठन हुआ।का विचार वर्ष 1934 में पहली बार एम.एन. रॉय ने रखा। रॉय भारत में वामपंथी आंदोलन के प्रखर नेता थे। 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार भारत के संविधान के निर्माण के लिए आधिकारिक रूप से संविधान सभा के गठन की मांग की। 1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की कि स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनी गई संविधान सभा द्वारा किया जाएगा और इसमें कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं होगा।
नेहरू की इस मांग को अंततः ब्रिटिश सरकार ने सैद्धांतिक रूप से स्वीकार कर लिया। इसे सन 1940 के ‘अगस्त प्रस्ताव’ के नाम से जाना जाता है। सन 1942 में ब्रिटिश सरकार के कैबिनेट मंत्री सर स्टैफोर्ड क्रिप्स तथा ब्रिटिश मंत्रिमंडल के एक सदस्य, एक स्वतंत्र संविधान के निर्माण के लिए ब्रिटिश सरकार के एक प्रारूप प्रस्ताव के साथ भारत आए। इस संविधान को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अपनाया जाना था। क्रिप्स प्रस्ताव को मुस्लिम लीग ने अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग की मांग थी कि भारत को दो स्वायत्त हिस्सों में बांट दिया जाए, जिनकी अपनी-अपनी संविधान सभाएं हों। अंततः, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में एक कैबिनेट मिशन’ को भेजा गया। इस मिशन ने दो संविधान सभाओं की मांग को ठुकरा दिया लेकिन उसने ऐसी संविधान सभा के निर्माण की योजना सामने रखी, जिसने मुस्लिम लीग को काफी हद तक संतुष्ट कर दिया।
संविधान सभा का गठन
कैबिनेट मिशन योजना द्वारा सुझाए गए प्रस्तावों के तहत नवंबर 1946 में संविधान सभा का गठन हुआ। योजना की विशेषताएं थीं:
- संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 389 होनी थी। इनमें से 296 सीटें ब्रिटिश भारत और 93 सीटें देसी रियासतों को आवंटित की जानी थीं। ब्रिटिश भारत को आवंटित की गई 296 सीटों में 292 सदस्यों का चयन गवर्नरों के प्रांतों और चार का चयन मुख्य आयुकतों के प्रांतों’ (प्रत्येक में से एक) से किया जाना था।
- हर प्रांत व देसी रियासतों (अथवा छोटे राज्यों के मामले में राज्यों के समूह) को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटें आवंटित की जानी थीं। मोटे तौर पर कहा जाए तो प्रत्येक दस लाख लोगों पर एक सीट आवंटित की जानी थी।
- प्रत्येक ब्रिटिश प्रांत को आवंटित की गई सीटों का निर्धारण तीन प्रमुख समुदायों के बीच उनकी जनसंख्या के अनुपात में किया जाना था। ये तीन समुदाय थे-मुस्लिम, सिख व सामान्य (मुस्लिम और सिख को छोड़कर)।
- प्रत्येक समुदाय के प्रतिनिधियों का चुनाव प्रांतीय असेंबली में उस समुदाय के सदस्यों द्वारा किया जाना था और एकल संक्रमणीय मत के माध्यम से समानुपातिक प्रतिनिधित्व तरीके से मतदान किया जाना था।
- देसी रियासतों के प्रतिनिधियों का चयन रियासतों के प्रमुखों द्वारा किया जाना था। अतः यह स्पष्ट था कि संविधान सभा आंशिक रूप से चुनी हुई और आंशिक रूप से नामांकित निकाय थी। इसके अलावा सदस्यों का चयन अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतीय व्यवस्थापिका के सदस्यों द्वारा किया जाना था, जिनका चुनाव एक सीमित मताधिकार के आधार पर किया पर गया था।
संविधान सभा के लिए चुनाव जुलाई-अगस्त 1946 में हुआ। (ब्रिटिश भारत के लिए आवंटित 296 सीटों हेतु) इस चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 208, मुस्लिम लीग को 73 तथा छोटे समूह व स्वतंत्र सदस्यों को 5 सीटें मिलीं। हालांकि देसी रियासतों को आवंटित की गईं 93 सीटें भर नहीं पाईं क्योंकि उन्होंने खुद को संविधान सभा से अलग रखने का निर्णय लिया।
यद्यपि संविधान सभा का चुनाव भारत के वयस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं हुआ तथापि इसमें प्रत्येक समुदाय हिंदू, मुस्लिम, सिख, पारसी, आग्ल भारतीय, भारतीय ईसाई, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधियों को जगह मिली। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं। महात्मा गांधी के अपवाद को छोड़ दें तो सभा में उस समय भारत की सभी बड़ी हस्तियां शामिल थीं।
संविधान सभा की कार्यप्रणाली
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई। मुस्लिम लीग ने बैठक का बहिष्कार किया और अलग पाकिस्तान की मांग पर बल दिया। इसलिए बैठक में केवल 21 सदस्यों ने हिस्सा लिया। फ्रांस की तरह इस सभा के सबसे वरिष्ठ सदस्य डॉक्टर सच्िदानंद सिन्हा को सभा का अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। बाद में डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के स्थाई अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उसी प्रकार, डॉ. एच.सी. मुखर्जी तथा वी.टी. कृष्णामचारी सभा के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। दूसरे शब्दों में संविधान सभा के दो उपाध्यक्ष थे।
उद्देश्य प्रस्ताव 13 दिसंबर, 946 को पंडित नेहरू ने सभा में ऐतिहासिक ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पेश किया। इसमें संवैधानिक संरचना के ढांचे एवं दर्शन की झलक थी। इसमें कहा गयाः
- यह संविधान सभा भारत को एक स्वतंत्र, संप्रभु गणराज्य घोषित करती है तथा अपने भविष्य के प्रशासन को चलाने के लिये एक संविधान के निर्माण की घोषणा करती है।
- ब्रिटिश भारत में शामिल सभी क्षेत्र, भारतीय राज्यों में शामिल सभी क्षेत्र तथा भारत से बाहर के इस प्रकार के सभी क्षेत्र तथा वे अन्य क्षेत्र, जो इसमें शामिल होना चाहेंगे, भारतीय संघ का हिस्सा होंगे।
- उक्त वर्णित सभी क्षेत्रों तथा उनकी सीमाओं का निर्धारण संविधान सभा द्वारा किया जायेगा तथा इसके लिये उपरांत के नियमों के अनुसार यदि वे चाहेंगे तो उनकी अवशिष्ट शक्तियां उनमें निहित रहेंगी तथा प्रशासन के संचालन के लिये भी वे सभी शक्तियां, केवल उनको छोड़कर, जो संघ में निहित होंगी, इन राज्यों को प्राप्त होंगी।
- संप्रभु स्वतंत्र भारत की सभी शक्तियां एवं प्राधिकार, इसके अभिन्न अंग तथा सरकार के अंग, सभी का स्रोत भारत की जनता होगी।
- भारत के सभी लोगों के लिये न्याय, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता एवं सुरक्षा, अवसर की समता, विधि के समक्ष समता, विचार एवं अभिव्यक्ति, विश्वास, भ्रमण, संगठन बनाने आदि की स्वतंत्रता तथा लोक नैतिकता की स्थापना सुनिश्चित की जायेगी।
- अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों तथा जनजातीय क्षेत्रों के लोगों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जायेगी।
- संघ की एकता को अक्षुण्ण बनाये रखा जायेगा तथा इसके भूक्षेत्र, समुद्र एवं वायु क्षेत्र को सभ्य देश के न्याय एवं विधि के अनुरूप सुरक्षा प्रदान की जायेगी। और
- इस प्राचीन भूमि को विश्व में उसका अधिकार एवं उचित स्थान दिलाया जायेगा तथा विश्व शांति एवं मानव कल्याण को बढ़ावा देने के निमित्त, उसके योगदान को सुनिश्चित किया जायेगा।
इस प्रस्ताव को 22 जनवरी, 1946 को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया। इसने संविधान के स्वरूप को काफी हद तक प्रभावित किया। इसके परिवर्तित रूप से संविधान की प्रस्तावना बनी।
स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा परिवर्तन
संविधान सभा से खुद को अलग रखने वाली देसी रियासतों के प्रतिनिधि धीरे-धीरे इसमें शामिल होने लगे। 28 अप्रैल, 1947 को छह राज्यों के प्रतिनिधि सभा के सदस्य बन चुके थे। 3 जून, 1947 को भारत के बंटवारे के लिए पेश की गयी मांउटबेटन योजना को स्वीकार करने के बाद अन्य देसी रियासतों के ज्यादातर प्रतिनिधियों ने सभा में अपनी सीटें ग्रहण कर लीं। भारतीय हिस्से की मुस्लिम लीग के सदस्य भी सभा में शामिल हो गए।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने सभा की स्थिति में निम्न तीन परिवर्तन किए:
1. सभा को पूरी तरह संप्रभु निकाय बनाया गया, जो स्वेच्छा से कोई भी संविधान बना सकती थी। इस अधिनियम ने सभा को ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के संबंध में बनाए गए किसी भी कानून को समाप्त करने अथवा बदलने का अधिकार दे दिया।
2. संविधान सभा एक विधायिका भी बन गई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभा को दो अलग-अलग काम सौंपे गए। इनमें से एक था-स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाना और दूसरा था, देश के लिए आम कानून लागू करना। इन दोनों कार्यों को अलग-अलग दिन करना था। इस प्रकार संविधान सभा स्वतंत्र भारत की पहली संसद बनी। जब भी सभा की बैठक संविधान सभा के रूप में होती, इसकी अध्यक्षता डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद करते और जब बैठक बतौर विधायिका होती तब इसकी अध्यक्षता जी.वी. मावलंकर करते थे।
संविधान सभा 26 नवंबर, 949 तक इन दोनों रूपों में कार्य करती रही। इस समय तक संविधान निर्माण का कार्य पूरा हो चुका था।
3. मुस्लिम लीग के सदस्य (पाकिस्तान में शामिल हो चुके क्षेत्रों से सम्बद्ध) भारतीय संविधान सभा से अलग हो गए। इसकी वजह से सन 1946 में माउंटबेटन योजना के तहत तय की गई सदस्यों की कुल संख्या 389 सीटों की बजाय 299 तक आ गिरी। भारतीय प्रांतों (औपचारिक रूप से ब्रिटिश प्रांत) की संख्या 296 से 229 और देसी रियासतों की संख्या 93 से 70 कर दी गई। 31 दिसंबर, 1947 को राज्यवार सदस्यता को तालिका संख्या 2.4 में प्रस्तुत किया गया है।
अन्य कार्य
संविधान के निर्माण और आम कानूनों को लागू करने के अलावा संविधान सभा ने निम्न कार्य भी किए:
- इसने मई 1949 में राष्ट्रमंडल में भारत की सदस्यता का सत्यापन किया।
- इसने 22 जुलाई, 1947 को राष्ट्रीय ध्वज को अपनाया।
- इसने 24 जनवरी, 1950 को राष्ट्रीय गान को अपनाया।
- इसने 24 जनवरी, 1950 को राष्ट्रीय गीत को अपनाया।
- इसने 24 जनवरी, 1950 को डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में चुना।
2 साल, 11 माह और 18 दिनों में संविधान सभा की कुल 11 बैठकें हुईं। संविधान निर्माताओं ने लगभग 60 देशों के संविधानों का अवलोकन किया और इसके प्रारूप पर 114 दिनों तक विचार हुआ। संविधान के निर्माण पर कुल 64 लाख रुपये का खर्च आया।
24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा की अंतिम बैठक हुई। इसके बाद सभा ने 26 जनवरी, 1950 से 1951-52 में हुए आम चुनावों के बाद बनने वाली नई संसद के निर्माण तक भारत की अंतरिम संसद के रूप में काम किया।
संविधान सभा की समितियां
संविधान सभा ने संविधान के निर्माण से संबंधित विभिन्न कार्यों को करने के लिए कई समितियों का गठन किया। इनमें से 8 बड़ी समितियां थी तथा अन्य छोटी। इन समितियों तथा इनके अध्यक्षों के नाम इस प्रकार हैं:
बड़ी समितिया
- संघ शक्ति समिति जवाहरलाल नेहरू
- संघीय संविधान समिति जवाहरलाल नेहरू
- प्रांतीय संविधान समिति सरदार पटेल
- प्रारूप समिति डॉ. बी.आर. अंबेडकर
- मौलिक अधिकारों, अल्पसंख्यकों एवं जनजातियों तथा बहिष्कृत क्षेत्रों के लिए सलाहकार समिति ( परामर्शदाता समिति)-सरदार पटेल। इस समिति के अंतर्गत निम्नलिखित पांच उप-समितियां थीं:
- क. मौलिक अधिकार उप समिति-जे.बी.कृपलानी
- ख. अल्पसंख्यक उप-समिति-एच.सी.मुखर्जी
- ग. उत्तर-पूर्व सीमांत जनजातीय क्षेत्र असम को छोड़कर तथा आंशिक रूप से छोड़े गए क्षेत्र के लिए उप-समिति-गोपीनाथ बोरदोलोई।
- घ. छोड़े गए एवं आंशिक रूप से छोड़े गए क्षेत्रों (असम में सिंचित क्षेत्रों के अलावा) के लिए उप-समिति ए.वी. ठक्कर।
- ड. उत्तर-पश्चिम फ्रटियर जनजाति क्षेत्र उप-समिति
- प्रक्रिया नियम समिति-डॉ.राजेंद्र प्रसाद
- राज्यों के लिये समिति (राज्यों से समझौता करने वाली) जवाहरलाल नेहरू
- संचालन समिति-डॉ. राजेंद्र प्रसाद
छोटी समितियां
- वित्त एवं कर्मचारी (स्टाफ) समिति – डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
- प्रत्यायक (क्रेडेन्सियल) समिति – अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर
- सदन समिति- बी. पट्टाभिसीतारमैय्या
- कार्य संचालन समिति – डॉ. के.एम. मुंशी
- राष्ट्र ध्वज सम्बन्धी तदर्थ समिति-डॉँ. राजेन्द्र प्रसाद
- संविधान सभा के कायों के लिए समिति – जी.वी. मावलंकर
- सर्वोच्च न्यायालय के लिए तदर्थ समिति – एस. वरदाचारी (जो कि सभा के सदस्य नहीं थे)
- मुख्य आयुक्तों के प्रांतों के लिए समिति – बी. पट्टाभिसीतारमैय्या
- संघीय संविधान के वित्तीय प्रावधानों सम्बन्धी समिति नलिनी रंजन सरकार (जो कि सभा के सदस्य नहीं थे)
- भाषाई प्रांत आयोग – एस.के. डार ( जो कि सभा के सदस्य नहीं थे) .
- प्रारूप संविधान की जांच के लिए विशेष समिति जवाहरलाल नेहरू
- प्रेस दीर्घा समिति – ऊषा नाथ सेन
- नागरिकता पर तदर्थ समिति – एस. वरदाचारी (जो कि सभा के सदस्य नहीं थे)
प्रारूप समिति
संविधान सभा की सभी समितियों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी-प्रारूप समिति। इसका गठन 29 अगस्त, 1947 को हुआ था। यह वह समिति थी, जिसे नए संविधान का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसमें सात सदस्य थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
- डॉक्टर बी.आर. अंबेडकर (अध्यक्ष)
- एन. गोपालस्वामी आयंगर
- अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर
- डॉक्टर के.एम. मुंशी
- सैय्यद मोहम्मद सादुल्ला
- एन. माधव राव (इन्होंने बी.एल. मित्र की जगह ली, जिन्होंने स्वास्थ्य कारणों से त्याग-पत्र दे दिया था)
- टी.टी. कृष्णामचारी (इन्होंने सन् 948 में डी.पी. खेतान की मृत्यु के बाद उनकी जगह ली)
विभिन्न समितियों के प्रस्तावों पर विचार करने के बाद प्रारूप समिति ने भारत के संविधान का पहला प्रारूप तैयार किया। इसे फरवरी 1948 में प्रकाशित किया गया। भारत के लोगों को इस प्रारूप पर चर्चा करने और संशोधनों का प्रस्ताव देने के लिए 8 माह का समय दिया गया। लोगों की शिकायतों, आलोचनाओं और सुझावों के परिप्रेक्ष्य में प्रारूप समिति ने दूसरा प्रारूप तैयार किया, जिसे अक्टूबर 1948 में प्रकाशित किया गया।
प्रारूप समिति ने अपना प्रारूप तैयार करने में छह माह से भी कम का समय लिया। इस दौरान उसकी कुल 141 बैठकें हुईं।
संविधान का प्रभाव में आना
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने सभा में 4 नवंबर, 1948 को संविधान का अंतिम प्रारूप पेश किया। इस बार संविधान पहली बार पढ़ा गया। सभा में इस पर पांच दिन (9 नवंबर, 1948 तक) आम चर्चा हुई।
संविधान पर दूसरी बार 15 नवंबर, 1948 से विचार होना शुरू हुआ। इसमें संविधान पर खंडवार विचार किया गया। यह कार्य 17 नवंबर, 1949 तक चला। इस अवधि में कम से कम 7653 संशोधन प्रस्ताव आये, जिनमें से वास्तव में 2473 पर ही सभा में चर्चा ही संविधान पर तीसरी बार 14 नवंबर, 1949 से विचार होना शम हुआ। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने ‘द कॉन्सटिट्यूशन एज सैटल्ड बाई द असेंबली बी पास्ड’ प्रस्ताव पेश किया। संविधान के प्रारूप पर पेश इस प्रस्ताव को 26 नवंबर, 1949 को पारित घोषित कर दिया गया और इस पर अध्यक्ष व सदस्यों के हस्ताक्षर लिए गए। सभा में कल 299 सदस्यों में से उस दिन केवल 284 सदस्य उपस्थित थे, जिन्होंने संविधान पर हस्ताक्षर किए।
संविधान की प्रस्तावना में 26 नवंबर, 1949 का उल्लेख उस दिन के रूप में किया गया है जिस दिन भारत के लोगों ने सभा में संविधान को अपनाया, लागू किया व स्वयं को संविधान सौंपा। 26 नवंबर, 1949 को अपनाए गए संविधान में प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं। प्रस्तावना को पूरे संविधान को लागू करने के बाद लागू किया गया। नए विधि मंत्री डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने सभा में संविधान के प्रारूप को रखा। उन्होंने सभा के कार्य-कलापों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्हें अपनी तर्कसंगत व प्रभावशाली दलीलों के लिए जाना जाता था। उन्हें भारत के संविधान के पिता’ के रूप में पहचाना जाता है। इस महान लेखक, संविधान विशेषज्ञ, अनुसूचित जातियों के निर्विवाद नेता और भारत के संविधान के प्रमुख शिल्पकार को आधुनिक मनु की संज्ञा भी दी जाती है।
संविधान का प्रवर्तन
26 नवंबर, 1949 को नागरिकता, चुनाव, तदर्थ संसद, अस्थायी व परिवर्तनशील नियम तथा छोटे शीर्षकों से जुड़े कुछ प्रावधान अनुच्छेद 5, 6, 7, 8, 9, 60, 324, 366, 367, 379, 380, 388, 39, 392, और 393 स्वत: ही लागू हो गए। संविधान के शेष प्रावधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए। इस दिन को संविधान की शुरुआत के दिन के रूप में देखा जाता है और इसे ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन को संविधान की शुरुआत के रूप में इसलिए चुना गया क्योंकि इसका अपना ऐतिहासिक महत्व है। इसी दिन 1930 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (दिसंबर 1929) में पारित हुए संकल्प के आधार पर पूर्ण स्वराज दिवस मनाया गया था।
संविधान की शुरुआत के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 और भारत शासन अधिनियम, 1935 को समाप्त कर दिया गया। हालांकि एबोलिशन ऑफ प्रिवी काउंसिल ज्यूरिडिक्शन एक्ट, 1949 लागू रहा।
कांग्रेस की विशेषज्ञ समिति
जबकि संविधान सभा के लिए चुनाव हो रहे थे, 8 जुलाई, 1946 को कांग्रेस पार्टी (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) ने संविधान सभा के मसौदे तैयार करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इसके निम्नलिखित सदस्य थे:
- जवाहरलाल नेहरू
- एम. आसफ अली
- के.एम. मुंशी
- एन. गोपालस्वामी अय्यंगर
- के.टी. सेठ
- डी.आर. गाडगिल
- हमायूं कबीर
- के. संधानम
बाद में सभापति के प्रस्ताव पर कृष्ण कृपलानी को समिति के सदस्य एवं संयोजक के रूप में सहयोजित या शामिल कर लिया गया।
समिति की दो बैठकें हुईं-पहली बैठक 20-22 जुलाई, 1946 को दिल्ली में, दूसरी 15-17 अगस्त को बम्बई में।
सदस्यों द्वारा अनेक टिप्पणियां तैयार करने के साथ-साथ समिति ने संविधान सभा में अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं, विभिन्न समितियों की संविधान सभा द्वारा नियुक्ति के प्रश्नों तथा संविधान सभा के पहले सत्र में संविधान के उद्देश्यों पर एक संकल्प-पत्र के प्रारूप पर भी चर्चा की गई।
संविधान निर्माण में इस समिति की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए एक ब्रिटिश संविधानविद् प्रैनविले ऑस्टिन ने लिखा- “यह कांग्रेस की विशेषज्ञ समिति थी जिसने वर्तमान संविधान की उपलब्धि तक भारत को पहुंचाया। समिति के सदस्यों ने कैबिनेट मिशन स्कीम की तर्ज पर काम करते हुए स्वायत्त क्षेत्रों, केन्द्र एवं प्रांतीय सरकारों की शक्तियों आदि पर एक सामान्य सुझाव निर्मित किए। उन्होंने एक संकल्प-पत्र भी प्रारूपित किया- उद्देश्य-संकल्प से बिल्कुल मिलता-जुलता।”
संविधान सभा की आलोचना
आलोचकों ने विभिन्न आधारों पर संविधान सभा की आलोचना की है। ये आधार हैं:
- यह प्रतिनिधि निकाय नहीं थी: आलोचकों ने दलीलें दी हैं कि संविधान सभा प्रतिनिधि सभा नहीं थी क्योंकि इसके सदस्यों का चुनाव भारत के लोगों द्वारा वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था।
- संप्रभुता का अभाव: आलोचकों का कहना है कि संविधान सभा एक संप्रभु निकाय नहीं थी क्योंकि इसका निर्माण ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावों के आधार पर हुआ। यह भी कहा जाता है कि संविधान सभा अपनी बैठकों से पहले ब्रिटिश सरकार से इजाज़त लेती थी।
- समय की बर्बादी: आलोचकों के अनुसार, संविधान सभा ने इसके निर्माण में जरूरत से कहीं ज्यादा समय ले लिया। उन्होंने कहा कि अमेरिका के संविधान निर्माताओं ने मात्र 4 माह में अपना काम पूरा कर लिया था। निराजुद्दीन अहमद, संविधान सभा के सदस्य, ने इसके लिए अपनी अवमानना दर्शने के लिए प्रारूप समिति हेतु एक नया नाम गढ़ा। उन्होंने इसे ‘अपवहन समिति’ कहा।
- कांग्रेस का प्रभुत्व: आलोचकों का आरोप है कि संविधान सभा में कांग्रेसियों का प्रभुत्व था। ब्रिटेन के संविधान विशेषज्ञ ग्रेनविले ऑस्टिन ने टिप्पणी की, “संविधान सभा एक-दलीय देश का एक-दलीय निकाय है। सभा ही कांग्रेस है और कांग्रेस ही भारत है।”
- वकीलों और राजनीत्िज्ञों का प्रभुत्वः यह भी कहा जाता है कि संविधान सभा में वकीलों और नेताओं का बोलबाला था। उन्होंने कहा कि समाज के अन्य वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला। उनके अनुसार, संविधान के आकार और उसकी जटिल भाषा के पीछे भी यही मुख्य कारण था।
- हिंदुओं का प्रभुत्वः कुछ आलोचकों के अनुसार, संविधान सभा में हिंदुओं का वर्चस्व था। लॉर्ड विसकाउंट ने इसे ‘हिंदुओं का निकाय’ कहा। इसी प्रकार विंस्टन चर्चिल ने टिप्पणी की कि, संविधान सभा ने भारत के केवल एक बड़े समुदाय’ का प्रतिनिधित्व किया।
आवश्यक तथ्य
- संविधान सभा द्वारा हाथी को प्रतीक (मुहर) के रूप में अपनाया गया था।
- सर बी.एन. राऊ को संविधान सभा के लिए संवैधानिक सलाहकार (कानूनी सलाहकार) के रूप में नियुक्त किया गया था।
- एच.वी.आर. अय्यंगर को संविधान सभा का सचिव नियुक्त किया गया था।
- एल.एन. मुखर्जी को संविधान सभा का मुख्य प्रारूपकार (चीफ ड्राफ्टमैन) नियुक्त किया गया था।
- प्रेम बिहारी नारायण रायजादा भारतीय संविधान के प्रमुख सुलेखक (Calligapher) थे। मूल संविधान एक प्रवाहमय (इटैलिक) शैली में उनके द्वारा हस्तलिखित किया गया था।
- मूल संस्करण का सौन्दर्गीकरण और सजावट शांति निकेतन के कलाकारों ने किया जिनमें नंदलाल बोस और बिउहर राममनोहर सिन्हा शामिल थे।
- मूल प्रस्तावना को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा द्वारा हस्तलिखित एवं बिउहर राममनोहर सिन्हा द्वारा ज्यामितीय, सौंदर्गीकृत एवं अलंकृत किया गया था।
- मूल संविधान के हिन्दी संस्करण का सुलेखन वसंत कृष्ण वैद्य द्वारा किया गया जिसे नंदलाल बोस ने सुन्दर ढंग से अलंकृत एवं ज्यामितीय किया गया।
संविधान का हिन्दी पाठ
मूल संविधान में हिंदी भाषा में प्राधिकृत पाठ के संबंध में कोई प्रावधान नहीं किया गया था। बाद में, 58वें संविधान संशोधन अधिनियम, 9878″ द्वारा इस संबंध में प्रावधान किया गया। इस संशोधन के द्वारा संविधान के भाग हझ्ञा में एक नया अनुच्छेद 394-क जोड़ा गया। इस अनुच्छेद में निम्न प्रावधान किये गये हैं:
1. इस प्राधिकार के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा करवाये गये अनुवाद का प्रकाशन इस प्रकार होगा:
- संविधान का हिंदी में अनुवाद, यदि इसमें किसी प्रकार के संशोधन की आवश्यकता होगी तो केंद्रीय अधिनियम द्वारा हिंदी के लिये स्वीकार किये गये भाषायी रूप एवं शब्दावली को ही अपनाया जायेगा।
- संविधान के सभी संशोधन प्रकाशन से पहले सम्मिलित किये जायेंगे। (0) संविधान के प्रत्येक संशोधन का, जो अंग्रेजी में है, हिंदी अनुवाद किया जायेगा।
2. इस हिंदी पाठ का वही अर्थ लगाया जायेगा, जो अंग्रेजी के मूल पाठ में विहित है। यदि अर्थ लगाने में कोई असुविधा उत्पन्न होगी तो राष्ट्रपति इसका उपयुक्त परीक्षण करायेंगे।
संविधान के प्रत्येक संशोधन का, जो अंग्रेजी में है, हिंदी अनुवाद किया जायेगा तथा इसे हिंदी भाषा का प्राधिकृत पाठ समझा जायेगा।