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संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है? अनुच्छेद 32

Times Darpan
Last updated: 2022-10-16 19:23
By Times Darpan 518 Views
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13 Min Read
संवैधानिक उपचार का अधिकार

मूल अधिकारों की संवैधानिक घोषणा तब तक अर्थहीन, तर्कहीन एवं शक्तिविहीन है, जब तक कि कोई प्रभावी मशीनरी उसे लागू करने के लिए न हो। इस तरह अनुच्छेद 32 संवैधानिक उपचार का अधिकार प्रदान करता है।

Contents
संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है?रिट-प्रकार एवं क्षेत्रबंदी प्रत्यक्षीकरणपरमादेशप्रतिषेधउत्प्रेषणअधिकार पृच्छाRead more Topic:-Read more chapter:-

संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है?

दूसरे शब्दों में, मूल अधिकारों के संरक्षण का अधिकार स्वयं में ही मूल अधिकार है। यही व्यवस्था, मूल अधिकारों को वास्तविक बनाती है। इसीलिए डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद बताया, “एक अनुच्छेद जिसके बिना संविधान अर्थविहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है।”

उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि अनुच्छेद 32 में संविधान की मूल विशेषताएं हैं। इस तरह इसे संविधान संशोधन के तहत बदला नहीं जा सकता। इसमें निम्नलिखित चार प्रावधान हैं:

  1. मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत है।
  2. उच्चतम न्यायालय को किसी भी मूल अधिकार के संबंध में निर्देश या आदेश जारी करने का अधिकार होगा।
  3. संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी अन्य न्यायालय सभी प्रकार के निर्देश, आदेश और रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करे । यद्यपि यह उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों के विरुद्ध किसी पूर्वाग्रह से रहित होना चाहिए। यहां कोई अन्य न्यायालय उच्च न्यायालय सहित शामिल नहीं है। अनुच्छेद 226 पहले ही निर्धारित करता है कि ये शक्तियां उच्च न्यायालय में निहित हैं।
  4. उच्चतम न्यायालय में जाने के अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाएं निलंबित नहीं किया जाएगा। इस तरह राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 359) के तहत इनको स्थगित कर सकता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला है। इसे इस प्रयोजन हेतु मूल और विस्तृत शक्तियां प्राप्त हैं।

अधिकारों के हनन पर कोई व्यक्ति बिना अपीली प्रक्रिया के उच्चतम न्यायालय में जा सकता है। विस्तृत इसलिए क्योंकि इसकी शक्तियां केवल आदेश या निदेश देने तक सीमित नहीं है, यह सभी प्रकार की रिटें जारी कर सकता है।

अनुच्छेद 32 का उद्देश्य मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु गारंटी, प्रभावी, सुलभ और संक्षेप उपचारों की व्यवस्था है। संविधान द्वारा अनुच्छेद 32 के अंतर्गत केवल मूल अधिकारों की ही गारंटी दी गई है, अन्य अधिकारों की नहीं, जेसे-गैर-मूल संवैधानिक अधिकार, असंवैधानिक अधिकार, लौकिक अधिकार आदि।

अनुच्छेद 32 के अनुसार, मूल अधिकारों का हनन इसके प्रयोग की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 32 के तहत उच्चतम न्यायालय, मूल अधिकारों संबंधित मामलों पर प्रश्न नहीं उठा सकता। अनुच्छेद 32 केवल इसलिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता कि केवल कार्यपालिका आदेश या विधायिका की संवैधानिकता का निर्धारण किया जा सके। इसे किसी मूल अधिकार के सीधे हनन में ही प्रयुक्त किया जा सकता है।

मूल अधिकारों के क्रियान्वयन के बारे में उच्चतम न्यायालय का न्यायिक क्षेत्र मूल तो है पर अनन्य नहीं। उसका जुड़ाव अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के न्यायिक क्षेत्र से है। इस तरह उच्च न्यायालय की मूल शक्तियों में निर्देश जारी करना, आदेश एवं रिट जारी करना मूल अधिकारों का क्रियान्वयन आदि आता है। इस अर्थ है कि जब किसी नागरिक के मूल अधिकारों का हनन होता । तो सबंधित पक्ष के पास या तो उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में सीधे जाने का विकल्प होता है।

अनुच्छेद 32 द्वारा प्रदत्त अधिकार स्वयं ही मूल अधिकार (मूल अधिकारों का हनन होने पर उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार)। इस तरह अनुच्छेद 32 के तहत वैकल्पिक उपचार आदि पर कोई रोक नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि जब अनच्छेट 226 के तहत संबंधित दल के पास उच्च न्यायालय के माध्यम से राहत का विकल्प मौजूद है, तो उसे पहले उच्च न्यायालय ही जाना चाहिए।

रिट-प्रकार एवं क्षेत्र

उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं-

  • बंदी प्रत्यक्षीकरण
  • परमादेश,
  • प्रतिषेध
  • उत्प्रेषण एवं
  • अधिकार पृच्छा।

संसद (अनुच्छेद 32 के तहत) किसी अन्य न्यायालय को भी इन रिटों को जारी करने का अधिकार दे सकती है, चूंकि अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। केवल उच्चतम एवं उच्च न्यायालय ही रिट जारी कर सकते हैं कोई अन्य न्यायालय नहीं।

1950 से पहले केवल कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास उच्च न्यायालयों को ही रिट जारी करने का अधिकार प्राप्त था। अनुच्छेद 226 अब सभी उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान करता है।

ये रिट, अंग्रेजी कानून से लिए गए हैं, जहां इन्हें ‘विशेषाधिकार रिट‘ कहा जाता था। इन्हें राजा द्वारा जारी किया जाता है, जिन्हें अब भी ‘न्याय का झरना‘ कहा जाता है। आगे चलकर उच्च न्यायालय ने रिट जारी करना प्रारंभ कर दिया। ये रिटें ब्रिटिश लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए असाधारण उपचार थीं।

उच्चतम न्यायालय का रिट संबंधी न्यायिक क्षेत्र उच्च न्यायालय से तीन प्रकार से भिन्न हैं:

  1. उच्चतम न्यायालय केवल मूल अधिकारों के क्रियान्वयन को लेकर रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय इनके अलावा किसी और उद्देश्य को लेकर भी इसे जारी कर सकते हैं। ‘किसी अन्य उद्देश्य’ शब्द का अभिप्राय किसी सामान्य कानूनी अधिकार के संबंध में भी है। इस तरह उच्चतम न्यायालय के रिट संबंधी न्यायिक अधिकार, उच्च न्यायालय से कम विस्तृत हैं।
  2. उच्चतम न्यायालय किसी एक व्यक्ति या सरकार के विरुद्ध रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय सिर्फ संबंधित राज्य के व्यक्ति या अपने क्षेत्र के राज्य को या यदि मामला दूसरे राज्य से संबंधित हो तो वहां के खिलाफ ही जारी कर सकता है। इस तरह रिट जारी करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय का क्षेत्रीय न्यायक्षेत्र”, ज्यादा विस्तृत है।
  3. अनुच्छेद 32 के अंतर्गत, उपचार अपने आप में मूल अधिकार हैं। इसलिए उच्चतम न्यायालय अपने रिट न्यायक्षेत्र को नकार नहीं सकता। दूसरी ओर, अनुच्छेद 226 के तहत उपचार विवेकानुसार है इसलिए उच्च न्यायालय अपने रिट संबंधी न्याय क्षेत्र के क्रियान्वयन को नकार सकता है। अनुच्छेद 32 उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों के संबंध में उच्च न्यायालय को प्राप्त अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति प्रदान नहीं करता है। इस तरह उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारों का रक्षक एवं गारंटी देने वाला बनाया गया है।

अब हम अनुच्छेद 32 एवं 226 में उल्लिखित विभिन्न प्रकार के रिटों के अभिप्राय एवं क्षेत्र को झेंगे:

बंदी प्रत्यक्षीकरण

इसे लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘शरीर को प्रस्तुत किया जाए‘। यह उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश है, जिसे दूसरे द्वारा हिरासत में रखा गया है, उसे न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया जाए । तब न्यायालय मामले की जांच करता है, यदि हिरासत में लिए गए व्यक्ति का मामला अवैध है तो उसे स्वतंत्र किया जा सकता है। इस तरह यह किसी व्यक्ति को जबरन हिरासत में रखने के विरुद्ध है।

बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट सार्वजनिक प्राधिकरण हो या व्यक्तिगत दोनों के खिलाफ जारी किया जा सकता है । यह रिट तब जारी नहीं किया जा सकता है जब यदि

  • हिरासत कानून सम्मत है,
  • कार्यवाही किसी विधानमंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो,
  • न्यायालय के द्वारा हिरासत एवं
  • हिरासत न्यायालय के न्यायक्षेत्र से बाहर हुई हो।

परमादेश

इसका शाब्दिक अर्थ है-‘हम आदेश देते हैं। यह एक नियंत्रण है, जिसे न्यायालय द्वारा सार्वजनिक अधिकारियों को जारी किया जाता है ताकि उनसे उनके कार्यों और उसे नकारने के संबंध में पूछा जा सके। इसे किसी भी सार्वजनिक इकाई, निगम, अधीनस्थ न्यायालयों, प्राधिकरणों या सरकार के खिलाफ समान उद्देश्य के लिए जारी किया जा सकता है।

परमादेश रिट जारी नहीं किया जा सकता-

  • निजी व्यक्तियों या इकाई के विरुद्ध,
  • ऐसे विभाग जो गैर-संवैधानिक हैं,
  • जब कर्तव्य विवेकानुसार हो, जरूरी नहीं,
  • संविदात्मक दायित्व को लागू करने के विरुद्ध ,
  • भारत के राष्ट्रपति या राज्यों के राज्यपालों के विरुद्ध और
  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जो न्यायिक क्षमता में कार्यरत हैं।

प्रतिषेध

इसका शाब्दिक अर्थ है ‘रोकना’। इसे किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को अपने न्यायक्षेत्र से उच्च न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है। जिस तरह परमादेश सीधे सक्रिय रहता है, प्रतिषेध सीधे सक्रिय नहीं रहता। प्रतिषेध संबंधी रिट सिर्फ न्यायिक एवं अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध ही जारी किए जा सकते हैं। यह प्रशासनिक प्राधिकरणों, विधायी निकायों एवं निजी व्यक्ति या निकायों के लिए उपलब्ध नहीं है।

उत्प्रेषण

इसका शाब्दिक अर्थ है-‘प्रमाणित होना’ या सूचना देना‘। इसे एक उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को या लंबित मामलों के स्थानांतरण को सीधे या पत्र जारी कर किया जाता है। इसे अतिरिक्त न्यायिक क्षेत्र या न्यायिक क्षेत्र की कमी या कानून में खराबी के आधार पर जारी किया जा सकता है।

इस तरह प्रतिषेध से हटकर जो कि केवल निवारक है;

  • उत्प्रेषण निवारक एवं
  • सहायक दोनों तरह का है।

जैसा कि पहले उत्प्रेषण की रिट सिर्फ न्यायिक या अर्द्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के खिलाफ ही जारी किया जा सकता था, प्रशासनिक इकाइयों के खिलाफ नहीं। हालांकि 1991 में उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि उत्प्रेषण व्यक्तियों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है।

प्रतिषेध की तरह उत्प्रेषण भी विधिक निकायों एवं निजी व्यक्तियों या इकाइयों के विरुद्ध उपलब्ध नहीं है।

अधिकार पृच्छा

शाब्दिक संदर्भ में इसका अर्थ किसी ‘प्राधिकृत या वारंट के द्वारा‘ है। इसे न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक कार्यालय में दायर अपने दावे की जांच के लिए जारी किया जाता है। अत: यह किसी व्यक्ति द्वारा लोक कार्यालय के अवैध अनाधिकार ग्रहण करने को रोकता है।

रिट को पूरक सार्वजनिक कार्यालयों के मामले में तब जारी किया जा सकता है जब उसका निर्माण संवैधानिक हो। इसे मंत्रित्व कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता।

अन्य चार रिटों से हटकर इसे किसी भी इच्छुक व्यक्ति द्वारा जारी किया जा सकता है न कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा

Read more Topic:-

  • मूल अधिकार क्या है? परिभाषा, विशेषताएं, अपवाद, आलोचना व महत्व
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Read more chapter:-

  • Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • Chapter-2: संविधान का निर्माण
  • Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
  • Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
  • Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
  • Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
  • Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
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