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समता का अधिकार क्या है? अनुच्छेद 14-18 Explained

Times Darpan
Last updated: 2022-10-16 19:13
By Times Darpan 683 Views
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26 Min Read
समता का अधिकार

भारतीय सविंधान के भाग – 3 में अनुच्छेद 14-18 तक में समता का अधिकार ( समानता का अधिकार) का वर्णन है।

Contents
समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण – अनुच्छेद 14विधि का शासनसमता का अधिकार के अपवादकुछ आधारों पर विभेद का प्रतिषेध – अनुच्छेद 15शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षणक्रीमीलेयरआर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक संस्थानों में आरक्षणलोक नियोजन के विषय – अनुच्छेद 16मंडल आयोग और उसके परिणामअस्पृश्यता का अंत – अनुच्छेद 17उपाधियों का अंत – अनुच्छेद 18Read more Topic –Read more lesson –

समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)

विधि के समक्ष समता और विधियों का समान संरक्षण – अनुच्छेद 14

अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह नागरिक हो या विदेशी सब पर यह अधिकार लागू होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात्‌ सांविधानिक निगम, कपंनियां, पंजीकृत समितियां या किसी भी अन्य तरह का विधिक व्यक्ति सम्मिलित हैं। विधि के समक्ष समता’ का विचार ब्रिटिश मूल का है, जबकि “विधियों के समान संरक्षण’ को अमेरिका के संविधान से लिया गया है।

पहले संदर्भ (विधि के समक्ष समता) में शामिल हैं –

  • किसी व्यक्ति के पक्ष में विशिष्ट विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति।
  • साधारण विधि या साधारण विधि न्यायालय के तहत सभी व्यक्तियों के लिए समान व्यवहार
  • कोई व्यक्ति (अमीर-गरीब, ऊंचा-नीचा अधिकारी-गैर अधिकारी) विधि के ऊपर नहीं है।

दूसरे संदर्भ (विधियों के समान संरक्षण) में निहित हैं –

  • विधियों द्वारा प्रदत्त विशेषाधिकारों और अध्यारोपित दायित्वों दोनों में समान परिस्थितियों के अंतर्गत व्यवहार समता
  • समान विधि के अंतर्गत सभी व्यक्तियों के लिए समान नियम हैं, और
  • बिना भेदभाव के समान के साथ समान व्यवहार होना चाहिए।

इस तरह पहला नकारात्मक संदर्भ है, जबकि दूसरा सकारात्मक । हालांकि दोनों का उद्देश्य विधि, अवसर और न्याय की समानता है।

उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि जहां समान एवं असमान के बीच अलग अलग व्यवहार होता हो, अनुच्छेद 14 लागू नहीं होता। यद्यपि अनुच्छेद 14 श्रेणी विधान को अस्वीकृत करता है। यह विधि द्वारा व्यक्तियों, वस्तुओं और लेन-देनों के तर्कसंगत वर्गीकरण को स्वीकृत करता है। लेकिन वर्गीकरण विवेक शून्य, बनावटी नहीं होना चाहिए। बल्कि विवेकपूर्ण, सशक्त और पृथक होना चाहिए।

विधि का शासन

ब्रिटिश न्‍्यायवादी ए.वी. डायसी का मानना है कि ‘विधि के समक्ष समता’ का विचार विधि का शासन’ के सिद्धांत का मूल तत्व है। इस संबंध में उन्होंने निम्न तीन अवधारणायें प्रस्तुत की हैं:

  1. इच्छाधीन शक्तियों की अनुपस्थिति अर्थात्‌ किसी भी व्यक्ति को विधि के उल्लंघन के सिवाए दण्डित नहीं किया जा सकता।
  2. विधि के समक्ष समता अत्यावश्यक है। कोई व्यक्ति (अमीर-गरीब, ऊंचा- नीचा, अधिकारी-गैर-अधिकारी) कानून के ऊपर नहीं है।’ वैयक्तिक अधिकारों की प्रमुखता अर्थात्‌ संविधान
  3. वैयक्तिक अधिकारों का परिणाम है, जैसा कि न्यायालयों द्वारा इसे परिभाषित और लागू किया जाता है, न कि संविधान वैयक्तिक अधिकारों का स्रोत है।

पहले एवं टूसरे कारक ही भारतीय व्यवस्था में लागू हो सकते हैं, तीसरा नहीं। भारतीय व्यवस्था में संविधान ही भारत में व्यक्तिगत अधिकारों का स्रोत है।

सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि अनुच्छेद 14 के अंतर्गत उल्लिखित विधि का शासन ही संविधान का मूलभूत तत्व है। इसलिये इसी किसी भी तरह, यहां तक कि संशोधन के द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।

समता का अधिकार के अपवाद

विधि के समक्ष समता का नियम, पूर्ण नहीं है तथा इसके लिये कई संवैधानिक निषेध एवं अन्य अपवाद हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:

1. भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को निम्न शक्तियां प्राप्त हैं (अनुच्छेद 361 के अंतर्गत)

  • राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यकाल में किये गये किसी कार्य या लिये गये किसी निर्णय के प्रति देश के किसी भी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगे।
  • राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दांडिक कार्यवाही प्रारंभ या चालू नहीं रखी जाएगी।
  • राष्ट्रपति या राज्यपाल की पदावधि के दौरान उसकी गिरफ्तारी या कारावास के लिए किसी न्यायालय से कोई प्रक्रिया प्रारंभ नहीं की जा सकती।
  • राष्ट्रपति या राज्यपाल पर उनके कार्यकाल के दौरान व्यक्तिगत सामर्थ्य से किये गये किसी कार्य के लिये किसी भी न्यायालय में दीवानी का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।

हां यदि इस प्रकार का कोई मुकदमा चलाया जाता है तो उन्हें इसकी सूचना देने के दो माह बाद ही ऐसा किया जा सकता है।

2. कोई भी व्यक्ति यदि संसद के या राज्य विधान सभा के दोनों सदनों या दोनों सदनों में से किसी एक की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय-वस्तु का प्रकाशन समाचार-पत्र में (या रेडियो या टेलिविजन में) करता है तो उस पर किसी भी प्रकार का दीवानी या फौजदारी का मुकदमा, देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकेगा (अनुच्छेद 361-क)।

3. संसद में या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी (अनुच्छेद 105)।

4. राज्य के विधानमण्डल में या उसकी किसी समिति में विधानमण्डल के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी (अनुच्छेद 194)।

5. अनुच्छेद 31-ग, अनुच्छेद-14 का अपवाद है। इसके अनुसार, किसी राज्य विधानमंडल द्वारा नीति निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन के संबंध में यदि कोई नियम बनाया जाता है, जिसमें अनुच्छेद 39 की उपधारा (ख) या उपधारा (ग) का समावेश है तो उसे आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करते हैं। इस बरे में सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि ‘जहां अनुच्छेद 31-ग आता है, वहां से अनुच्छेद-14 चला जाता है’।

6. विदेशी संप्रभु (शासक), राजदूत एवं कूटनीतिक व्यक्ति, दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों से मुक्त होंगे।

7. संयुक्त राष्ट्र संघ एवं इसकी एजेन्सियों को भी कूटनीतिक मुक्ति प्राप्त है।

कुछ आधारों पर विभेद का प्रतिषेध – अनुच्छेद 15

अनुच्छेद 15 में यह व्यवस्था दी गई है कि राज्य किसी नागरिक के प्रति केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान को लेकर विभेद नहीं करेगा। इसमें दो कठोर शब्दों की व्यवस्था है-‘

  • विभेद’ और
  • ‘केवल’ ‘

विभेद’ का अभिप्राय किसी के विरुद्ध विपरीत मामला या अन्य के प्रति उसके पक्ष में न रहना।

केवल’ शब्द का अभिप्राय है कि अन्य आधारों पर मतभेद किया जा सकता है।

अनुच्छेद 15 की दूसरी व्यवस्था में कहा गया है कि कोई नागरिक केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधर पर-

  • दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश; या
  • पूर्णतः: या भागत: राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, दायित्वों, निर्बधन या शर्त के अधीन नहीं होगा।

यह प्रावधान राज्य एवं व्यक्ति दोनों के विरुद्ध विभेद का प्रतिषेध करता है, जबकि पहले प्रावधान में केवल राज्य के विरुद्ध ही प्रतिषेध का वर्णन था।

विभेद से प्रतिषेध के इस सामान्य नियम के निम्न तीन अपवाद हैं:

  1. राज्य को इस बात की अनुमति होती है कि वह बच्चों या महिलाओं के लिए विशेष व्यवस्था करे, उदाहरण के लिए स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था एवं बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था शामिल है।
  2. राज्य को इसकी अनुमति होती है कि वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं जनजाति के विकास के लिए कोई विशेष उपबंध करे। उदाहरण के लिये, विधानमंडल में सीटों का आरक्षण या सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थाओं में शुल्क से छूट शामिल हैं।
  3. राज्य को यह अधिकार है कि वह सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े लोगों या अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों के उत्थान के लिये शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिये छूट संबधी कोई नियम बना सकता है।

ये शैक्षणिक संस्थान राज्य से अनुदान प्राप्त, निजी या अल्पसंख्यक किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। सरकार को कमजोर वर्ग के नागरिकों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार है। पुनः सरकार ऐसे कार्यों के लिए शिक्षण संस्थानों- चाहे वे सरकारी हों, निजी हों, सहायता प्राप्त हों या न हों, में नामांकन हेतु 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर सकती है, अपवाद अल्पसंख्यक संस्थान हैं। यह 10 प्रतिशत का आरक्षण पहले से जारी आरक्षण के अतिरिक्त है। इस उद्देश्य के लिए सरकार ऐसे कमजोर वर्गों की पहचान समय-समय पर अधिसूचित करती रहेगी और इसका आधार परिवार की आय तथा आर्थिक प्रतिकूलताओं के अन्य संकेतक होंगे।

शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए आरक्षण

उपरोक्त वाद को संविधान के 93वें संशोधन) 2005 द्वारा शामिल किया गया है। इस प्रावधान के क्रियान्वयन के लिये केंद्र सरकार ने केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित किया है, जिसके अंतर्गत पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिये सभी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 27 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गयी हैं।) इनमें आईआईटी एवं आईआईएम जैसे संस्थान भी शामिल हैं। अप्रेल 2008 में, उच्चतम न्यायालय ने दोनों अधिनियमों की वैधता पर मुहर लगा दी है, लेकिन न्यायालय ने केंद्र सरकार को यह आदेश दिया है कि वह इसमें ‘क्रीमीलेयर के सिद्धांत‘ का पालन करे।)

क्रीमीलेयर

पिछड़े वर्ग के विभिन्न तबकों के छात्र क्रीमीलेयर श्रेणी में आते हैं, जिन्हें इस आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। ये तबके हैं:

  • संवैधानिक पद धारण करने वाले व्यक्ति, जैसे कि राष्ट्रपति उप-राष्ट्रपति, उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक आदि।
  • वर्ग ए या ग्रुप ए तथा ग्रुप बी की सेवा के क्लास ॥ अधिकारी, जो कि केंद्रीय या राज्य सेवाओं में हैं। इसके अलावा सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, बैंकों, बीमा कंपनियों, विश्वविद्यालयों आदि में पदस्थ समकक्ष अधिकारी आदि। यह नियम निजी कंपनियों में कार्यरत अधिकारियों पर भी लागू होता
  • सेना में कर्नल या उससे ऊपर के रैंक का अधिकारी या नौसेना, वायु सेना एवं अर्द्ध सैनिक बलों में समान रैंक का अधिकारी।
  • डॉक्टर अधिवक्ता, इंजीनियर, कलाकार, लेखक, सलाहकार आदि प्रकार के पेशेवर।
  • व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग में लगे व्यक्ति।
  • शहरी क्षेत्रों में जिन लोगों के पास भवन हैं तथा जिनके पास एक निश्चित सीमा से अधिक की कृषि भूमि या रिक्त भूमि रखने वाले।

जिन लोगों की सालाना आय 4.5 लाख से अधिक है या जिनके पास एक छूट सीमा से अधिक की संपत्ति है। 1993 में यह 1 लाख थी। बाद में 2004 में इसे बढ़ाकर 2.5 लाख तथा 2008 में 4.5 लाख एवं 2013 में 6 लाख रुपये किया गया।

आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण

उपरोक्त अपवाद (डी) को 103वें संशोधन अधिनियम 2019 द्वारा जोड़ा गया था। इस प्रावधान को प्रभावकारी बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2019 में शिक्षण संस्थाओं में नामांकन के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण सम्बन्धी आदेश जारी किया। इस आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के उन व्यक्तियों को मिलेगा जो अनुसचित जाति, जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए पहले से जारी आरक्षण की व्यवस्था से आवरित नहीं हैं। इसके लिए निम्नलिखित अर्हता निर्धारित की गयी है:

1. जिन व्यक्तियों की पारिवारिक वार्षिक आय 6 लाख रुपये से कम है, वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के रूप में चिन्हित किए जाएंगे और आरक्षण का लाभ उठाएंगे। आय के अंतर्गत सभी स्रोतों से आय सम्मिलित की जाएगी- वेतन, खेती, व्यवसाय, व्यापार आदि और आवेदन करने के वर्ष के पूर्ववर्ती वित्तीय वर्ष की आय को ही आधार बनाया जाएगा।

2. वैसे व्यक्तियों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से बाहर रखा जाएगा, जिनके परिवार निम्नलिखित में से किसी एक प्रकार की परिसम्पत्ति का स्वामित्व रखते हों:

  • 5 एकड़ या उससे अधिक कृषि भूमि 1
  • 1000 वर्ग फीट या उससे अधिक बड़ा आवासीय फ्लैट
  • अधिसूचित नगरपालिकाओं के अंतर्गत 100 गज या अधिक बड़ा आवासीय प्लॉट
  • अधिसूचित क्षेत्रों के बाहर 200 गज या अधिक बड़ा आवासी भूखंड ।

3. ‘आर्थिक रूप से कमजोर’ कोटि/दर्जा का निर्धारण करते समय परिवार द्वारा विभिन्न नगरों/स्थानों पर धारित सम्पत्ति को एक साथ जोड़कर किया जाएगा।

4. इस उद्देश्य के लिए परिवार के अंतर्गत लाभार्थी के माता पिता तथा 18 वर्ष से कम आयु के भाई-बहन, उसका/की पति/ पत्नी तथा 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे शामिल माने जाएंगे।

लोक नियोजन के विषय – अनुच्छेद 16

लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता अनुच्छेद 16 में राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी। किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता या केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग, जन्म का स्थान या निवास के स्थान के आधार पर राज्य के किसी भी रोजगार एवं कार्यालय के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।

लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता के साधारण नियम में चार अपवाद हैं:

  1. संसद किसी विशेष रोजगार के लिए निवास की शर्त आरोपित कर सकती है। जैसा कि सार्वजनिक रोजगार (जिसमें निवास की जरूरत हो) अधिनियम, 1957 कुछ वर्ष बाद 1974 में समाप्त हो गया। इस समय आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना के अतिरिक्त किसी अन्य राज्य में यह व्यवस्था नहीं है।
  2. राज्य नियुक्तियों के आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है या किसी पद को पिछड़े वर्ग के पक्ष में बना सकता है जिनका कि राज्य में समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
  3. विधि के तहत किसी संस्था या इसके कार्यकारी परिषद के सदस्य या किसी की धार्मिक आधार पर व्यवस्था की जा सकती है।
  4. सरकार अधिकृत है कि वह आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हित में नियुक्तियों अथवा पदों पर उनके लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर सकती है। यह 10 प्रतिशत आरक्षण पहले से जारी आरक्षण के अतिरिक्त होगा। इस उद्देश्य के लिए सरकार पारिवारिक आय तथा आर्थिक प्रतिकूलताओं के अन्य संकेतकों के आधार पर समय-समय पर ऐसे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को अधिसूचित करती रहेगी।

मंडल आयोग और उसके परिणाम

वर्ष 1979 में मोरारजी देसाई सरकार ने द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ का गठन संसद सदस्य बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में किया। अनुच्छेद 340 के तहत संविधान पिछड़े वर्गों के लोगों की शैक्षणिक एवं सामाजिक स्थिति की जांच करते हुए उनकी उन्नति के लिए सुझाव प्रस्तुत करने की व्यवस्था करता है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1989 में प्रस्तुत की और 3743 जातियों की पहचान की, जो सामाजिक एवं शैक्षणिक आधार पर पिछड़ी थीं।

जनसंख्या में उनका हिस्सा करीब 52 प्रतिशत था, जिसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति शामिल नहीं है। आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। इस तरह संपूर्ण आरक्षण (अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्गों का) 50 प्रतिशत हो गया। दस वर्ष पश्चात्‌ 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने सरकारी सेवाओं में अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी।

दोबारा 1991 में नरसिंहराव सरकार ने दो परिवर्तन प्रस्तुत किए-

  1. 27 प्रतिशत में पिछड़े वर्ग के गरीब लोगों को प्रमुंखता जैसे आर्थिक आधार पर आरक्षण और
  2. 10 प्रतिशत का अतिरिक्त आरक्षण गरीबों के लिए (आर्थिक रूप के पिछड़े) विशेष रूप से उच्च जातियों में आर्थिक रूप से कमजोरों के लिए भी व्यवस्था की।

प्रसिद्ध मंडल केस (1992) में, अनुच्छेद 16 (4) के विस्तार एवं व्यवस्था पिछड़े वर्गों के पक्ष में जिस रोजगार आरक्षण की व्यवस्था की गई है उसका परीक्षण उच्चतम न्यायालय द्वारा किया गया। यद्यपि न्यायालय ने उच्च जातियों के खास वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया, फिर भी अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कुछ शर्तों के साथ 27 प्रतिशत आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बनाए रखा।

  • अन्य पिछड़े वर्गों के क्रीमीलेयर से संबंधित लोगों को आरक्षण की सुविधा से बाहर रखा जाना चाहिए।
  • प्रोन्नति में कोई आरक्षण नहीं, आरक्षण की व्यवस्था केवल शुरुआती नियुक्ति के समय होनी चाहिए। प्रोन्नति के लिए कोई खास आरक्षण केवल पांच वर्षों तक लागू रह सकता है (997 तक)।
  • केवल कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर। कुल आरक्षित कोटा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होना चाहिए। यह नियम प्रत्येक वर्ष लागू होना चाहिए।
  • आगे ले जाने का नियम (कैरी फॉरर्वड नियम) रिक्त पदों (बैकलॉग) के लिए वैध रहेगा। लेकिन इसमें भी 50 प्रतिशत के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।
  • अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में अति जोड़ या न्यून जोड़ के परीक्षण के लिए एक स्थायी गैर-विधायी इकाई होनी चाहिए।

उच्चतम न्यायालय की उपरोक्त व्यवस्था के बाद सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाए: द्वारा जोड़ा गया। इस प्रावधान को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार ने 2019 में भारत सरकार के असैन्य पदों (Civil Posts) तथा अन्य सेवाओं में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण सम्बन्धी आदेश जारी किया।

इस आरक्षण का लाभ उन्हीं व्यक्तियों को मिलेगा जो पहले से जारी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था से आवरित नहीं हैं। इस विषय में आवश्यक अर्हता का उल्लेख अनुच्छेद 15 में किया जा चुका है। पुन: निम्नलिखित शर्तों पर पूरे उतरने वाले वैज्ञानिक एवं तकनीकी पदों को उक्त आरक्षण से मुक्त रखा जा सकता है:

  • ग्रुप ‘ए’ निम्न ग्रेड (lowergrade) के ऊपर के ग्रेड के पद हों।
  • वे मंत्रिमंडल सचिवालय के आदेश के अनुरूप वैज्ञानिक अथवा तकनीकी के रूप में वर्गीकृत हों,
  • पद शोध कार्य के लिए हों, अथवा शोध कार्य के संगठन, मार्गदर्शन अथवा निदेशन के लिए हों।

अस्पृश्यता का अंत – अनुच्छेद 17

अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करने की व्यवस्था और किसी भी रूप में इसका आचरण निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि अनुसार दंडनीय होगा।

1976 में, अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 में मूलभूत संशोधन किया गया और इसको नया नाम ‘नागरिक अधिकारों की रक्षा अधिनियम, 1955’ दिया गया तथा इसमें विस्तार कर दंडिक उपबंध और सख्त बनाए गए। अधिनियम में अस्पृश्यता के प्रत्येक प्रकार को समाप्त करते हुए अनुच्छेद 17 में व्यवस्था सुनिश्चित की गई।

‘अस्पृश्यता’ शब्द को न तो संविधान में और न ही अधिनियम में परिभाषित किया गया। हालांकि मैसूर उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 17 के मामले में व्यवस्था दी कि शाब्दिक एवं व्याकरणीय समझ से परे इसका प्रयोग ऐतिहासिक है। इसका संदर्भ है कि कुछ वर्गों के कुछ लोगों को उनके जन्म एवं कुछ जातियों के आधार सामाजिक निर्योग्यता। अत: यह कुछ व्यक्तियों के सामाजिक, बहिष्कार और धर्म संबंधी सेवाओं इत्यादि से इनका बहिष्कार नहीं है।

उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 17 के तहत यह व्यवस्था दी कि यह अधिकार निजी व्यक्ति और राज्य का संवैधानिक दायित्व होगा कि इस अधिकार के हनन को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए।

उपाधियों का अंत – अनुच्छेद 18

अनुच्छेद 18 उपाधियों का अंत करता है और इस संबंध में चार प्रावधान करता हैः

  • यह निषेध करता है कि राज्य सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाए और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
  • यह निषेध करता है कि भारत का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।
  • कोई विदेशी, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
  • राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

उपरोक्त प्रावधानों में यह स्पष्ट किया गया कि औपनिवेशिक शासन के समय दिए जाने वाले वंशानुगत पद, जैसे-महाराजा, राज बहादुर, राय बहादुर, राज साहब, दीवान बहादुर आदि को अनुच्छेद 18 के तहत प्रतिबंधित किया गया क्‍योंकि ये सब राज्य के समक्ष समानता के अधिकार के विरुद्ध थे।

1996 में उच्चतम न्यायालय ने जिन उपलब्धियों की संवैधानिक वैधता को उचित ठहराया था, उनमें पद्म विभूषण, पद्म भूषण एवं पद्म श्री हैं। न्यायालय ने कहा कि ये पुरस्कार उपाधि नहीं हैं तथा अनुच्छेद 18 में वर्णित प्रावधानों का इनसे उल्लंघन नहीं होता है। इस तरह ये समानता के सिद्धांत के प्रतिकूल नहीं हैं।

हालांकि यह भी व्यवस्था की गई कि पुरस्कार पाने वालों के नाम के प्रत्यय या उपसर्ग के रूप में इनका इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, अन्यथा उन्हें पुरस्कारों को त्यागना होगा।

इन राष्ट्रीय पुरस्कारों की संस्थापना 1954 में हुई। 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी ने उनका क्रम तोड़ दिया लेकिन 1980 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा उन्हें पुनः प्रारंभ कर दिया गया।

Read more Topic –

  • मूल अधिकार क्या है? परिभाषा, विशेषताएं, अपवाद, आलोचना व महत्व
  • स्वतंत्रता का अधिकार क्या है? अनुच्छेद 19 – 22
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार का क्या महत्व है? अनुच्छेद 23 – 24
  • धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार का क्या अर्थ है? (अनुच्छेद 25- 28)
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार से क्या तात्पर्य है। (अनुच्छेद 29- 30)
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार क्या है? अनुच्छेद 32
  • सशस्त्र बल एवं मूल अधिकार में क्या सम्बन्ध है? अनुच्छेद 33
  • मार्शल लॉ क्या है? मार्शल लॉ और राष्ट्रीय आपातकाल में अंतर (अनुच्छेद  34)
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  • संसद को मूल अधिकारों को प्रभावी बनाने के लिए कानून बनाने की शक्ति (अनुच्छेद  35)

Read more lesson –

  • Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • Chapter-2: संविधान का निर्माण
  • Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
  • Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
  • Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
  • Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
  • Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
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