स्वामी विवेकानन्द का जन्म कोलकाता के एक सम्पन्न परिवार में 1863 में हुआ। वे बहुत अधिक बुद्धिमान थे तथा सहजात (innate) आध्यात्मिक शक्तियों से युक्त थे। कोलकाता विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए उन्होंने पश्चिमी दर्शन और इतिहास का गहन अध्ययन कर उसमें प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। वे लड़कपन से ही ध्यान योग किया करते थे और कुछ समय तक ब्रह्मो आन्दोलन से जुड़े रहे।
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय
अपनी युवावस्था के आरम्भ में ईश्वर के अस्तित्व के बारे में मन में संदेहों के साथ उन्होंने आध्यात्मिक संकट का अनुभव किया। अपने अंग्रेजी के प्रोफैसरों में से एक से श्री रामकृष्ण के बारे में सुनकर वे उनसे मिले जो उस समय दक्षिणेश्वर में काली मंदिर में रहते थे। उन्होंने गुरु (मास्टर) से सीधे ही पूछा-‘श्रीमन, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं?’ विवेकानन्द ने यह प्रश्न अन्य अनेकों से किया था पर उन्हें कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। किन्तु श्री रामकृष्ण ने एक क्षण भी संकोच किए बिना उत्तर दिया “हाँ, मैंने देखा है। मैंने ईश्वर को उसी प्रकार साफ-साफ देखा है जैसे कि मैं आपको देख रहा हूँ, केवल उसे और अधिक गहन अनुभूति के साथ।” इस प्रकार आधुनिक काल का गुरु-शिष्य का महान सम्बन्ध शुरू हुआ। विवेकानन्द ने श्री रामकृष्ण के मार्ग दर्शन में तेजी से आध्यात्मिक प्रगति की।
कुछ समय बाद स्वामी विवेकानन्द को दो दुर्भाग्यों को सहन करना पड़ा। सन् 1884 में उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया। विवेकानन्द को अपनी माता, भाइयों व बहनों के पालन-पोषण का भार वहन करना पड़ा। दूसरी दुःखद घटना श्री रामकृष्ण की बीमारी और मृत्यु थी। विवेकानन्द ने इन आपदाओं का मजबूती से मुक्काबला किया। उन्होंने रामकृष्ण के अन्य शिष्यों के मिलकर मठकरणीय प्रात संघ (ब्रदरहुड) की स्थापना की और अपने गुरु के उपदेशों को फैलाने का मिशन स्थापित किया। इस प्रकार 1890 के मध्य में विवेकानन्द भारत को देखने और खोजने की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े।
वास्तविक भारत की खोज (Discovery of Real India)
अपनी भारत यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द लोगों की भयानक गरीबी एवं पिछड़ेपन से अत्यन्त द्रवित हुए। वे भारत के पहले धार्मिक नेता थे जिन्होंने समझा और खुले तौर पर कहा कि भारत के पतन का वास्तविक कारण जनता (लोगों) की उपेक्षा करना था। अतः तत्काल आवश्यकता इस बात की थी कि कृषि के परिष्कृत ढंग का ज्ञान देकर ग्राम्य उद्योग का विकास कर तथा अन्य इसी प्रकार की गतिविधियों को बढ़ाकर भोजन व जीवन को न्यूनतम जरूरतों को पूरा किया जाए।
विवेकानन्द ने समस्याओं को दो स्तरों पर देखा सदियों की दासता (दलन) के कारण दलित लोगों ने आत्मविश्वास का दिया था। इसे एक जीवनदायी और प्रेरक संदेश के माध्यम से पुनः स्थापित करना था। विवेकानन्द ने इसे ‘आत्मन्’ के सिद्धान में पाया जो भारत के धार्मिक दर्शन की प्राचीन प्रणाली वेदान्त में पढ़ाया जाने वाला आत्मा का संभावित दैवत्त्व का सिद्धान्त है।
- लोगों को वेदान्त के जीवनदायी और परिष्कार करने वाले सिद्धान्तों की तथा व्यावहारिक जीवन में उन्हें लागू करने की शिक्षा देनी होगी।
- इसके अतिरिक्त, उन्हें अपनी आर्थिक दशा सुधारने के लिए दुनिया की जानकारी भी आवश्यक होगी विवेकानन्द का विचार था कि शिक्षा ही उन्हें दोनों प्रकार का ज्ञान देने का साधन है।
विवेकानन्द ने शिक्षा का प्रसार करने एवं गरीबों व स्त्रियों की दशा सुधारने की जरूरत को भी देखा। वे चाहते थे निर्धनतम और निम्नतम के दरवाजे तक सर्वोत्तम विचारों को लाया जाय। उन्होंने इसी लक्ष्य को सामने रखकर रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी।
स्वामी विवेकानन्द का देशवासियों को उद्बोधन (Awakening his countryman)
अपने प्रवास के दौरान विवेकानन्द को जानकारी मिली कि 1893 में शिकागों में विश्व धर्म संसद (World’s Parliametit of Religions) की बैठक होने वाली है। अपने मित्रों एवं प्रशंसकों के प्रोत्साहित करने पर उन्होंने अपने गुरु का संदेश को देने के लिए इस संसद में भाग लेने का निश्चय किया। विश्व धर्म संसद में उनके भाषणों ने उन्हें ‘दैवी धार्मिक वक्ता‘ (Orator by divine right) तथा पश्चिमी जगत को भारतीय ज्ञान कर दूत’ (Messanger of Indian wisdom to the Western World) के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। संसद के बाद उन्होंने लगभग साढ़े तीन साल का समय अमरीका के पूर्वी भागों एवं लंदन में श्री रामकृष्ण द्वारा यापित (अनुभूत) तथा प्रचारित वेदान्त का प्रचार करने में व्यतीत किया।
वे जनवरी 1897 में भारत लौट आए। उन्होंने भारत के विभिन्न भागों में अनेक भाषण दिए। भाषणों में उन्होंने निम्नलिखित प्रयास किए-
- लोगों की धार्मिक चेतना जगाने तथा अपनी सांस्कृतिक परम्परा पर गर्व का भाव पैदा करना;
- हिन्दुत्व के सामान्य आधारों को उभारकर हिन्दू जाति में एकता लाना;
- शिक्षित लोगों का ध्यान दलितों के कष्टों की ओर केन्द्रित करना तथा
- व्यावहारिक वेदान्त के सिद्धान्तों को लागू कर उनकी उन्नति के लिए अपनी योजना का प्रतिपादन करना।
कोलकाता लौट आने के तुरन्त बाद स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना (1897) की मिशन का उद्देश्य संन्यासियों व आम आदमियों को व्यावहारिक वेदान्त का संयुक्त रूप से प्रचार करने, अनेक प्रकार की समाज सेवाएँ करने जैसे अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, होस्टल, ग्रामीण विकास केन्द्र आदि को चलाने योग्य बनाना तथा एकल प्राकृतिक आपदाओं के शिकारों को राहत तथा पुनर्वास देना था।
सन् 1898 के आरम्भ में स्वामी विवेकानन्द ने बेलूर में गंगा के तट पर रामकृष्ण मठ की स्थापना की।
स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक विचार (His Spiritual Thoughts)
धर्म का नया अर्थ
स्वामी विवेकानन्द ने धर्म को लोकातीत वास्तविकता (सत्ता) (Reality) और सभी के लिए समान बताया है। उन्होंने विज्ञान व धर्म के बीच किसी द्विभाजकता से इंकार किया तथा धर्म को चेतना का विज्ञान बताया है। यह सार्वभौमिक अवधारणा अंध विश्वासों, मतान्धतावाद, पुजारी कौशल (चालाकी) एवं असहनशीलता के चंगुल से धर्म को मुक्त करती है तथा इसे स्वतन्त्रता, ज्ञान व आनन्द का सर्वोच्च व श्रेष्ठतम लक्ष्य बना देती है।
मानव के प्रति नया दृष्टिकोण
विवेकानन्द की आत्मा का संभावित दैवत्व’ की अवधारणा नई है तथा मानव को उदात्त बनाती है। मानवतावाद के वर्तमान समय में वैज्ञानिक प्रगति ने मानवीय भौतिक कल्याण में बहुत सुधार ला दिया है। सम्प्रेषण क्रांति ने विश्व को वैश्विक गाँव’ बना दिया है। लेकिन नैतिकता में गिरावट आई है जैसाकि घरों के टूटने, अनैतिकता हिंसा और अपराधों के बढ़ने से सिद्ध होता है। विवेकानन्द की आत्मा के संभावित दैवत्व की अवधारणा गिरावट को रोकती है, मानव सम्बन्धों में देवत्व भावना लाती है और जीवन को सार्थक और जीने लायक बनाती है। उन्होंने आध्यात्मिक मानवतावाद’ की नींव डाली है।
नैतिक और आचार शास्त्रीय नियम सिद्धान्त
व्यक्तिगत जीवन तथा सामाजिक जीवन, दोनों में वर्तमान नैतिकता अधिकतर भय पर टिकी है पुलिस का डर, जनता के द्वारा अपमान का डर, भगवान द्वारा सजा दिए जाने का डर तथा कर्मों का डर नीति शास्त्र के वर्तमान सिद्धान्त यह बताते हैं कि व्यक्ति को नैतिक क्यों होना चाहिए और क्यों उसे दूसरों के लिए अच्छा होना चाहिए। विवेकानन्द ने नैतिक-शास्त्र के नए सिद्धान्त दिए हैं और आचार-शास्त्र के नए सिद्धान्त भी निर्धारित किए हैं जो ‘आत्मन’ की अन्तर्भूत शुचिता व एकात्मता (अखण्डता) पर आधारित हैं। हमें शुचिता वाला होना चाहिए क्योंकि शुचिता हमारी वास्तविक प्रकृति है, हमारा सच्चा दैविक आत्मा या आत्मन् है। इसी प्रकार, हमें अपने पड़ोसियों से प्यार करना और उनकी सेवा करनी चाहिए क्योंकि हम सभी सर्वोच्च आत्मा-परमात्मा या ब्रह्म में एक ही हैं।
पूर्व तथा पश्चिम के बीच सेतु विवेकानंद के
स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के बीच सेतु स्थापित किया ऐसा उन्होंने पश्चिमीवासियों के लिए हिन्दू धर्म ग्रन्थों, दर्शन, संस्थाओं (सम्प्रदाय मत आदि) तथा भारतीय जीवन शैली के बारे में सरल बोधगम्य भाषा में जानकारी दी। उन्होंने उन्हें अहसास करा दिया कि वे भारतीय आध्यात्मिकता से बहुत लाभान्वित हो सकते हैं। भारत के शेष विश्व से अलग-थलग रहने को समाप्त करने में उनकी बड़ी भूमिका रही। वे पश्चिम के लिए भारत के प्रथम महान सांस्कृतिक राजदूत थे।
दूसरी ओर प्राचीन भारतीय धर्म ग्रन्थों, दर्शन तथा संस्थाओं को विवेकानन्द द्वारा की गई व्याख्या ने भारतीयों को पश्चिमी विज्ञान, प्रौद्योगिकी और मानवतावाद के प्रति ग्रहणशील बनाया। उन्होंने भारतीयों को सिखाया कि किस प्रकार वे अपनी धार्मिक व आध्यात्मिक जड़ों से जुड़े रहते हुए पश्चिम के विज्ञान और प्रौद्योगिकों में महारत हासिल कर सकते हैं। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीयों को पश्चिमी मानवतावाद (विशेष रूप से व्यक्ति की स्वतन्त्रता, सामाजिक समानता तथा स्त्रियों के लिए न्याय व सम्मान) को भारतीय लोकाचार में जोड़ लेना चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द के भारत को योगदान
अपनो अनेक भाषिक, विचार-शास्त्रीय, ऐतिहासिक एवं धार्मिक विविधताओं के बावजूद भारत में अनन्त काल से सांस्कृतिक एकता की गहरी भावना रही है। तथापि, ये विवेकानन्द ही थे जिन्होंने इस संस्कृति के वास्तविक आधारों को उजागर किया एवं इस प्रकार एक राष्ट्र की एकता के बोध को स्पष्ट किया और मजबूत किया।
उन्होंने भारतीयों को उनकी महान राष्ट्रीय परम्परा की याद दिलाई तथा अपने शानदार विगत पर उनके गौरव को पुनर्जीवित किया। और भी. उन्होंने पश्चिमी संस्कृति की कमजोरियाँ भी बताई और बताया कि किस प्रकार उन्हें दूर करने में भारत उनको मदद कर सकता है।
एकता की भावना (बोध). विगत पर गर्व और मिशन की भावना ने जिनकी उदघोषणा विवेकानन्द ने की, भारत के राष्ट्रीयता के आन्दोलन को अत्यधिक सुदृढ़ किया।
जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है: “विगत में जिसकी जड़ें थीं, भारत की प्रतिष्ठा पर जिसको पूरा गर्व था. ऐसा विवेकानन्द जीवन की समस्याओं के प्रति अपनी सोच में आधुनिक था तथा भारत के विगत एवं वर्तमान के बीच एक प्रकार का सेतु था। वह अवनत (दलित) तथा हतोत्साहित हिन्दू सोच के लिए एक टॉनिक के समान आया और इसे आत्म-निर्भरता दी और बिगत का कुछ आधार दिया।”
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा है “स्वामी जी ने पूर्व तथा पश्चिम, धर्म तथा विज्ञान, विगत व वर्तमान को सुसंगत किया। इसीलिए वे महान हैं। उनकी शिक्षाओं से हमारे देशवासियों ने अभूतपूर्व आत्म-सम्मान आत्म निर्भरता और आत्माभिमान की भावना प्राप्त की है।”
नए भारत के निर्माण में स्वामी जी का सर्वाधिक अप्रतिम योगदान दलितों के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति भारतीयों की अपनी सोच जगाने का है। कार्ल मार्क्स के विचारों के भारत में आने से काफी पहले ही स्वामी जी ने राष्ट्रीय सम्पत्ति के उत्पादन में श्रमिक वर्ग की भूमिका के बारे में कहा था।
स्वामी विवेकानन्द के हिन्दूवाद में योगदान (Contributions to Hinduism )
पहचान (Identity)
स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दूवाद को एक सम्पूर्ण स्पष्ट पहचान दी, एक विशिष्ट रूप-रेखा दी। यद्यपि हिन्दुओं को अपने मूल (जहाँ) और पहचान का स्पष्ट बोध था, किन्तु हिन्दूवाद अनेक विभिन्न मतों का असंगठित संघठन माना जाता था। हिन्दूवाद को इसको विशिष्ट पहचान देने में स्वामी जी की भूमिका के बारे में सिस्टर निवेदिता लिखती है यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो यह ‘हिन्दुओं के धार्मिक विचार’ थे, किन्तु जब उन्होंने समाप्त किया तो ‘हिन्दुवाद की स्थापना हो गई।
एकीकरण
स्वामी जी के उदय से पहले हिन्दुओं के विभिन्न मतों के बीच झगड़े (विवाद) और प्रतिस्पर्द्धा आम बात थी। इसी प्रकार दर्शन की विभिन्न प्रणालियों और वादों के नेता (समर्थक) केवल अपने विचारों को हो सत्यता व वैधता का दावा करते थे। श्री रामकृष्ण की सहिष्णुता (समन्वय) के सिद्धान्त को प्रयोग कर स्वामी जी, विभिन्नता में एकता के सिद्धान्त के आधार पर हिन्दूवाद का समग्र एकीकरण कर सके।
रक्षा (Defence)
विवेकानन्द उन लोगों में अग्रणी थे जिन्होंने हिन्दूवाद के पक्ष में अपनी आवाज उठाई। वास्तव में यह उनकी पश्चिम में मुख्य उपलब्धि थी। ईसाइयत मिशनरी प्रचार से हिन्दूवाद व भारतीयों की एक झूठी छवि पश्चिमी लोगों में फैला दी गई थी। विवेकानन्द को हिन्दूवाद की रक्षा के अपने प्रयासों में कठोर विरोध का सामना करना पड़ा।
एकेश्वरवाद का नया आदर्श (New Ideal of Monasticism)
हिन्दूवाद में विवेकानन्द का बड़ा योगदान एकेश्वरवाद का नवीकरण एवं आधुनिकीकरण है। इस नए एकेश्वर आदर्श में रामकृष्ण की व्यवस्था के अनुसार मानते हुए, आत्म-त्याग तथा ईश-प्राप्ति के प्राचीन सिद्धान्तों को मानव में ईश्वर की सेवा (शिव ज्ञान जीव सेवा) के साथ मिला दिया गया है। विवेकानन्द मानव की सेवा को ईश्वर की सेवा के बराबर मानते थे।
हिन्दू दर्शन की आधुनिक व्यवस्था तथा धार्मिक सिद्धान्त
विवेकानन्द ने प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों और दार्शनिक विचारों की व्याख्या आधुनिक सोच के साथ की। उन्होंने अपने लोकातील अनुभवों एवं भविष्य दृष्टि के आधार पर अनेक प्रबोधक मूल (नवीन) अवधारणाएँ भी जोड़ी।
विवेकानंद महानतम हिन्दू संतों में से एक हैं। उन्होंने हिंदुवादी वैदान्तिक आदर्शों को पश्चिमी व मानवतावादी विचारों में मिलाया। उन्होंने हिन्दुओं द्वारा विभिन्न मत-मतान्तरों एवं सिद्धान्तों को मानने के विरूद्ध भी कार्य किया। उन्होंने भारतीयों को उनके गरिमामयी अतीत से अवगत कराया। उन्होंने पश्चिम में वेदान्त दर्शन को लोकप्रिय बनाया।
इन सबके अतिरिक्त, उन्होंने लोगों का आहवान किया कि वे निर्धनता व अज्ञान में डूबे जनसमूहों की सहायता करें।
स्वामी विवेकानन्द की कुछ प्रसिद्ध उक्तियाँ (Some Famous Sayings of Vivekananda)
- जब तक करोड़ों लोग भूखे और अज्ञानी रहेंगे, मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को विश्वासघाती (देशद्रोही) मानूँगा जो उनकी कीमत पर शिक्षित हुआ है; और उनको और बिल्कुल भी ध्यान नहीं देता।
- आप अपने को जैसा सोचेंगे, आप वैसे ही बन जाएँगे। यदि आप स्वयं को कमजोर मानते हैं तो आप कमजोर हो होंगे; यदि आप स्वयं को मजबूत सोचते हैं तो आप मजबूत हो जाएँगे।
- यदि आपको अपने सभी तैतीस करोड़ पौराणिक देवी-देवताओं में आस्था है; और तब भी अपने पर विश्वास (भरोसा) नहीं है तो आपकी मुक्ति नहीं है;। अपने आप में विश्वास रखिए, उस विश्वास के सहारे खड़े होइए और मजबूत बनिए; हमें इसी की जरूरत है।
- शक्ति, शक्ति ही वह चीज है क्योंकि जो हम जीवन में बहुत अधिक चाहते हैं; जिसे पाप व दुःख कहा जाता है, उनका एक ही कारण है, और वह है हमारी निर्बलता;। निर्बलता के साथ अज्ञान आता है और अज्ञान के साथ आता दुर्भाग्य।
- जितनी हो मेरी आयु बढ़ती है, उतना ही अधिक मुझे हर चीज पुरुषत्व में स्थित प्रतीत होती है। यह मेरा नया सिद्धान्त है।
- सफलता के लिए तीन अनिवार्य तत्त्व हैं शुचिता, धैर्य और अध्यावसाय और सर्वोपरि प्रेम;
- धर्म प्राप्ति है (अनुभूति है), वार्ता नहीं है, न सिद्धान्त है और न मत है; चाहे ये सब बातें कितनी ही आकर्षक (लुभावनी) क्यों न हों;। यह होने और हो जाने में हैं, सुनना या मानना नहीं है;, यह सम्पूर्ण आत्मा का बदलकर वह हो जाना है; जिसमें उसका विश्वास है।
- स्वयं को जाग्रत कीजिए, प्रत्येक को उसकी वास्तविक प्रकृति का बोध कराइए सोई आत्मा को जगाइए और देखिए कि यह कैसे जागृत होती है। सुप्त आत्मा के आत्म बोध गतिविधि में लग जाने पर शक्ति आ जाएगी, ख्याति होगी, कल्याण (अच्छाई) होगा और हर वह चीज आएगी जो सर्वोत्तम है।
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