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योग या Yoga का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार तथा महत्व

Times Darpan
Last updated: 2022-10-06 23:55
By Times Darpan 2k Views
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15 Min Read
योग या Yoga का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार तथा महत्व

योग शब्द का शाब्दिक अर्थ जोड़ना या मिलन कराना है। योग शब्द के इस अर्थ का भारतीय संस्कृति में बहुत अधिक प्रयोग किया गया है । जैसे गणित शास्त्र में दो या दो से अधिक संख्याओं के जोड़ का योग कहते है । चिकित्सा शास्त्र में विभिन्न औषधियों के मिश्रण को योग कहते है, ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों की विभिन्न स्थितियों को योग कहते है।

Contents
योग क्या है? (What is Yoga)योग का अर्थ (Meaning of Yoga)योग की परिभाषा (Definition of Yoga)योग के उद्देश्य (Objective of Yoga)योग के प्रकार (Types of Yoga)1. हठयोग क्या है?2. लययोग क्या है?3. राजयोग क्या है?4. भक्ति योग क्या है?5. ज्ञानयोग क्या है?6. कर्मयोग क्या है?7. जप योग क्या है?8. अष्टांग योग क्या है?योग का महत्व (Importance of Yoga)शारीरक रूप मेंसामाजिक रूप मेंमानसिक रूप मेंअध्यात्मिक रूप में

योग क्या है? (What is Yoga)

बहुत से अन्य क्षेत्रों में योग शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया है। किन्तु हम आध्यात्मिक क्षेत्रों में इस शब्द के अर्थ पर विचार करते है तो वहाँ उसका अर्थ अपने आप से युक्त होना अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन योग कहा जाता है । 

योग दर्शन में कहा है – ‘‘तंद्रा द्रश्टु: स्वरूपेऽवस्थानम् ।’’ जब चित का क्लिष्ट और अक्लिश्ट उभय प्रकार की वृतियों का अभाव या निरोध हो जाता है तब दृश्टा-आत्मा का स्व स्वरूप यानि ब्रह्मस्वरुप में स्थित हो जाता है । योग शब्द को संस्कृत व्याकरण के ‘युज’ धातु से उत्पन्न हुआ मानते है।

संस्कृत व्याकरण के पाणिनी के गण पाठ में युज धातु तीन प्रकार से प्रयोग में लायी गई है जो इस प्रकार है –

  • ‘‘युज समाधौ’ – (दिवादिगणीय)
  • ‘‘युजिर योगे’’ – (अधदिगणीय)
  • ‘‘युज संयमने’ – (चुरादिगणीय)

इनमें प्रथम धातु का अर्थ समाधि है, द्वितीय धातु का अर्थ मिलन या संयोग तथा तृतीय धातु का अर्थ संयम है । 

योग का अर्थ (Meaning of Yoga)

अधिकतर विद्वानों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में योग शब्द का अर्थ प्रथम ‘‘धातु’’ युज समाधौ से ही निष्पन्न हुआ माना है । महर्षि व्यास भी योग शब्द का अर्थ करते हुए कहा है कि समाधि को ही योग कहते है । ‘योग’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के युजिर् धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-’सम्मिलित होना’ या ‘एक होना’। इस एकीकरण का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा का एकीकरण अथवा मनुष्य के व्यक्तित्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक पक्षों के एकीकरण से लिया जा सकता है।  

‘योग’ शब्द ‘युज’ धातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में दो युज् धातुओं का उल्लेख है, जिनमें एक का अर्थ जोड़ना तथा दूसरे का मन: समाधि, अर्थात् मन की स्थिरता है। अर्थात् सामान्य रीति से योग का अर्थ सम्बन्ध करना तथा मानसिक स्थिरता करना है। इस प्रकार लक्ष्य तथा साधन के रूप में दोनों ही योग हैं। शब्द का उपयोग भारतीय योग दर्शन में दोनों अर्थों में हुआ है। 

योग शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न प्रकार से लिया गया है।

  • ‘पाणिनीयों धतु पाठ’ में योग का अर्थ- समाधि, संयोग एवं संयमन है। 
  • ‘अमर कोश’ में इसका अर्थ- कवच, साम-दाम आदि उपाय, ध्यान, संगति, युक्ति है।
  • ‘संस्कृत-हिन्दी कोश’ में इसका अर्थ- जोड़ना, मिलाना, मिलाप, संगम, मिश्रण, संपर्क, स्पर्श, संबंध है। 
  • ‘आकाशवाणी शब्द कोश’ में इसका अर्थ- जुआ, गुलामी, बोझ, दबाव, बन्धन, जोड़ना, नत्थी करना, बाँध देना, जकड़ देना, जोतना, जुआ डालना, गुलाम बनाना लिया गया है। 
  • ‘मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोश’ में योग का अर्थ- चिन्तन, आसन, बतलाया गया है।
  • शब्द कल्पद्रुम’ में योग का अर्थ- उपाय, ध्यान, संगति, है।
  • ‘ए प्रक्टिकल वैदिक डिक्सनरी’ में योग शब्द का अर्थ- जोड़ना है।
  • ‘उर्दू-हिन्दी शब्द कोश’ में योग शब्द का अर्थ- बैल की गर्दन पर रखा जाने वाला जुआ बतलाया गया है। 

पाणिनी ने ‘योग’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘युजिर् योगे’ ,’युज समाधो’ तथा ‘युज् संयमने’ इन तीन धातुओं से मानी है। प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार ‘योग’ शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया गया है।, महर्षि पतंजलि ने योग शब्द को समाधि के अर्थ में प्रयुक्त किया है। व्यास जी ने ‘योग: समाधि:’ कहकर योग शब्द का अर्थ समाधि ही किया है। 

योग की परिभाषा (Definition of Yoga)

योग की परिभाषा योग शब्द एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है जिसे अलग-अलग रूप में परिभाषित किया गया है।

1. पातंजल योग दर्शन के अनुसार- योगष्चित्तवृत्ति निरोध: अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।

2. महर्षि पतंजलि- ‘योगष्चित्तवृत्तिनिरोध:’ यो.सू.1/2 अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। 

चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है। बाह्मकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती है, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिम्ब बनता है, वही वृत्ति कहलाता है। 

3. सांख्य दर्शन के अनुसार-  पुरुशप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।

4. महर्षि याज्ञवल्क्य – ‘संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो।’ अर्थात जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम ही योग है।

5. कठोशनिषद् में योग के विषय में कहा गया है-

‘यदा पंचावतिश्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिष्च न विचेश्टति तामाहु: परमां गतिम्।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभावाप्ययौ।।

अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है, उस अवस्था को ‘परमगति’ कहते है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, अर्थात् प्रमाद हीन हो जाता है। उसमें सुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारों का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग है।

6. पतंजलि योगसूत्र में योग की परिभाषा – योगष्चित्तवृत्ति निरोध: ।। (पातंजल योग सूत्र, 1/2)

योग, चित्त वृत्तियों का निरुद्ध होना है। अर्थात् योग उस अवस्था विषेश का नाम है, जिसमें चित्त में चल रही सभी वृत्तियां रूक जाती हैं। यदि हम और अधिक जानने का प्रयास करें तो व्यास-भाष्य मे हमें स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि योग समाधि है। इस प्रकार जब चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियां विभिन्न अभ्यासों के माध्यम से रोक दी जाती है, तो वह अवस्था समाधि या योग कहलाती है।

अत: सारांश में हम यह कह सकते हैं कि पातंजल योग सूत्र में योग, चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध है या चित्त का बिलकुल शान्त हो जाना है जो समाधि की अवस्था भी कहलाती है।

योग के उद्देश्य (Objective of Yoga)

  1. मानसिक शक्ति का विकास करना।
  2. रचनात्मकता का विकास करना।
  3. तनावों से मुक्ति पाना।
  4. प्रकृति विरोधी जीवनशैली में सुधार करना।
  5. वृहत-दृष्टिकोण का विकास करना।
  6. मानसिक शान्ति प्राप्त करना।
  7. उत्तम शारीरिक क्षमता का विकास करना।
  8. शारीरिक रोगों से मुक्ति पाना।
  9. मदिरापान तथा मादक द्रव्य व्यसन से मुक्ति पाना।
  10. मनुष्य का दिव्य रूपान्तरण।

योग के प्रकार (Types of Yoga)

योग के कितने प्रकार हैं, योग कितने प्रकार के होते हैं भारतीय योग शास्त्रियों ने योग को 8 प्रकार का बतलाया है-

  1. हठयोग
  2. लययोग
  3. राजयोग
  4. भक्तियोग
  5. ज्ञानयोग
  6. कर्मयोग
  7. जपयोग
  8. अष्टांगयोग

1. हठयोग क्या है?

प्राचीन समय में हठयोग में सिद्ध महात्मा घेरण्ड हुए हैं। इन्होंने अपने शिष्य चण्डकपालि को क्रियात्मक रुप से समझाने के लिए घेरण्ड संहिता पुस्तक की रचना की जो आज भी उपलब्ध है। यह हठयोग का एक प्रामाणिक एवं सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें हठयोग के सात अंगों षट्कर्म आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि का वर्णन है ।

हठयोग में शारीरिक क्रियाओं का समावेश है शरीर को शट्चक्र भेदन के लिए उपयुक्त करने के लिए गौरक्षनाथ जी ने कई मुद्राओं पर बल दिया है जैसे काकी मुद्रा (जिव्हा को कौऐ की चोंच के समान कर प्राण वायु पान करना) खेचरी मुद्रा (जीभ को जिव्हामूल की ओर पलटकर वायुपान करना) उसके बाद चौरासी आसनों का निष्पन्न करना। मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध जालन्धर बन्ध लगाना आदि ।

2. लययोग क्या है?

योग के आचार्यों ने लय को भी ईश्वर प्राप्ति का एक साधन माना है इसका अर्थ है- ‘‘मन को आत्मा में लय कर देना, लीन कर देना।’’ 

‘‘आनंद त: पष्यन्ति विद्वांसस्तेन लयेन पष्यन्ति।’’ 

‘‘वे विद्वान पुरुष उसे आनन्द (आत्मा) स्वरुप देखते हुए उनमें लय हो जाते हैं और फिर उससे भिन्न उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई देता ‘‘ इस प्रकार ज्ञान द्वारा सत्य की खोज करते करते मनुष्य आत्मा तक पहुँच जाता है और वह देखता है कि केवल यह मेरा मन ही नहीं, सभी लोक लोकान्तर उसी में लीन हैं। यह आत्मा ही परमात्मा है दोनों में कोई भेद नहीं, यही लय योग है।

3. राजयोग क्या है?

‘‘राजत्वात् सर्वयोगानां राजयोग इति स्मृत:’’ । 

स्मृतियों  में ऐसा कहा गया है कि सभी योग साधनों में श्रेष्ठ होने के कारण तथा सभी योग प्रक्रियाओं का राजा होने के कारण इसे राजयोग कहा गया है।’’राजयोग का ध्यान ब्रह्म ध्यान, समाधि को निर्विकल्प समाधि तथा राजयोग में सिद्धमहात्मा, जीवनमुक्त कहलाता है राजयोग के सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रमाणित ग्रन्थ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योगदर्शन है। ऐसा कहा जाता है कि चित्त की चंचलता को दूर कर, योग एवं सिद्धयोग का अवधारणात्मक पहलू मन को एकाग्र तथा बुद्धि को स्थिर करके जीवात्मा को परमात्मा में विलीन करने की जो साधना है वह स्वयं ब्रह्मा ने वेदों के द्वारा ऋषियों की बताई। 

कुछ योगशास्त्र ने राजयोग को सोलह कलाओं से पूर्ण माना है अर्थात् 16 अंग माने हैं। सात ज्ञान की भूमिकाएं, दो प्रकार की धारणा – प्रकृति धारणा और ब्रह्मधारणा, तीन प्रकार का ध्यान – विराट ध्यान, ईष ध्यान और ब्रह्मध्यान, तथा चार प्रकार की समाधि – दो सविचार और दो निर्विचार अर्थात् वितर्कानुगत, विचारनुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। इस क्रम से साधनाकरता हुआ राजयोगी अपने स्वरूप को प्राप्त करके इसी जीवन में मुक्त हो जाता है ।

4. भक्ति योग क्या है?

निष्काम कर्म अर्थात कर्म करते हुए कर्मफल की आकांक्षा नहीं रखते हैं। भक्ति मार्ग का पालन करने से साधक को ईश्वर की अनुभूतिस्वयं होने लगती है। गीता में कहा है- 

‘‘पत्रं पुष्प फलं तोयंयो में भक्तया प्रयच्छति ‘‘

‘अर्थात पत्र, पुष्प, फल, जल इत्यादि को कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से अर्पण कर देता है उसे मैं अत्यन्त खुशी से स्वीकार करता हूँ।’’

5. ज्ञानयोग क्या है?

संसार में ज्ञान से बढ़कर कुछ भी पवित्र नहीं है।

गीता के अनुसार-’’ नहि ज्ञानेन सदृषंपवित्रमिह विद्यते’’

दो प्रकार का ज्ञान होते है –

  • तार्किक ज्ञान- तार्किक ज्ञान को विज्ञान कहा जाता है यह वस्तु के आभास में सत्यता के निरुपद के लिए किया जाता है इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का ज्ञान रहता है।-
  • आध्यात्मिक ज्ञान -आध्यात्मिक ज्ञान को ‘‘ज्ञान’’ कहा जाता है इसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है ऐसा व्यक्ति सब रूपों में ईश्वर देखता है।

6. कर्मयोग क्या है?

यज्ञार्था कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:गीता-तक्ष्र्थ कर्म कौन्तेय मुक्तासंग: समाचार:।। 

योग एवं सिद्धयोग का अवधारणात्मक पहलू यह संसार कर्म की श्रृंखला से बंधा हुआ है। स्वंययज्ञ की उत्पति कर्म से होती है खेतों में अन्न कर्म से ही पैदा होता है क्योंकि योगी लोग आत्म शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर हर एक को कर्म करने पड़ते हैं। कर्मों के फल से छुट्टी पाये बिना मुक्ति नहीं।

7. जप योग क्या है?

जप एक दिव्य शक्ति का एक मंत्र या नाम है। स्वामी शिवानंद के अनुसार जप योग एक महत्वपूर्ण अंग है जप इस कलयुग व्यवहार में अकेले शाश्वत शांति परमानंद व अमरता दे सकता है। जप अभ्यस्त हो जाना चाहिये और सात्विक भाव, पवित्रता, प्रेम और श्रद्धा के साथ लिया जाना चाहिये। जप योग से बड़ा कोई योग नहीं है। यह आपको सभी (जो आप चाहते हैं) सत् सिद्धी, भक्ति वमुिक्त प्रदान कर सकता है।

8. अष्टांग योग क्या है?

महर्षि पतंजलि ने पातंजल योग दर्शन, “अथयोग अनुषासनम्ं” शब्द से प्रारम्भ किया है इससे स्पष्ट है कि उन्होंने जीवन के आदर्शों में अनुशासन को कितना महत्व दिया है। पंतजलि योग विकास, आठ क्रमों में होता है इसलिए इसे अष्टांग योग भी कहते हैं । अष्टांग योग के अंतर्गत आठ अंग बताये गये हैं।

  1. यम 
  2. नियम
  3. आसन 
  4. प्राणायाम
  5. प्रत्याहार 
  6. धारणा
  7. ध्यान 
  8. समाधि

उपरोक्त आठ अंगों का अभ्यास करने से पूर्व व्यक्तियों को षट्कर्म करना अतिआवश्यक होता है षट्कर्म निम्न प्रकार से बताये गये हैं –

  1. नेति 
  2. नौलि
  3. धौति 
  4. वस्ति
  5. कपाल भाति 
  6. त्राटक

योग का महत्व (Importance of Yoga)

शारीरक रूप में

  • शारीरिक स्वच्छता हेतु
  • रोगो से बचाव
  • शरीर को सौंदर्य बनाने हेतु
  • शरीर की सही मुद्रा हेतु
  • मांसपेशियों को विकसित करने के लिए
  • हृदय व फेफडों की कार्यक्षमता बढाने में
  • लचक विकसित में सहायक

सामाजिक रूप में

  • सामाजिक गुणों को विकसित करने में सहायक
  • सामाजिक रिश्ते विकसित करने में

मानसिक रूप में

  • तनाव से मुक्ति
  • तनाव रहित जीवन
  • एकाग्रता बढ़ाने में सहायक
  • याददास्त बढ़ाने में सहायक
  • सहनशक्ति बढ़ाने में सहायक

अध्यात्मिक रूप में

  • अध्यात्मिक गुणों का विकास
  • ध्यान बढ़ाने में सहायक
  • नैतिक गुणों को विकसित करने में सहायक

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  • आवश्यकता किसे कहते हैं? विशेषताएं तथा निर्धारक तत्व
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