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सिंधु घाटी सभ्यता

Gulshan Kumar
Last updated: 2020-04-30 21:32
By Gulshan Kumar 1.4k Views
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17 Min Read
सिंधु घाटी सभ्यता

सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से प्रमुख सभ्यता है। सिंधु घाटी सभ्यता को हम हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जानते हैं। यह सभ्यता सिंधु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिंधु घाटी सभ्यता रखा गया। यह सभ्यता लगभग 2500 ईस्वी पूर्व दक्षिण एशिया के पश्चिमी भाग मैं फैली हुई थी, जो वर्तमान में पाकिस्तान तथा पश्चिमी भारत के नाम से जाना जाता है।

सिंधु घाटी सभ्यता प्राचीन मिस्र, मेसोपोटामिया, की सबसे बड़ी प्राचीन नगरीय सभ्यताओं से भी अधिक उन्नत और प्रचलित थी। सन् 1921-22 में, भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा किये गए सिंधु घाटी के उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से हड़प्पा तथा मोहनजोदडो दो प्राचीन नगर की खोज हुई। भारतीय पुरातत्व विभाग के तत्कालीन डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने सन 1924 में सिंधु घाटी में एक नई सभ्यता की खोज की घोषणा की।

सिंधु घाटी सभ्यता के काल निर्धारण

  • प्रारंभिक हड़प्पाई सभ्यता (3300ई.पू.-2600ई.पू. तक)
  • परिपक्व हड़प्पाई सभ्यता (2600ई.पू-1900ई.पू. तक)
  • उत्तर हड़प्पाई सभ्यता (1900ई.पु.-1300ई.पू. तक)
  • रेडियो कार्बन ‘सी-14‘ जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा हड़प्पा सभ्यता का सर्वमान्य काल 2500 ई.पू. से 1750 ई.पू. को माना गया है।

विभिन्न विद्धानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण

क्रमांककालविद्धान
13,500 – 2,700 ई.पू.माधोस्वरूप वत्स
23,250 – 2,750 ई.पू.जॉन मार्शल
32,900 – 1,900 ई.पू.डेल्स
42,800 – 1,500 ई.पू.अर्नेस्ट मैके
52,500 – 1,500 ई.पूमार्टीमर ह्यीलर
62,350 – 1,700 ई.पू.सी.जे. गैड
72,350 – 1,750 ई.पू.डी.पी. अग्रवाल
82,000 – 1,500 ई.पू.फेयर सर्विस

सिंधु सभ्यता में धर्म

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य्य देवियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। ये मूर्तियाँ मातृ देवी अथवा प्रकृति देवी की हैं। प्राचीन काल से मातृ या प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं। मातृ देवी की पूजा फ़ारस से लेकर यूनान के निकट इजियन सागर तक के सभी देशों के प्राचीन निवासियों में प्रचलित थी।

मातृ देवी की उपासना लोग किस प्रकार करते थे, इसका ज्ञान हमें हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर के चित्र से मिलता है। इस मुहर के चित्र में एक नारी बनी हुई है, जिसके पेट से एक पौधा निकलता दिखाया गया है, चाकू लिये हुए एक पुरुष का चित्र है और नारी अपने हाथों को ऊपर उठाये हुए है, जिसकी शायद बलि चढ़ाई जाने वाली है।

सिंधु घाटी की खुदाई में कोई मन्दिर या पूजा स्थान नहीं मिला, इस सभ्यता के धार्मिक जीवन का एकमात्र स्रोत यहाँ पाई गई मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों तथा मुहरें हैं। यहाँ मातृ देवी की, पशु पति शिव की तथा उसके लिंग की पूजा और पीपल, नीम आदि पेड़ों एवं नागादि जीव जंतुओं की उपासना प्रचलित थी। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में खड़ी हुई अर्धनग्न नारी की बहुत मृण्मय मूर्तियाँ मिली हैं, इनके शरीर पर छोटा सा लहंगा है, जिसे कटि प्रदेश पर मेखला से बाँधा गया है।

पशुओं में हाथी, बैल, बाघ, भैंसे, गैंडे और घड़ियाल के चित्र अधिक मिले हैं। साँपों को दूध पिलाने तथा पूजा करने का विचार भी इस सभ्यता में था। सूर्य पूजा तथा स्वस्तिक के भी चिह्न यहाँ पाये गए हैं। मिट्टी के एक ताबीज पर एक व्यक्ति को ढोल पीटता हुआ तथा दूसरे व्यक्ति को नाचते हुए दिखाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान काल की भाँति उस समय संगीत और नृत्य पूजा के अंग थे।

सिंधु सभ्यता के प्रमुख स्थल

प्रमुख स्थलखोजकर्तावर्ष
हड़प्पामाधो स्वरूप वत्स, दयाराम साहनी1921
मोहनजोदाड़ोराखाल दास बनर्जी1922
रोपड़यज्ञदत्त शर्मा1953
कालीबंगाब्रजवासी लाल, अमलानन्द घोष1953
लोथलए. रंगनाथ राव1954
चन्हूदड़ोंएन.गोपाल मजूमदार1931
सूरकोटदाजगपति जोशी1964
बणावलीरवीन्द्र सिंह विष्ट1973
आलमगीरपुरयज्ञदत्त शर्मा1958
रंगपुरमाधोस्वरूप वत्स, रंगनाथ राव1931.-1953
कोटदीजीफज़ल अहमद1953
सुत्कागेनडोरऑरेल स्टाइन, जार्ज एफ. डेल्स1927

हड़प्पा

हड़प्पा 6000-2600 ईसा पूर्व की एक नगरीय सभ्यता थी। यहाँ मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है। इसकी खोज 1920 में की गई। वर्तमान में यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है।

मोहनजोदड़ो

मोहनजोदड़ो, जिसका कि अर्थ मुर्दो का टीला है, 2600 ईसा पूर्व की एक नगरीय सभ्यता थी। यहाँ मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है। इस सभ्यता के ध्वंसावशेष पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के ‘लरकाना ज़िले’ में सिंधु नदी के किनारे पर प्राप्त हुए हैं। मोहनजोदड़ो के टीलो का खोज 1922 ई. में ‘राखालदास बनर्जी’ ने किया।

चन्हूदड़ों

मोहनजोदाड़ो के दक्षिण में स्थित चन्हूदड़ों नामक स्थान पर मुहर एवं गुड़ियों के निर्माण के साथ-साथ हड्डियों से भी अनेक वस्तुओं का निर्माण होता था। इस नगर की खोज सर्वप्रथम 1931 में ‘एन.गोपाल मजूमदार’ ने किया। यहाँ ‘सैंधव संस्कृति’ के साक्ष्य मिलते हैं।

लोथल

यह गुजरात के अहमदाबाद ज़िले में ‘भोगावा नदी’ के किनारे ‘सरगवाला’ नामक ग्राम के समीप स्थित है। खुदाई 1954-55 ई. में ‘रंगनाथ राव’ के नेतृत्व में की गई।

रोपड़

पंजाब प्रदेश के ‘रोपड़ ज़िले’ में सतलुज नदी के बांए तट पर स्थित है। यह स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम उत्खनन किया गया था। इसका आधुनिक नाम ‘रूप नगर’ था। 1950 में इसकी खोज ‘बी.बी.लाल’ ने की थी।

कालीबंगा (काले रंग की चूड़ियां)

यह स्थल राजस्थान के गंगानगर ज़िले में घग्घर नदी के बाएं तट पर स्थित है। खुदाई 1953 में ‘बी.बी. लाल’ एवं ‘बी. के. थापड़’ द्वारा करायी गयी। यहाँ पर प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं।

सूरकोटदा

यह स्थल गुजरात के कच्छ ज़िले में स्थित है। इसकी खोज 1964 में ‘जगपति जोशी’ ने की थी इस स्थल से ‘सिंधु सभ्यता के पतन’ के अवशेष परिलक्षित होते हैं।

आलमगीरपुर (मेरठ)

पश्चिम उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में यमुना की सहायक हिण्डन नदी पर स्थित इस पुरास्थल की खोज 1958 में ‘यज्ञ दत्त शर्मा’ द्वारा की गयी।

रंगपुर (गुजरात)

गुजरात के काठियावाड़ प्राय:द्वीप में भादर नदी के समीप स्थित इस स्थल की खुदाई 1953-54 में ‘ए. रंगनाथ राव’ द्वारा की गई। यहाँ पर पूर्व हडप्पा कालीन सस्कृति के अवशेष मिले हैं और यहाँ कच्ची ईटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट, पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण मिले हैं। यहाँ उत्तोत्तर हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिलते हैं।

बणावली (हरियाणा)

हरियाणा के हिसार ज़िले में स्थित दो सांस्कृतिक अवस्थाओं के अवषेश मिले हैं। हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन इस स्थल की खुदाई 1973-74 ई. में ‘रवीन्द्र सिंह विष्ट’ के नेतृत्व में की गयी।

अलीमुराद (सिंध प्रांत)

सिंध प्रांत में स्थित इस नगर से कुआँ, मिट्टी के बर्तन, कार्निलियन के मनके एवं पत्थरों से निर्मित एक विशाल दुर्ग के अवशेष मिले हैं।

सुत्कागेनडोर (दक्षिण बलूचिस्तान)

यह स्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दाश्त नदी के किनारे स्थित है।

सिंधु सभ्यता का नगरीय योजना

सिंधु सभ्यता की सबसे विशेष बात यह थी कि यह विकसित नगर निर्माण योजना प्रसिद्ध थी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक निम्न स्तर का शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। यहाँ सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता था। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे।

मोहनजोदड़ो सबसे प्रसिद्ध स्थल है यहाँ विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। कमरे के पास में एक बड़ा सा कुंआ है जिसका पानी निकाल कर हौज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने में एक निर्गम (Outlet) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगा में नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे।

सिंधु सभ्यता में कृषि एवं पशु-पालन

हड़प्पाई गाँव प्लावन मैदानों के पास स्थित थे, जो पर्याप्त मात्रा में अनाज का उत्पादन करते थे। गेहूँ, जौ, सरसों, तिल, मसूर आदि का ज्यादा उत्पादन होता था। गुजरात के कुछ स्थानों से बाजरा उत्पादन के संकेत भी मिले हैं, जबकि यहाँ चावल के प्रयोग के संकेत तुलनात्मक रूप से बहुत ही दुर्लभ मिलते हैं। सिंधु सभ्यता के मनुष्यों ने सर्वप्रथम कपास की खेती प्रारंभ की थी। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहां के लोग पशु-पालन भी करते थे।

हड़प्पा सभ्यता के लोगों का दूसरा व्यवसाय पशु-पालन था। यह लोग दूध, मांस उनके कृषि के कार्य और भार ढोने के लिए इनका प्रयोग किया करते थे। हड़प्पा के लोग बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पालते थे। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे के पलने का भी ज्ञान था।

सिंधु सभ्यता का अर्थव्यवस्था

हड़प्पा नगरों में अनेक व्यवसाय-धंधे प्रचलित थे। मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से कई प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत अवस्था में था। उसका विदेशों में भी निर्यात होता था। जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था।

यहाँ अनगिनत संख्या में मिली मुहरें, एक समान लिपि, वजन और मापन की विधियों से सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के जीवन में व्यापार के महत्व का पता चलता है। हड़प्पाई लोग पत्थर ,धातुओं, सीप या शंख का व्यापार करते थे। व्यापार की वस्तु विनिमय प्रणाली मौजूद थी। उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में अपनी व्यापारिक बस्तियाँ स्थापित की थीं जहाँ से प्रमाणिक रूप से मध्य एशिया से सुगम व्यापार होता था। दजला-फरात नदियों की भूमि वाले क्षेत्र से हड़प्पा वासियों के वाणिज्यिक संबंध थे। हड़प्पाई प्राचीन ‘लैपिस लाजुली’ मार्ग से व्यापार करते थे जो संभवतः उच्च लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि से संबधित था।

सिंधु सभ्यता का शिल्पकला

हड़प्पाई कांस्य की वस्तुएँ निर्मित करने की विधि, उसके उपयोग से भली भाँति परिचित थे। तांबा राजस्थान की खेतड़ी खान से प्राप्त किया जाता था और टिन अफगानिस्तान से लाया जाता था। बुनाई उद्योग में प्रयोग किये जाने वाले बहुत सी वस्तुओं पर पाए गए हैं। बड़ी-बड़ी ईंट निर्मित संरचनाओं से राजगीरी जैसे महत्त्वपूर्ण शिल्प के साथ साथ राज मिस्त्री वर्ग के अस्तित्व का पता चलता है। हड़प्पाई नाव बनाने की विधि, मनका बनाने की विधि, मुहरें बनाने की विधि से भली-भाँति परिचित थे।

टेराकोटा की मूर्तियों का निर्माण हड़प्पा सभ्यता की महत्त्वपूर्ण शिल्प विशेषता थी। जौहरी वर्ग सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से आभूषणों का निर्माण करते थे। मिट्टी के बर्तन बनाने की विधि पूर्णतः प्रचलन में थी, हड़प्पा वासियों की स्वयं की विशेष बर्तन बनाने की विधियाँ थीं, हड़प्पाई लोग चमकदार बर्तनों का निर्माण करते थे। प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहां के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। 

सिंधु सभ्यता में संस्थाए

सिंधु घाटी सभ्यता से बहुत कम मात्रा में लिखित साक्ष्य मिले हैं, जिन्हें अभी तक पुरातत्त्वविदों तथा शोधार्थियों द्वारा पढ़ा नहीं जा सका है। एक परिणाम के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता में राज्य और संस्थाओं की प्रकृति समझना काफी कठिनाई का कार्य है । हड़प्पाई स्थलों पर किसी मंदिर के प्रमाण नहीं मिले हैं।

हड़प्पा सभ्यता में पुजारियों के प्रुभुत्व या विद्यमानता को नकारा जा सकता है। हड़प्पा सभ्यता व्यापारी वर्ग द्वारा शासित थी। हम हड़प्पा सभ्यता में शक्तियों के केंद्रण की बात करें तो पुरातत्त्वीय अभिलेखों द्वारा कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती है। कुछ पुरातत्त्वविदों की राय में हड़प्पा सभ्यता में कोई शासक वर्ग नहीं था तथा समाज के हर व्यक्ति को समान दर्जा प्राप्त था। कुछ पुरातत्त्वविदों की राय में हड़प्पा सभ्यता में कई शासक वर्ग मौजूद थे, जो विभिन्न हड़प्पाई शहरों में शासन करते थे।

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन

सिंधु घाटी सभ्यता का लगभग 1800 ई.पू. में पतन हो गया था, परंतु उसके पतन के कारण अभी भी पता नहीं हैं। एक सिद्धांत यह कहता है कि इंडो-यूरोपियन जनजातियों जैसे-आर्यों ने सिंधु घाटी सभ्यता पर आक्रमण कर दिया तथा उसे हरा दिया। सिंधु घाटी सभ्यता के बाद की संस्कृतियों में ऐसे कई तत्व पाए गए जिनसे यह सिद्ध होता है कि यह सभ्यता आक्रमण के कारण एकदम विलुप्त नहीं हुई थी।

दूसरी तरफ से बहुत से पुरातत्त्वविद सिंधु घाटी सभ्यता के पतन का कारण प्रकृति जन मानते हैं। प्राकृतिक कारण भूगर्भीय और जलवायु संबंधी हो सकते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र में अत्यधिक विवर्तिनिकी विक्षोभों की उत्पत्ति हुई जिसके कारण अत्यधिक मात्रा में भूकंपों की उत्पत्ति हुई। एक प्राकृतिक कारण वर्षण प्रतिमान का बदलाव भी हो सकता है। अन्य कारण यह भी हो सकता है कि नदियों द्वारा अपना मार्ग बदलने के कारण खाद्य उत्पादन क्षेत्रों में बाढ़ आ गई हो। इन प्राकृतिक आपदाओं को सिंधु घाटी सभ्यता के पतन का मंद गति से हुआ, परंतु निश्चित कारण माना गया है।

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