भारत-चीन के संबंध प्राचीन काल से ही मधुर रहे है। भारत-चीन सम्पूर्ण एशिया में एक सितारे की तरह चमकते रहे हैं। पहले भारत और चीन एक अच्छे दोस्त व भाई के समान सम्बंध रखते थे, और चीन के प्रति भारत की अपार सहानुभूति थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई प्रस्तावों को स्वीकार करके चीन ने ब्रिटिश नीतियो की आलोचना की। लेकिन आज-कल भारत और चीन के बीच रिश्ते ख़राब होते जा रहे है तो इस लेख में हम जानने का प्रयास करेंगे की भारत चीन विवाद के कारण क्या है?
जब 1931 में जापान द्वारा मंचूरिया पर आक्रमण किया गया तो भारत ने चीन के प्रति सहानुभूति प्रदर्शन करने के लिए चीन दिवस मनाया और उसके बाद हिन्दू-चीनी, भाई-भाई के संबंध बन गये। लेकिन कुछ विवादो के कारण भारत चीन विवाद के कारण उत्पन्न हो गये। उनमें से कुछ विवाद प्रमुख है।
भारत चीन विवाद के कारण
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तिब्बत विवाद
तिब्बत विवाद भारत चीन विवाद के कारण में से मुख्य है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रारंभ में बहुत वर्षों तक भारत और चीन के सम्बंध अत्यंत अच्छे रहे, फिर भी एक प्रश्न पर दोनों के बीच आरंभ से ही मतभेद की स्थिति पाई जाती है और यह प्रश्न तिब्बत से संबंधित था। तिब्बत, चीन और भारत के बीच स्थित है और इस पर चीन की सर्वोच्च सत्ता बहुत पहले से ही रही है। साथ ही प्राचीन काल से इसके साथ भारत का व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बंध चला आ रहा है।
- बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जब तिब्बत पर रूस का प्रभाव बढ़ने लगा तो भारत ब्रिटिश सरकार सषंकित हुई
- लार्ड कर्जन ने 1905 में एक सैनिक दस्ता भेज कर दलाईलामा को एक संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया।
- 1906 में ब्रिटेन और चीन के बीच एक संधि हुई जिसके द्वारा ब्रिटेन ने तिब्बत पर चीन की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार कर लिया।
इस संधि के द्वारा ही यह तय हुआ कि तिब्बत की राजधानी लासा में एक भारतीय एजेंट रहेगा। यांटूग, ग्यान्टसे और गारटोक में भारत की व्यापारिक एजेंसियां कायम की जायेंगी तथा ग्यान्टसे तक डाक-तार घर स्थापित करने का अधिकार भी भारत को रहेगा।
इन सुविधाओं के अतिरिक्त भारत सरकार को अपने व्यापारि मार्ग की सुरक्षा के लिए तिब्बत में कुछ सेना रखने का अधिकार प्राप्त हुआ, लेकिन इस संधि में एक महत्वपूर्ण बाते थी। इसमें कहीं भी तिब्बत और चीन के संबंधों का स्पश्टीकरण नहीं किया गया था। वास्तविक बात यह थी कि आतंरिक मामले में तिब्बत हमेशा से पूर्ण स्वाधीन रहा है यद्यपि चीन की सर्वोच्च सत्ता उस पर ही है। फिर भी चीन को जब-जब मौका मिला है उसने तिब्बत की स्वायत्तता नष्ट करके उसे अपना अभिन्न अंग बनाने का प्रयास किया है।
इस तरह का दावा चीन ने हमेशा प्रस्तुत किया। जब चीन में साम्यवादी सरकार की स्थापना हुई तो तिब्बत की सरकार लासा के काेि मतागं मिषन को हटाने का प्रयास करने लगी। तिब्बत के इस प्रयास को चीन की नयी सरकार ने शंका की दृश्टि से देखा और समझा कि वह अपने को चीन प्रभाव से मुक्त करना चाहता है। अतएव चीन ने उस पर अपना दावा किया। 1 जनवरी 1950 को चीन ने तिब्बत को साम्राज्यवादी शड्यंत्रों से मुक्ति दिलाने की घोषणा की। भारत ने चीन द्वारा तिब्बत के प्रति इस नीति का विरोध किया।
भारत तिब्बत में अपने विषेशाधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार था। वह तिब्बत में चीन की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करने को तैयार था, परंतु साथ ही यह भी चाहता था कि उसे एक स्वायत्त शासन प्राप्त इकाई का स्थान प्रदान किया जाये।
लेकिन चीन ने इसकी कोई परवाह नहीं की और 25 अक्टूबर 1950 को तिब्बत के विरूद्ध सैनिक कार्रवाई शुरू कर दिया। जब भारत ने चीन की इस सशस्त्र कार्रवाई का विरोध किया तो उत्तर में चीन ने भारत पर आरोप लगाया कि वह साम्राज्यवादियों के बहकावे में आकर चीन के आतंरिक मामले में हस्तक्षेप कर रहा है। इस वातावरण में थोड़े समय के लिए चीन और भारत के सम्बंध में तनाव आ गया, लेकिन यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रही।
- 23 मई 1951 को चीन और तिब्बत में एक समझौता हो गया।
- इसके अनुसार यह निष्चय हुआ कि तिब्बत का वैदेषिक संबंध, व्यापार, सुरक्षा और आवागमन पर चीन का पूर्ण नियंत्रण रहेगा।
- चीन ने भारतीय हितों को भी संरक्षण प्रदान किया।
- 1954 में जब चाउ-एन-लाई भारत आये तो पंचषील के सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ और
- उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर भारत सरकार ने उपर्युक्त समझौता को मान्यता प्रदान कर दी।
सीमा विवाद
भारत चीन विवाद के कारण सीमा विवाद भी प्रमुख है। भारत ने उक्त उदारतावादी दृश्टिकोण के बावजूद चीन अपनी दुरंगी चाल से बाज नहीं आया। उसके शरारती रवैये से भारत चीन सीमा विवाद जटिल होता गया। चीन द्वारा प्रकाषित मानचित्रों में न केवल नेफा व भूटान तथा लद्दाख (कश्मीर में) के क्षेत्र को चीनी भूभाग के रूप में दिखाया गया। अपितु मैक मोहन रेखा (MAC MOHAN LINE) को भी चीन द्वारा अवैधानिक बताकर के उसी साम्राज्यवादी रेखा की संज्ञा दी गई। फलत: सीमाओं पर छुटपुट चीनी हमले भी शुरू हो गये।
सन 1956 के सितम्बर माह में ही चीनी सेनाओं ने तीन बार SHIPKIDE में घुस आयी। इसी समय चीन ने सीक्यांग से तिब्बत तक सड़क का निर्माण भी प्रारंभ कर दिया था परंतु सन् 1958 तक भारतीय सरकार को इसकी जानकारी न मिल सकी। सीमा पर हो रही इस सैनिक झडप़ों को राके ने हेतु नेहरू चाउ वार्ता से भारत को तुश्टीकरण के भुलावे में रखने के अलावा कोई ठोस परिणाम न दे सकी।
परिणाम स्वरूप सीमाओं पर चीन का अतिक्रमण जारी रहा। भारतीय विरोध के बावजूद भी चीन ने पेजिंग क्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में अपने सैनिक कैम्प लगा दिये। चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने 8 सितंबर 1959 को यह घोषणा कर दी कि भारत चीन सीमा विवाद एक खुला प्रश्न है। चीन का यह तर्क था कि यदि भारत लद्दाख में उसकी नई अक्साईचिन पहाड़ी सड़क के पूर्वी उत्तर भारत पर चीन के अधिकार को स्वीकार कर ले तो वह उसके बदले में मैक मोहन रेखा को स्वीकार लेगा। परंतु भारत ने इसे यह कहकर अस्वीकृत कर दिया कि ऐसा करना शिमला सम्मेलन 1954 के विरूद्ध है। दूसरी तरफ चीन की सीमा पर अतिक्रमण कार्यवाहियां दिन प्रतिदिन बढ़ती रहीं।
भारत द्वारा इन विवादों का शांतिपूर्ण हल ढूंढते रहने के बावजूद भी इस विवाद ने अक्टूबर 1962 में युद्ध का रूप ले लिया। परंतु पश्चिमी देशों द्वारा भारत को दी गई सहायता तथा सोवियत संघ के रूख को दखेते चीन ने 21 नवम्बर 1962 को एक तरफ युद्ध विराम कीे घोशणा करके अपनी सेनाओं को पीछे हटाना प्रारंभ कर दिया। चीनी सरकार ने भारत पर कई राजनयिक स्तर का दबाव डाला जिससे कि सीमा विवाद पर मन चाहा समझौता किया, परंतु भारतीय सरकार ने उसे अनुचित बताकर अस्वीकार कर दिया।
जल संधि
भारत-चीन सीमा के बीच चल रहे जल विवाद के कारण दोनों देशों में खटास पैदा हो गई। यदि चीन अपनी योजना पर अमल करना जारी रखता है तो इसका सबसे बड़ा पीड़ित भारत होगा। हालांकि इसका प्रभाव चीन के कुछ अन्य पड़ोसियों पर भी पड़ेगा। पानी का मुद्दा भारत और चीन के बीच लंबे समय से विवाद की जुड़ रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी और मुक्त बहाव वाली एकमात्र आखिरी नदी ब्रह्मपुत्र ही बची है।
चीन 62 विलियन डॉलर की साउथ नॉर्थ क्यूबिक टंसफर प्रोजेक्ट को लेकर उत्साहित है। इसका उद्देश्य 44.8 विलियन क्यूबिक मीटर पानी को हर वर्श दक्षिणी चीन से उत्तरी चीन की ओर येलो सीवर बेसिन की ओर ले जाना है। कई दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों और दक्षिण एशियाई देषों में पानी के बंटवारे के लिए आपस में जल संधिया कर रखी है।
मगर चीन ने अभी तक इस तरह के किसी भी समझौते से खुद को दूर ही रखा है। इसके बजाय वह अपने बांध के निर्माण पर जोर शोर से लगा हुआ है। उसकी इस जल रणनीति के कारण चीन के पड़ोसी देशों में कोई आत्मविश्वास नहीं है और कई विश्लेषक इसे चीन की जल संसाधन हथियाने की नीति करार देते रहे हैं।
भारत के पूर्वोत्तर में स्थित कई संगठनों ने खत से अपने निर्माणाधीन और प्रस्तावित बांध कार्यक्रम को रोकने का अनुरोध कई बार कर चुके हैं। उनका कहना है कि इसके कारण भारतीय राज्यों और बांग्लादेष में पानी की काफी कमी आ जाएगीं इस संबंध में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके चीनी समकक्ष वेन जियाबाओ को करीब 50 संगठनों ने सितंबर 2010 में भी पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर की थी मगर अभी तक इसका कोई हल नहीं निकला है।
अरूणाचल सरकार के प्रवक्ता ताकोडाबी ने खुद जाकर नदी के जल स्तर कम होने की जांच की है।उन्होंने भारत सरकार और उनकी एजेंसियों जैसे केन्द्रीय जल आयोग आदि को भी इस संबंध में तत्काल कदम उठाने के लिए कहा है। ताकि समस्या का हल निकल सके। उधर चीन का कहना है है कि बांध का निर्माण उसकी बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए है और उसे रोका नहीं जा सकता।
चीन के समृद्ध उत्तर क्षेत्र में पानी के संसाधन सिकुड़ते जा रहे हैं। वहीं उसके दक्षिणी क्षेत्र में भारत की ओर बहने वाली नदियोंं में पानी की अधिकता है। इसके चलते वह विषाल दक्षिण उत्तर जल स्थानांतरण परियोजना ;साउथ नॉर्थ वाटर ट्रांसफर प्रोजेक्टद्ध के लिए प्रेरित हो रहा है। इस विषाल परियोजना के लिए चीन बांध और नहरें बना रहा है। जिसके जरिए वह दक्षिणी क्षेत्र के जल को उत्तर में ले जाएगा। चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी पर 28 बांध बनाने की योजना बनाई है।
नवंबर 2010 में चीन ने तिब्बत को जांगमू के पास ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाना शुरू किया था। 510 मेगावाट प्रोजेक्ट के जनरेटर का पहला सेट 2014 से शुरू हो जाएगा। चीन के उत्तर और पष्चिमी क्षेत्र में बढ़ती पानी की किल्लत ने बीजिंग को दक्षिण में तिब्बत की नदियों का दोहन करने की योजना के लिए प्रेरित किया। ऐसे में तिब्बत के जल की दिषा को बदलने का सीधा प्रभाव भारत पर पड़ेगा।
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