हिंदी साहित्य के इतिहास में 14वीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी के बीच (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार 1348 ई. से 1643 ई.) के समय को ‘भक्ति काल’ के नाम से जाना जाता है, इस दौरान मुख्य रूप से भक्ति विषयक काव्य रचे गए। भक्तिकाव्य की निर्मित लंबी परंपरा रही है और इस युग में जो भक्तिकाव्य रचा गया उसकी विशिष्ट धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है।
भक्ति काल : अर्थ और स्वरूप
भक्तिकाव्य उस काव्य से तात्पर्य है जिसमें ईश्वर के प्रति प्रेम, अनुराग और समर्पण की अभिव्यक्ति कविता की झुकाव बनी। भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘सेवा करना’ | ‘भक्ति’ में इस सेवा भाव के नौ रूप- (1) श्रवण, (2) कीर्तन, (3) स्मरण, (4) पादसेवन, (5) अर्चना, (6) वंदना, (7) दास्य, (8) सख्य, और (9) आत्म निवेदन हैं। इसे ‘नवधा भक्ति’ भी कहा गया है। यह प्रेम और समर्पण भाव के साथ ही समाज सुधार आंदोलन भी था।
उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन की शुरूआत 14वीं शताब्दी से मानी जाती है, लेकिन दक्षिण भारत में इसकी शुरूआत छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हो चुकी थी। दक्षिण भारत में भक्ति साहित्य की रचना आलवार तथा नयनार संतों ने की। ये विष्णु तथा शिव के भक्त थे। आलवार तथा नयनार संतों ने जिस भक्ति की नींव डाली थी उसमें वर्ण, जाति, ऊँच नीच आदि का भेदभाव नहीं था। शंकराचार्य (788 ई. – 820 ई.) ने एक ओर वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया, दूसरी ओर उनके अद्वैतवाद’ में ब्रह्म और जीव के बीच कोई भेद नहीं किया गया है। उन्होंने शूद्र को ज्ञान का अधिकार नहीं दिया।
रामानुजाचार्य (1017 ई.-1127 ई.) ने शंकराचार्य की भेदभाव मान्यताओं का विरोध किया। इन्होंने भक्ति का सबको समान अधिकार दिया। इनके शिष्य रामानंद हुए। रामानंद (1368 ई.-1468 ई.) ने जाति प्रथा तथा छुआ-छूत का विरोध किया तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में नीची समझी जाने वाली जातियों से अपने शिष्य बनाए। कबीर, रैदास आदि इनके शिष्य थे।
भक्ति आंदोलन का उदय
हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन के उदय पर सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने विचार किया। उन्होंने इसकी दो स्थापनाएँ दी हैं। एक, भक्ति आंदोलन को उन्होंने अचानक पैदा होने वाला आंदोलन माना। जिसमे “बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुराने धार्मिक मतों के अंधकार के ऊपर नई बात दिखाई दी।” दूसरा, भक्ति आंदोलन को उन्होंने ईसाई-प्रभाव से जोड़ा। उनके अनुसार, रामानुजाचार्य को नेस्टोरियन ईसाई भक्तों से भावावेश और प्रेमोल्लास का संदेश मिला।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति आंदोलन के उदय को भारत में मुस्लिम राज्य-व्यवस्था की स्थापना से जोड़ा। उनके अनुसार, “जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए।”
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन के विचारों का खंडन करते हुआ बताया यदि “अचानक बिजली की चमक के समान इस धार्मिक मतों का फ़ैल जाना” ये सत्य नहीं है। इनके पीछे सैकड़ो वर्ष संघर्ष लगे है, तब ये अचानक फ़ैल गए है। साथ ही, उन्होंने रामचंद्र शुक्ल के विचारों पर असहमति जताते हुआ कहा, यदि मुस्लिम के अत्याचार से ऐसा होता तो ये पहले सिंध या उत्तर भारत में होता, दक्षिण भारत में नहीं होता।
“भक्ति आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई।
प्रसिद्ध इतिहासकार सतीशचंद्र ने भक्ति आंदोलन को मुस्लिम प्रभाव के दृष्टिकोण से देखा। उनके अनुसार, “उत्तर भारत में राजपूत-ब्राहमण लगभग पॉच सदियों तक प्रभावशाली रहा और यही समझौता कर्मकांड समर्थित वर्णश्रम धर्म पर आधारित सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी था।”
डॉ. रामविलास शर्मा भक्ति आंदोलन के उत्थान में व्यापार के विकास और इसके सामाजिक संरचना का टूटना प्रमुख कारण मानते हैं। उनके अनुसार, “गुप्तकाल व्यापारिक समृद्धि का काल है, कबीर और सूर का युग भी ऐसी समृद्धि का काल है। “सामंती व्यवस्था में धरती पर सामंतों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का।” सामंती व्यवस्था के टूटने से पुरोहितों का वर्चस्व टूटा तथा भक्ति आंदोलन के अनुकूल स्थिति बनी।
भक्ति आंदोलन की परिस्थितियाँ
किसी भी समय की परिस्थितियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। चाहे व्यक्ति कोई भी कार्य कर रहा हो उस कार्य पर उस समय की स्थिति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। परिस्थिति चाहे राजनीतिक हों या सामाजिक, धार्मिक हों या साहित्यिक या सांस्कृतिक, उन सभी की छाया साहित्य पर पड़ती हैं।
राजनीतिक परिस्थिति
भक्ति आंदोलन मुख्य रूप से सामाजिक आंदोलन था। इस दौरान सभी भक्त कवियों ने सामाजिक रूढ़ियों का खंडन किया तथा नए आदर्शों की स्थापना की। राजनीतिक रूप से इस दौरान भारत पर मुस्लिमों का शासन स्थापित हुआ। मोहम्मद गजनवी तथा मोहम्मद गोरी को जनता के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। कुतुबुद्दीन ऐबक ने पहली बार गैर राजपूतों की सेना गठित की। जिस समय ये मुस्लिम आक्रमण हो रहे थे उस समय भारत के शासक आपसी झगड़े में लगे हुए थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों को उन्होंने आक्रमण में सहायता की। जयचंद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति
भक्तिकाल का समाज सामंती समाज था। सुख-सुविधा राजा और सामंतों तक केंद्रित था। आम जनता बदहाली की दशा में गुजर-बसर कर रही थी। समाज में जाति और धर्म का बहुस्तरीय बँटवारा था। जाति व्यवस्था के मानदंड अत्यंत कठोर थे। इतिहासकार अलबरूनी ने लिखा है, “ये (हिंदू) किसी को अपनी जाति बदलने नहीं देते थे। जो अपनी जाति का उल्लंघन करता उसे सदैव रोक दिया जाता।“
धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थिति
धार्मिक दृष्टि से भक्तिकाल परिवर्तन का काल था। भक्तिकाल के प्रारंभिक दिनों में वैदिक धर्म का क्षीण रूप मिलता है। वैदिक देवताओं- इंद्र, वरूण, रुद्र आदि की जगह अब विष्णु और शक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा होने लगी थी। धार्मिक कर्मकांड के बढ़ावा से पुरोहित वर्ग अंधविश्वास का लाभ उठा कर जनता का शोषण कर रहे थे। धार्मिक क्षेत्र में इस काल में एक और बड़ा परिवर्तन आया। विष्णु के अवतारी रूप कृष्ण और राम की पूजा का प्रचलन था।
साहित्यिक परिस्थिति
साहित्य की निर्माण में तत्कालीन समय तथा समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थात साहित्य को पढ़कर हम तत्कालीन समाज के स्वरूप को जान सकते हैं। लोगों के आचार-विचार का अनुमान लगा सकते हैं। साहित्यकार अपने सामने जो देखता है उसका वर्णन करता है।
भक्तिकाव्य की सामान्य विशेषताएँ
भक्तिकाल के दौरान भक्तिकाव्य की रचना की गई। इस दौरान सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीरदास, जायसी, रैदास आदि भक्त कवियों ने श्रेष्ठ काव्य का सृजन किया। ये मुख्य रूप से भक्त थे और ईश्वर की आराधना इनका मुख्य ध्येय था पर इस प्रक्रिया में उनके जो उद्गार व्यक्त हुए उनकी गणना उत्कृष्ट काव्य के रूप में होती है।
सारांश
अतः भक्ति काल में हम पता चलता है कि लोग भक्ति को लेकर काफी समय से संघर्ष करता आ रहा था, लेकिन उनकी प्रवृति अचानक बदल गयी, ये सामान्यता दक्षिण भारत के तरफ से शुरू हुआ था। इस आंदोलन के कारण कई मुस्लिम आक्रमणकारी आये और इस आंदोलन में उलझे लोगो का फायदा उन्हें मिला जिससे उन्हें भारत में शासन करने में कठिनाई नहीं हुई। बाद में मुस्लिम और हिन्दू ने अपने धर्म के अनुसार आगे बढे।
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