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फ्रांस की क्रांति के कारण व प्रभाव

Times Darpan
Last updated: 2020-10-15 19:35
By Times Darpan 10.8k Views
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20 Min Read
फ्रांस की क्रांति

फ्रांस की क्रांति के कारण फ्रांस की पुरातन व्यवस्था ‘आसियां रिजीम’ में निहित थे। फ्रांस के अयोग्य शासक, सामन्तों और कुलीन वर्ग को प्राप्त विशेषाधिकारों के प्रति आक्रोश, राज्य की दयनीय आर्थिक स्थिति, मध्यम वर्ग में बढ़ती चेतना, बौद्धिक जागरण का प्रभाव आदि अनेक कारण थे; जिन्होंने क्रांति को जन्म दिया।

Contents
फ्रांस की क्रांति के कारणफ्रांस की क्रांति के प्रभाव

फ्रांस की क्रांति के कारण

क्रांति के मुख्य कारण निम्न है-

  • सामाजिक कारण
  • राजनैतिक कारण
  • आर्थिक कारण
  • बौद्धिक तथा अन्य कारण
  • तात्कालिक कारण

1. फ्रांस की क्रांति के सामाजिक कारण

फ्रांस का समाज असमान और विघटित था। यह सामन्तवादी प्रवृत्तियों और विशेषाधिकारों के सिद्धान्त पर आधारित था। यह समाज तीन श्रेणियों में बंटा था

  • प्रथम एस्टेट- पादरी
  • द्वितीय एस्टेट-सामन्त तथा
  • तृतीय एस्टेट-जन साधारण।

सामाजिक हैसियत और अधिकारों के आधार पर उच्च पादरी तथा कुलीन सामन्त वर्ग विशेषाधिकार वर्ग के अन्तर्गत तथा समस्त जनता-किसान, मजदूर, नौकरी और व्यापार करने वाले आदि अधिकारहीन वर्ग के अन्तर्गत आते थे।

उच्च पादरी और कुलीन सामन्त सम्पन्न और अधिकांश भूमि के स्वामी होने के बाबजूद करमुक्त थे; उनके पद खरीदे जा सकते थे, जिस कारण उच्च पदाधिकारी और पादरी अयोग्य, भ्रष्ट और चापलूस हो गये थे।

सामन्त वर्ग विलासिता का जीवन व्यतीत करता था और उसे किसानों से कई प्रकार के करों को वसूलने और बेगार कराने का विशेषाधिकार प्राप्त था।

मध्यम वर्ग धन और योग्यता में सम्पन्न होने के बाबजूद सुविधाहीन था, जिस कारण उसमें अत्यधिक असंतोष था।

सबसे दयनीय स्थिति किसानों और मजदूरों की थी; जो जनसंख्या में 80 प्रतिशत थे तथा जिन्हें अपनी आय का आधा भाग सामन्तीय, धार्मिक और राजकीय करों के रूप में देना होता था।

समाज की यह दोहरी रवैया धीरे धीरे आपसी तनाव का कारण बनी।

2. फ्रांस की क्रांति के राजनैतिक कारण

फ्रांस में लुई 14वें के समय सत्ता का पूर्ण केन्द्रीकरण हो गया था। उसने पूर्ण निरंकुशता और शान-शौकत से राज्य किया। कई युद्धों और नई राजधानी वर्साय की स्थापना पर अत्यधिक व्यय करने के बावजूद उसने अपने उत्तराधिकारी को युद्ध न करने और जनहित के कार्य करने की सलाह दी।

परन्तु उसका उत्तराधिकारी लुई 15वाँ कमजोर और विलासी था। उसने अपने पड़ोसियों के साथ कई असफल युद्ध लड़े। लुई 16वाँ गद्दी पर बैठा तो फ्रांस की स्थिति निराशाजनक थी। उसमें स्थिति को सुधारने की क्षमता नहीं थी। लुई 16वा न तो स्वयं निर्णय ले पाता था और न अपने मंत्रियों की उचित सलाह पर कार्य कर पाता था।

उस पर अपनी रानी मेरी एन्टोयनेट का प्रभाव था। वह राजनीति और प्रशासन में निरन्तर हस्तक्षेप करती थी। वह आस्ट्रिया की राजकुमारी थी तथा फ्रांस की जनता उसे पसन्द नहीं करती थी। क्रांति के समय उसने राजा की कठिनाईयों को बढ़ाया।

  • फ्रांस की प्रतिनिधि सभा स्टेटस जनरल का अधिवेशन 1614 के बाद से नहीं हुआ था।
  • प्रांतों पर केन्द्र का नियंत्रण कमजोर पड़ गया था।
  • सम्पूर्ण देश अनेक प्रकार की इकाइयों मे बंटा था तथा स्थान-स्थान पर भिन्न भिन्न कानून प्रचलित थे।
  • न्याय व्यवस्था जटिल और खर्चीली थी। एक प्रकार के वारंट ‘लेत्र द काशे’ द्वारा किसी को भी कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था।
  • व्यापार की दृष्टि से भी देश कई भागो में बंटा था और जगह-जगह चुंगी की सीमाएं थीं।
  • कर्मचारी अनियंत्रित और भ्रष्ट थे।

इस प्रकार फ्रांस में निरंकुश और अयोग्य शासकों, प्रतिनिधि सभाओं के अभाव, अक्षम प्रशासनिक व्यवस्था, भ्रष्ट न्याय और कानून व्यवस्था आदि ने राजनैतिक व्यवस्था को क्षीण कर दिया था।

3. फ्रांस की क्रांति के आर्थिक कारण

फ्रांस की वित्तीय नीति दोषपूर्ण थी। राज्य का कोई बजट नहीं था। राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति और राजकोश में कोई अन्तर नहीं था। राजपरिवार विलासिता और युद्धों पर अत्यधिक अपव्यय करता था। आय से अधिक व्यय होने के कारण फ्रांस की अर्थव्यवस्था कर्ज आधारित हो गयी थी।

  • फ्रांस मध्यम वर्ग के व्यापारियों का ऋणी बनता जा रहा था।
  • यहाँ के शासकों द्वारा कृषि और उद्योग के विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
  • कर व्यवस्था भी दोषपूर्ण थी। विशेषाधिकार वर्ग से सम्पन्न होने के बावजूद कोई कर नहीं लिया जाता था।
  • सम्पूर्ण करों का भार किसानों, मजदूरों और सामान्य जनता को वहन करना पड़ता था।
  • अप्रत्यक्षकर जैसे नमक कर आदि को वसूलने के लिए ठेका प्रथा प्रचलित थी।
  • ठेकेदार करवसूली करते समय गरीब किसानों पर अत्याचार करते थे।

1778 की मंदी और अकाल ने स्थिति को अधिक खराब कर दिया। किसानों और मजदूरों में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गयी। व्यापारियों ने भी राज्य को ऋण देने से मना कर दिया। परन्तु राजपरिवार और कुलीन वर्ग की विलासिता में कोई कमी नहीं आई। अंतत: फ्रांस को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा।

4. फ्रांस की क्रांति के बौद्धिक तथा अन्य कारण

फ्रांस में दार्शनिकों और लेखकों ने फ्रांसीसी समाज में व्याप्त असमानता, भ्रष्टाचार, धार्मिक अंधविश्वास आदि की कटु आलोचना कर जनता को परिवर्तन करने को प्रेरित किया। अनेक गोश्ठियों (सैलो) और संस्थाओं (कारदीलिए आदि) में यह दार्शनिक वर्तमान व्यवस्था की बुराइयों पर विचार विमर्श करते थे। इनका प्रभाव मध्यम वर्ग पर पड़ा। इन्हें क्रांति का जन्मदाता नहीं कहा जा सकता; फ्रांस में परिवर्तन हेतु वैचारिक आधार प्रदान करने का कार्य इन लेखकों ने किया।

  • मान्टेस्क्यू ने अपनी पुस्तक ‘द स्पिरिट ऑफ लॉज’ में शक्ति के पृथक्करण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
  • वह संवैधानिक शासान पद्धति के पक्ष में था।
  • वाल्टेयर ने प्राचीन रूढ़ियों, कुप्रथाओं और अंधविश्वासों का विरोध किया।
  • विशेषरूप से कैथोलिक चर्च और पादरियों के विलासमय जीवन को जनता के समक्ष रखा।
  • रूसो ने ‘सोशल कांट्रैक्ट’ नामक पुस्तक में स्पष्ट किया कि शासक को जनता के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।

इनके अतिरिक्त दिदरो, क्वेस्ने, हॉलबैक, हैल्वेशियस आदि ने अपनी लेखनी से असमानता, शोषण, धार्मिक असहिश्णुता, भ्रष्ट और निरंकुश राजतंत्र, प्रशासनिक दोष आदि के प्रति जनता को जाग्रत किया। फ्रांस की क्रांति समकालीन विश्व से भी प्रभावित हुयी थी। अमेरिका की स्वतंत्रता तथा इंग्लैण्ड की गौरवशाली क्रांति के पश्चात वहां लागू संवैधानिक शासन व्यवस्था ने फ्रांस के शिक्षित मध्यम वर्ग को व्यवस्था परिवर्तन हेतु प्रेरित किया।

5. फ्रांस की क्रांति के तात्कालिक कारण

उपयुक्त हमने स्पष्ट किया है फ्रांस में वित्तीय संकट उत्पन्न हो गया था। लुई 16वें ने अपने अर्थमंत्रियों क्रमश: तुर्गो, नेकर, कालोन, और ब्रीएन की सलाह से इस संकट को दूर करने हेतु कई प्रयास किए। रानी और दरबारी सामन्तों के शड़यन्त्रों और सहयोग न करने के कारण सभी प्रयास असफल रहे।

अंतत: लुई 16वें ने अध्यादेशों के द्वारा सामन्त वर्ग पर कर लगाना चाहा; पेरिस की पार्ल मां ने स्पष्ट किया कि राजा को नया कर लगाने का अधिकार नहीं है; केवल राज्य को ही ‘स्टेटस जनरल’ के माध्यम से कर लगाने का अधिकार है।

इस प्रकार विशेषाधिकार सम्पन्न सांमत वर्ग ने राजा का विरोध करके फ्रांस को क्रांति की ओर धकेल दिया।

फ्रांस की क्रांति के प्रभाव

एक ओर कुछ विद्वानों ने फ्रासीसी क्रान्ति को विनाशकारी, अप्रगतिशील तथा अराजकतावादी आन्दोलन कहा है; तो दूसरी ओर विद्वानों ने इसे विश्व की महानतम घटना कहा है। यह विश्व क्रांति थी; जिसने समूची मानव जाति के इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी।

1. फ्रांस की क्रांति के राजनीतिक प्रभाव

  • निरंकुश शासन का अंत और गणतंत्र की स्थापना
  • लिखित संविधान
  • लोकप्रिय सम्प्रभुता का सिद्धांत
  • मानव अधिकारों की घोषणा
  • प्रशासन में सुधार
  • समान कानून और कानूनों का संग्रह
1. निरंकुश शासन का अंत और गणतंत्र की स्थापना

इस क्रांति से फ्रांस में पुराना निरंकुशता और तानाशाही का युग समाप्त हो गया। दैवी अधिकारों के सिद्धांत पर आधारित राजतंत्र समाप्त हो गया और उसके स्थान पर संवैधानिक राजतंत्र और बाद में गणतंत्र स्थापित हो गया।

2. लिखित संविधान

क्रांति के बाद फ्रांस के लिए लिखित संविधान बनाया गया जिसमें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका के अधिकार और कर्तव्य स्पष्ट किये गये और नागरिकों को मत देने का अधिकार प्राप्त हुआ। यह संविधान फ्रांस का ही नहीं, अपितु यूरोप का भी प्रथम लिखित संविधान था। 

3. लोकप्रिय सम्प्रभुता का सिद्धांत

क्रांति ने राज्य के संबंध में एक नवीन धारणा को जन्म दिया और राजनीति में नवीन सिद्धांत प्रतिपादित किये। लोकप्रियता जनता में निहित होती है। इस क्रांति ने यह प्रमाणित कर दिया कि प्रजा ही वास्तव में राजनीतिक अधिकारों की स्वामी है और सार्वभैाम या सार्वजनिक सत्ता उसके पास ही है। 

4. मानव अधिकारों की घोषणा

क्रांति के दौरान मानव के मौलिक अधिकारों की घोषणा की गई। उसमें मनुष्य के बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक मूलभूत अधिकारों को स्पष्ट शब्दो में अभिव्यक्त किया गया। कानून की दृष्टि में सभी नागरिकों को समानता प्रदान की गई। इससे जन सामान्य की आशा-आकांक्षा का विस्तार हुआ और फ्रासं में एक लोकतंत्रीय समाज का निर्माण हुआ। 

5. प्रशासन में सुधार

क्रांति के बाद प्रशासन का पुर्नगठन किया गया। फ्रासं को समान 83 भागों में विभक्त कर उनको कैन्टनों और कम्यनूों में विभाजित किया। पदों पर सुयोगय और सक्षम अधिकारी नियुक्त किय गए। पक्षपातपूर्ण कर व्यवस्था तथा अव्यवस्थित फिजूल खर्चियों के स्थान पर समान कर-व्यवस्था और नियमित बजट प्रणाली स्थापित की गई।

न्यायालयों को कार्यकारिणी और व्यवस्थापिका के प्रभाव और नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया। फाजैदारी मकुदमों के लिये ‘ज्यूरी प्रथा’ प्रारंभ की गई। वंशानुगत और भ्रष्ट न्यायाधीशो के स्थान पर नव निर्वाचित न्यायाधीशो की व्यवस्था की गई।

6. समान कानून और कानूनों का संग्रह

कानूनों की विविधता समाप्त कर दी गई। नेपोलियन ने विभिन्न कानूनों को एक करके दीवानी, फौजदारी तथा अन्य कानूनों का व्यवस्थित संग्रह करवाया जिससे फ्रांस में एक सी कानून व्यवस्था स्थापित की गई। इस कानून-संग्रह को ‘‘कोड ऑफ नेपोलियन’’ कहते हैं। बाद में आस्ट्रिया, इटली, जर्मनी, बेल्जियम, हॉलेण्ड और अमेरिका आदि देशों में भी काडे ऑफ नेपोलियन में आवश्यकतानुसार आंशिक परिवर्तन करके उसे लागू कर दिया गया।

2. फ्रांसीसी क्रांति के धार्मिक एवं सामाजिक प्रभाव

  • चर्च का पुर्नगठन
  • सामाजिक समानता का युग
  • कृषकों की दशा में सुधार
  • शिक्षा और साहित्य में प्रगति
  • राष्ट्रीय भावना का विकास
1. चर्च का पुर्नगठन- 

क्रांति के उपरान्त फ्रांस के केथोलिक चर्च का पुनर्गठन किया गया। चर्च की भूमि सत्ता और सम्पत्ति सरकार के अधिकार में कर दी गई और पादरियों के लिये नवीन संविधान लागू किया गया और उनको सरकारी कर्मचारियों के समान वेतन दिया जाने लाग। इसी नवीन संविधान के अंन्तर्गत पोप से संबंध विच्छेद कर दिया गया और अब पोप की सर्वोपरिता समाप्त हो गई। इससे कैथोलिकों और उनके विरोधियों में अधिक मत-भेद उभरने लगे। 

2. सामाजिक समानता का युग

पुरातन सामन्तवादी व्यवस्था का अंत इस क्रांति का महत्वपूर्ण प्रभाव था। कुलीन सामन्तों की व्यवस्था, उनकी कर प्रणाली और उनके विशेष अधिकार समाप्त कर दिये गये। उनके द्वारा लगाये गये कर भी समाप्त कर दिये गये। सामन्त प्रणाली और दास व्यवस्था का अंत कर दिया गया। अंध विश्वासों व रूढियों पर आधारित पुरातन संस्थाए नष्ट कर दी गई। सामाजिक समानता ओर सुव्यवस्था स्थापित की गई। सभी देशवासियों को समान नागरिक अधिकार प्रदान किये गये; उन्हें बिना किसी भेदभाव के समानता व स्वतंत्रता दी गई। 

3. कृषकों की दशा में सुधार

क्रांति से पूर्व कृषकों की दशा दयनीय थी। सामन्त ओर पादरी विभिन्न करों द्वारा उनका शोषण करते थे। इससे कृषक निर्धन हो गये थे क्रांति, उनके लिये वरदान सिद्ध हुई। कृषकों को निर्दयी सामन्तों और जागीरदारों के अत्याचारों करों, शोषण और दासता से छुटकारा मिला। उन्हान सामन्तो से प्राप्त भूिम पर बड़े परिश्रम और लगन से कृषि की और उपज में वृद्धि की। 

4. शिक्षा और साहित्य में प्रगति

क्रांति के दौरान शिक्षा को केथोलिक चर्च के आधिपत्य और प्रबन्ध से हटाकर उसे गणतंत्रीय सरकार के अधीन कर दिया। इस प्रकार शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया। आधुनिक फ्रांस की राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति की नींव क्रांति ने ही रखी। ज्ञान वृद्धि के लिए अनेक विद्यालय, महाविद्यालय, तकनीकी संस्थान, प्रशिक्षण संस्थाएं और पेरिस का विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। लिखने, भाषण देने और उदारवादी प्रगतिशील विचारों का प्रारंभ हुआ। 

5. राष्ट्रीय भावना का विकास–

जब विदेशी सेनाओं ने राजतंत्र की सुरक्षा के लिए फ्रासं पर आक्रमण किए तब विभिन्न वर्गो के लोगों ने सेना में भरती होकर अत्यतं वीरता ओर साहस से विदेशी सेनाओं का सामना किया ओर विजय प्राप्त की। इस प्रकार देश की सुरक्षा के लिए फ्रांसीसीयों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई। इस राष्ट्रीय भावना और विजयों से फ्रांस के सैनिक गौरव में अधिक वृद्धि हुई।

3. फ्रांसीसी क्रांति के आर्थिक प्रभाव

आर्थिक संकटों का निराकरण करने के लिये ही फ्रांस में क्रांति का प्रारंभ हुआ था।

  • आर्थिक दुव्र्यवस्था सुधारने के लिये चर्च की भूमि का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया; सामन्तों की भूिम को कृषकों में विभक्त किया गया।
  • मध्यम वर्ग के लोगो ने भी सम्पत्ति और भूमि क्रय कर ली।
  • सामन्त प्रथा के अवसान के बाद करों का भार सभी वर्गो के लिये समान कर दिया गया।
  • सभी को कर देना आवश्यक हो गया।
  • अनुचित अन्यायपूर्ण करों का अंत कर दिया गया।
  • शाही व्ययशीलता को समाप्त कर दिया गया।

इस प्रकार प्रशासन व्यवस्था में बजट प्रणाली और बचत के कारण आर्थिक स्थिरता आ गई।

4. फ्रांसीसी क्रांति के नवीन वाणिज्य नीति

व्यापार पर लगे प्रतिबंध समाप्त कर दिये गये, नाप तोल में दशमलव पद्धति प्रारंभ की गई। श्रमिकों व कारीगरों के लिये दोषपूर्ण गिल्ड व्यवस्था समाप्त कर दी गई । पूंजी और साख के लिये बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना की गई। नेपोलियन के शासनकाल में सड़कों, पुलों और बंदरगाहों का निर्माण किया गया जिससे व्यापार और उद्योगों की बहुत प्रगति हुई।

5. फ्रांसीसी क्रांति के यूरोप पर प्रभाव

  • स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना
  • विप्लवों और क्रांतियों का नवीन युग
  • यूरोप में क्रांति के दूरगामी परिणाम
  • अंतर्राष्ट्रीयता का प्रसार
  • यूरोप में उच्चकोटि का साहित्य सृजन
1. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना

फ्रांस की क्रांति ने यूरोप को ही नहीं अपितु मानव समाज को भी स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के शाश्वत तत्व प्रदान किये। ये सदैव जनता को स्फूर्ति देने वाले रहै। क्रांति से समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता की भावना फैली, धार्मिक स्वतंत्रता और सहनशीलता का प्रचार बढ़ा और नागरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई। व्यक्तिगत अधिकारों को मान्यता मिली।

फ्रासं के क्रांतिकारी अन्य देशों की पीड़ित जनता को अपना बंधु समझते थे। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के सिद्धांत और लोकतंत्र के विचार यूरोप के अन्य देशों में शीघ्र ही फैल गये; इन विचारों के लिये संसार में तब से संघर्ष प्रारभ हुआ।

2. विप्लवों और क्रांतियों का नवीन युग- 

मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सिद्धातं सदा के लिए फ्रासं और बाद में यूरोप के सभी देशों में स्वीकार कर लिया गया। इससे जनता को अत्याचारी शासन का अंत करने की स्वतंत्रता और संघर्ष करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। फ्रांस की क्रांति ने लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता की प्रेरणा दी। इन्हीं सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने के लिये यूरोप में 1830 ई. एवं 1848 ई. में क्रांतियां हुई।

संभवत: रूस में 1917 ई. की क्रांति और कार्लमाक्र्स के साम्यवादी समाज संगठन के सिद्धांत का प्रचार फ्रांस की क्रांति के आदर्शो पर ही हुआ। इन क्रांतियों से यूरोप में निरंकुश स्वेच्छाचारी राजाओ, तानाशाहों और उनके अत्याचारी शासन का अंत हुआ और जनता की विजय हुई। 

3. यूरोप में क्रांति के दूरगामी परिणाम

फ्रांस की क्रांति, एक अंतर्राष्ट्रीय महत्व का तीव्र आंदोलन था; जिसके विस्तृत प्रसार से फ्रांस का इतिहास परिवर्तित हो गया। फ्रांस का राष्ट्रनायक नेपोलियन यूरोप की निर्णायक सत्ता बन गया। नेपोलियन का इतिहास यूरोप का इतिहास बन गया। 

4. अंतर्राष्ट्रीयता का प्रसार- 

क्रांति के बाद फ्रांस के विरूद्ध हुए युद्धों ने और फ्रांस को परास्त कर देने की भावना ने यूरोप के देशों को परस्पर एक दूसरे के समीप ला दिया। नेपोलियन को वाटरलू में परास्त करने के पश्चात यूरोप की राजशक्तियों ने यूरोप में शांति व्यवस्था और सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पवित्र संघ, और यूरोपीय संयुक्त व्यवस्था की स्थापना की।

इन अंतर्राष्ट्रीय संघों ने यूरोप में विभिन्न स्थानों में सम्मेलन किये। यद्यपि यूरोप की राजनीतिक समस्याओं का निराकरण ये अंतर्राष्ट्रीय संघ नहीं कर सका किन्तु इनसे यूरोप में अंतर्राष्ट्रीय भावना और कार्यप्रणाली को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। 20 वीं सदी की राष्ट्रसंघ और संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी इसी अंतर्राष्ट्रीयवाद का परिणाम हैं। 

5. यूरोप में उच्चकोटि का साहित्य सृजन

फ्रासं की क्रांति के सिद्धातों और आदर्शों से प्रेरित होकर 19 वी सदी में यूरोप के देशों के अनेक विद्वानों, कवियों,लेखकों और साहित्यकारों ने स्वतंत्रता, समानता, मानव अधिकार, लाके तंत्र, समाजवाद और जनकल्याण आदि को अपनी कृतियों के प्रमुख विषय बनाये।

उदाहरण के लिये कवि वर्ड्सवर्थ की ‘प्रील्युड’, साउथगेट की जॉन ऑफ आर्क, विक्टर ह्यूगो की ‘ला मिजरेबल’ कवि शैले की ‘मिस्टेक ऑफ अनार्की’ गोटे का ‘फास्ट’ आदि रचनाओं पर क्रांति के सिद्धांतों और विचारों की स्पष्ट छाप झलकती है।

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