अप्रैल 2007 में केंद्र सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिये उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में एक आयोग पुंछी आयोग का गठन किया।”
पुंछी आयोग
इस आयोग का गठन इसलिये किया गया था कि दो दशक पहले गठित सरकारिया आयोग बदलते राजनीतिक एवं आर्थिक परिदृश्य के कारण काफी परिवर्तन हो चुके हैं। अत: नयी परिस्थितियों में केंद्रराज्य संबंधों का: आकलन किया जाना आवश्यक है।
आयोग को भारत के संविधान के अनुरूप वर्तमान परिप्रेक्ष्य में केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा करनी थी। आयोग को स्वस्थ परंपराओं शक्तियों के संबंध में उच्चतम न्यायालय के विशेष आदेश तथा विभिन्न क्षेत्रों में कार्य एवं उत्तरदायित्व, जिनमें शामिल थे-
- विधायी संबंध,
- प्रशासनिक संबंध,
- राज्यपाल की भूमिका,
- आपातकालीन उपबंध वित्तीय संबंध,
- आर्थिक एवं सामाजिक योजना,
- पंचायती राज संस्थान,
- संसाधनों का बंटवारा,
- जैसे-अंतर-राज्य नदी जल बंटवारा आदि
के परिप्रेक्ष्य केंद्र सरकार को उचित सिफारिशें प्रस्तुत करनी थीं।
पुंछी आयोग का कार्य
- केंद्र एवं राज्यों के बीच संबंधों की वर्तमान स्थिति का आकलन करने एवं उनमें सुधार करने के लिये उचित सिफारिशें देनी थीं।
- इस संबध में क्या रुकावटें या कठिनाइया है, इसके बारे में भी सरकार को बताना था।
- पिछले वर्षों में देश में विशेष रूप से पिछले दो दशकों मे एवं संविधान की मंशा के अनुरूप सामाजिक एवं आर्थिक विकास की क्या स्थिति रही है तथा इसे तीव्र करने के लिये क्या किया जाना चाहिये।
- राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखते हुए लोगों के कल्याण हेतु अच्छे शासन को सुनिश्चित करने हेतु नई चुनौतियों का किस प्रकार सामना किया जाए और नई सहम्राब्दि के प्रारंभिक दशकों में गरीबी और असाक्षरता उन्मूलन द्वारा भावी परिस्थितियों के अनुरूप सतत् और तीव्र आर्थिक वृद्धि कैसे प्राप्त की जाए।
उक्त मामलों का विवेचन करते समय एवं अपनी सिफारिशें देते समय आयोग को विशिष्ट भूमिका निभानी थी लेकिन उसे निम्न सीमाओं का भी ध्यान रखना था:
राज्यों के संबंध में केंद्र की भूमिका, दायित्व एवं कार्यक्षेत्र कैसा होना चाहिये, विशेष रूप से-
- जब कोई राज्य लंबे समय तक सांप्रदायिक हिंसा, जातीय हिंसा या लंबे समय से चल रही किसी अन्य प्रकार की हिंसा से ग्रस्त हो।
- नियोजन एवं बड़ी परियोजनाओं, जैसे-नदियों को जोड़ना आदि। ये ऐसे कार्य हैं, जिनमें 15-20 वर्षों का समय लगता है।
- पंचायती राज संस्थाओं एवं अन्य स्थानीय निकायों को स्वायत्तता के संदर्भ में। संविधान की छठी अनुसूची में वर्णित स्वायत्त निकायों का प्रशासन भी इसमें शामिल है।
- स्वतंत्र नियोजन एवं जिला स्तर पर पृथक् बजट बनाने के संदर्भ में।
- केंद्र द्वारा राज्यों को विभिन्न मदों के अंतर्गत प्राप्त होने वाली सहायता के संदर्भ में।
- पिछडे राज्यों की उन्नति के लिये योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन के संदर्भ में।
- आठवें से बारहवें वित्त आयोग द्वारा केंद्र राज्य वित्तीय संबंधों के बारे में की गयी सिफारिशों के संदर्भ में विशेष रूप से केंद्र से प्राप्त होने वाली बड़ी वित्तीय सहायता के बारे में।
- उत्पादन पर पृथक् करों की आवश्यकता एवं प्रासंगिकता एवं वैट के कारण वस्तुओं एवं सेवाओं की बिक्री पर लगने वाले कर के संदर्भ में।
- एक एकीकृत एवं लक्षित घरेलू बाजार बनाने के लिये अंतर-राज्यीय व्यापार के गठन एवं सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के अध्याय 18 में इस संबंध की गयी सिफारिशों के संदर्भ में।
- एक केंद्रीय विधि प्रवर्तन अधिकरण की स्थापना, जिसे अंतर-राज्यीय अपराधों की जांच का अधिकार हो तथा राज्यों की सीमाओं में होने वाले उन अपराधों की जांच का अधिकार हो, जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ती हो, के गठन के संदर्भ में।
- अनुच्छेद 355 के अंतर्गत आवश्यकता पड़ने पर स्व-प्ररेणा से राज्यों में नियोजित किये जाने वाले अर्द्ध-सेनिक बलों की उपयोगिता के संदर्भ में।
आयोग ने अप्रेल 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। कुल 1456 पृष्ठों की इस रिपोर्ट को सात खंडों में अंतिम रूप देने में आयोग को सरकारिया आयोग की रिपोर्ट, संविधान संचालन की समीक्षा के लिए गठित आयोग (NCRWC) की रिपोर्ट तथा द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट से बहुत मदद मिली। हालांकि अनेक क्षेत्रों में आयोग की रिपोर्ट सरकारिया आयोग की अनुशंसाओं से मेल नहीं खाती थी।
आयोग अपने विचारार्थ विषय के अन्तर्गत उठाए गए मुद्दों की गहराई से जाँच करने तथा संबंधित सभी पक्षों की सांगोपांग समीक्षा के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि “सहकारी संघवाद” (Co-operative Federalism ) भारत की एकता, अखंडता तथा भविष्य में इसके सामाजिक एवं आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य है। इस प्रकार “सहकारी संघवाद” का सिद्धान्त भारतीय राजनीति एवं शासन व्यवस्था के लिए एक व्यावहारिक मार्गदर्शक का कार्य करता है।
पुंछी आयोग का अनुशंसाएं
कुल मिलाकर आयोग ने 30 अनुशंसाएं कीं, जिनमें से कुछ केन्द्र-राज्य संबंधों का भी स्पर्श करती हैं।
कुछ प्रमुख अनुशंसाए निम्नलिखित हैं:
1. सूची III में वर्णित विषयों पर बने कानूनों के प्रभाव कार्यान्वयन के लिए यह आवश्यक है कि समवर्ती सूची के अन्तर्गत आने वाले विषयों पर संसद में विधायन प्रस्तत करने से पहले केन्द्र और राज्यों के बीच व्यापक सहमति बने।
2. राज्यों को सुपुर्द किए गए मामलों पर केन्द्र को संसदीय सर्वोच्चता स्थापित करने में अधिकतम संयम बरतना चाहिए। राज्य सूची तथा समवर्ती सूची को “हस्तांतरित विषयों। के मामलों में राज्यों के प्रति लचीला रुख रखना बेहतर केन्द्र राज्य संबंधों की पूंजी है।
3. केन्द्र को समवर्ती सूची के विषयों अथवा परस्पर व्यपी क्षेत्राधिकारों के संबंध में सिर्फ उन्हीं विषयों को हाथ में लेना चाहिए जो कि राष्ट्र हित में नीतियों की समरूपता के लिए नितांत आवश्यक हैं।
4. समवर्ती अथवा परस्पर व्यपी क्षेत्राधिकार से संबंधित मामलों के प्रबंधन के लिए अन्तर-राज्य परिषद को सतत् अंकेक्षण की भूमिका में रहना चाहिए।
5. राष्ट्रपति द्वारा विधेयक लौटा दिए जाने की स्थिति में राज्य विधायिका के कार्य करने के लिए अनुच्छेद 201 में निर्धारित 6 माह की अवधि को राष्ट्रपति के लिए भी राज्य विधेयक पर सहमति देने अथवा रोकने के सम्बंध में निश्चय करने के लिए भी प्रयोज्य बनाया जा सकता है।
6. संसद को सूची 1 की प्रविष्टि 14 से संबंधित विषय (समझौता करना तथा इसे संसदीय अधिनियम द्वारा लागू कराना) पर कानून बनाना चाहिए जिससे कि संलग्न पद्धतियों को प्रणालीबद्ध किया जा सके। इस बारे में शान्ति का उपयोग स्वाभाविक रूप से विधायी एवं कार्यकारी शक्तियों की संघीय संरचना को देखते हुए निर्बाध नहीं हो सकती।
7. संधियों एवं समझौतों के फलस्वरूप वित्तीय जिम्मेदारियों तथा राज्य की वित्तीय स्थिति पर इनके प्रभावों का ध्यान समय-समय पर गठित किए जाने वाले वित्तीय आयोगों को रखना चाहिए।
8. राज्यपालों का चयन करते समय केन्द्र सरकार को सरकारिया आयोग द्वारा अनुशंसित निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करना चाहिए:
- उसे जीवन के किसी क्षेत्र में अग्रगण्य होना चाहिए।
- उसे राज्य के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए।
- उसे एक असम्बद्ध व्यक्ति होना चाहिए जो कि राज्य की स्थानीय राजनीति से नजदीकी तौर पर न जुड़ा हो।
- उसे ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जिसकी राजनीति में सामान्यत: बड़ी भूमिका न रही हो, विशेषकर हाल के अतीत में।
9. राज्यपालों के लिए पांच साल का कार्यकाल निर्धारित होना चाहिए और उनकी पदच्युति केन्द्र सरकार की इच्छा भर से नहीं होनी चाहिए।
10. राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाने की जो भी प्रक्रिया है, आवश्यक परिवर्तन सहित वही प्रक्रिया राज्यपाल को महाभियोग द्वारा हटाने में प्रयुक्त होनी चाहिए।
11. अनुच्छेद 163 राज्यपाल को ऐसा विवेकाधिकार प्रदान नहीं करता कि वह मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अथवा उसकी सलाह के बिना कार्य करे। वास्तव में विवेकाधिकार के उपयोग का दायरा सीमित है और इस सीमित दायरे में भी राज्यपाल का कार्य एकपक्षीय अथवा अवास्तविक नहीं दिखना चाहिए। उसका कार्य विवेक द्वारा निर्देशित नेकनियती (ईमानदारी) द्वारा प्रेरित तथा सतर्कता द्वारा संतुलित होना चाहिए।
12. किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक के संबंध में राज्यपाल को इस बारे में छह माह के अंदर निर्णय लेना चाहिए कि वह इस पर सहमति दे अथवा राष्ट्रपति के विचारार्थ इसे सुरक्षित रखे।
13. जहाँ त्रिशंकु विधानसभा बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल की भूमिका का प्रश्न है, यह आवश्यक है कि इस बारे में संवैधानिक परंपराओं का पालन करते हुए स्पष्ट दिशा-निर्देश बनाए जाएं। ये दिशा-निर्देश निम्नलिखित हो सकते हैं:
- विधानसभा में जिस दल या दलों के समूह को सबसे अधिक समर्थन प्राप्त है, उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए।
- चुनावपूर्व गठबंधन की स्थिति में इस गठबंधन को एक दल मानना चाहिए और यदि इसे बहुमत प्राप्त होता है तो गठबंधन के नेता को राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए।
- यदि किसी दल अथवा चुनावपूर्व गठबंधन वाले समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त होता है तो राज्यपाल को मुख्यमंत्री का चयन निम्नलिखित प्राथमिकता चरण में करना चाहिए:
- चुनाव-पूर्व गठबंधन वाले दलों का समूह जिसके पास सबसे बड़ी संख्या है।
- वह सबसे बड़ा एकल दल जो दूसरों के सर्मधन से सरकार बनाने का दावा कर रहा हो।
- चुनाव पश्चात् का गठबंधन जिसमें सभी हिस्सेदार सरकार में शामिल होना चाहते हैं।
- चुनाव पश्चात का गठबधन जिसमें कछ दल सरकार में शामिल होना चाहते हैं तथा शेष सरकार से बाहर रहकर उसका समर्थन करना चाहते हैं।
14. जहां तक किसी मुख्यमंत्री को हटाने का प्रश्न है, राज्यपाल को मुख्यमंत्री को अपना बहुमत सदन के पटल पर साबित करने के लिए बराबर कहते रहना चाहिए और इसके लिए एक समय सीमा निर्धारित करनी चाहिए।
15. राज्यपाल को मंत्री परिषद की सलाह के खिलाफ जाकर किसी राज्यमंत्री पर अभियोग दर्ज करने की सहमति देने का अधिकार होना चाहिए यदि मंत्रिमंडल का निर्णय राज्यपाल की दृष्टि में उपलब्ध सामग्री को देखते हुए पूर्वाग्रह से प्रेरित प्रतीत होता है।
16. राज्यपालों को विश्वविद्यालयों के कुलपति के रूप में कार्य करने अथवा अन्य वैधानिक पद धारण करने की परंपरा का अंत होना चाहिए। उसकी भूमिका केवल संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित होनी चाहिए।
17. जब किसी बाहरी आक्रमण अथवा आंतरिक अव्यवस्था के कारण राज्य प्रशासन पंगु हो जाता है और इससे राज्य का संवैधानिक तंत्र ठप्प पड़ जाता है, तब अनुच्छेद 355 के अंतर्गत संघ को अपने सर्वोपरि उत्तरदायित्वों के निर्वहन के तहत सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करते हुए स्थिति को नियंत्रित करना चाहिए। साथ ही अनुच्छेद 356 के अंतर्गत प्रदत शाक्तियों का उपयोग “राज्य की संवैधानिक तंत्र की विफलता” को दुरुस्त करने तक ही सीमित रहना चाहिए।
18. जहां तक संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में अनुच्छेद 356 के अंतर्गत कार्यवाही करने का प्रश्न है, एस.आर. बोम्बई बनाम भारतीय संघ (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के आलोक में दिए गए नए दिशा-निर्देश को शामिल करते हुए उपयुक्त संशोधन किए जाने की जरूरत है। इससे राज्यों के मामले में संभावित संदेह एवं आशंका का निराकरण हो सकेगा जिससे कि केन्द्र राज्य संबंध को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।
19. अब जबकि अनुच्छेद 352 तथा 356 के अंतर्गत आपातकाल लगाने के लिए शर्ते बहुत सख्त कर दी गई हैं और इसे अंतिम उपाय के रूप में ही उपयोग किए जाने का प्रावधान है और अनुच्छेद 355 के अन्तर्गत राज्यों की सुरक्षा का दायित्व संघ का है, यह आवश्यक है कि केन्द्र के हस्तक्षेप के संबंध में संवैधानिक एवं वैधानिक रूप रेखा बनाई जाए लेकिन इसमें अनुच्छेद 352 एवं 350 के अंतर्गत आत्यंतिक कदम उठाने की अनिवार्यता न हो। इस रूपरेखा (फ्रेम वर्क) की “स्थानिक आपातकाल” के रूप में उपयोग करने मे या सुनिश्चित किया जा सकता है कि राज्य सरकार काम करती रहे तथा विधानसभा को भग करने की जरूरत नहीं पर जबकि केन्द्र सरकार इस संबंध में विनिर्दिष्ट तथा स्थानीय तौर पर प्रतिक्रिया करे। अनुच्छेद 355 (सपठित सातवीं अनुसूची के अन्तर्गत सूची 1 की प्रविष्टि 2A तथा सूची 2 की प्रविष्टि 1)) के अन्तर्गत स्थानीय आपातकाल लागू करने का पूरा औचित्य बनता है।
20. अंतर-राज्य परिषद् को अंतर-राज्यीय एवं केन्द्र राज्य मतभेदों को दूर करने का एक विश्वसनीय शाक्तिशाली तथा निष्पक्ष प्रणाली बनाने के लिए अनुच्छेद 263 में समुचित संशोधनों की आवश्यकता है।
21. क्षेत्रीय परिषदों की बैठक वर्ष में कम-से-कम दो बार होनी चाहिए तथा बैठकों का ऐजेण्डा सम्बश्चित राज्यों द्वारा आपसी समन्वय बढ़ाने तथा नीतियों की सुसंगतता के लिए प्रस्तावित किया जाना चाहिए। एक मजबूत अंतर-राज्य परिषद का सचिवालय क्षेत्रीय परिषदों में कार्यालय के रूप में भी कार्य कर सकता है।
22. वित्तीय मामला में अन्तर राज्य समन्वय को बढ़ावा देने के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की शक्ति प्राप्त समिति का गठन एक सफल प्रयोग हो सकता है। दूसरे क्षेत्रों में भी इसी प्रकार के संदर्शी (मॉडल्स) के सांस्थानिकीकरण की आवश्यकता है। मुख्यमंत्रियों का एक फोरम, जिसकी अध्यक्षता चक्रानुक्रम से एक मुख्यमंत्री करें, के बारे में भी विचार किया जा सकता है जिससे कि ऊर्जा, खाद्य, शिक्षा, पर्यावरण तथा स्वास्थ्य क्षेत्रों में समन्वित नीतिया लागू की जा सकें।
23. स्वास्थ्य, शिक्षा, इंजीनियरी तथा न्यायपालिका आदि क्षेत्रों में नई अखिल भारतीय सेवाओं को सृजित करना चाहिए।
24. राज्यों के प्रातिनिधिक फोरम के रूप में सेकेण्ड चेम्बर के गठन एवं कार्य में बाधक कारकों को हटाना चाहिए अथवा संशोधित करना चाहिए और इसके लिए संवैधानिक प्रावधानों के संशोधन की जरूरत हो तो वह भी करना चाहिए। वास्तव में राज्य सभा में केन्द्र और राज्यों के बीच वित्तीय विधायी तथा प्रशासनिक संबंधों को लेकर मतभेद के बिन्दुओं का स्वीकार्य हल निकालने की असीमित क्षमता है।
25. राज्यों के बीच सत्ता संतुलन वांछडनीय है और यह राज्य सभा में प्रतिनिधित्व की समानता के आधार पर संभव हो सकता है। इसके लिए प्रासंगिक प्रावधानों में संशोधन कर राज्य सभा में राज्यों को सीटों की समानता बिना उनकी जनसंख्या का ध्यान रख किया जा सकता है।
26. स्थानीय निकायों को स्व शासन की संस्थाओं के रूप में कार्य करने देने के लिए शाक्तियों के प्रतिनिधित्व का विषय क्षेत्र उपयुक्त संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक रूप से परिभाषित होना चाहिए।
27. भविष्य के सभी केन्द्रीय विधायन, जो राज्यों की संलग्नरता की मांग करते हैं, में लागत में साझीदारी की व्यवस्था होनी चाहिए जैसा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आर.टी.ई.) में प्रावधानित है। पहले से वर्तमान केन्द्रीय विधायन जिनमें कि राज्यों को कार्यान्वयन की जिम्मेदारी दी गई है, को उपयुक्त रूप से संशोधित करना चाहिए जिससे कि केन्द्र सरकार लागत में हिस्सेदारी सुनिश्चित कर सके।
28. प्रमुख खनिजों की रॉयल्टी दरों का पुनरीक्षण प्रत्येक तीन वर्षों पर बिना विलम्ब किया जाना चाहिए और तीन वर्षों की अवधि पार होने पर राज्यों को समुचित क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए।
29. व्यवसाय कर की वर्तमान हदबंदी को संविधान संशोधन द्वारा समाप्त कर देना चाहिए।
30. अनुच्छेद 268 में उल्लिखित करों से और अधिक राजस्व प्राप्त करने को संभावना के लिए उक्त प्रावधान पर नए सिरे से विचार करना चाहिए। इस मुद्दे को या तो अगले वित्त आयोग को संदर्भित कर देना चाहिए अथवा इस मामले को देखने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन करना चाहिए।
31. अधिक उत्तरदायित्व लाने के लिए सभी वित्तीय विधायनों का एक स्वतंत्र निकाय द्वारा वार्षिक आकलन करना चाहिए तथा इन निकायों की रिपोर्टों को संसद के दोनों सदनों राज्य विधायिकाओं के समक्ष रखना चाहिए।
32. वित्त आयोग के विचारार्थ विषयों को केन्द्र तथा राज्यों के बीच निष्पक्ष रूप से संदर्भित करना चाहिए। वित्त आयोगों के विचारार्थ विषयों को अंतिम रूप देने में राज्यों की संलग्रता के लिए एक प्रभावी प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।
33. केन्द्र सरकार के सभी वर्तमान उपकरों तथा सरचार्जी की समीक्षा करनी चाहिए ताकि सकल कर राजस्व में उनकी हिस्सेदारी को कम किया जा सके।
34. योजना एवं गैर-योजना खर्च में नजदीकी संलग्नता के कारण एक विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति की जा सकती है जो कि योजना खर्च एवं गैर-योजना खर्च के बीच अंतर के मुद्दे को देखे।
35. वित्त आयोग तथा योजना आयोग के बीच बेहतर समन्वय होना चाहिए। वित्त आयोग तथा पंचवर्षीय योजना के द्वारा आवरित अवधियों के तालमेल से ऐसे समन्वय की स्थिति में सुधार किया जा सकता है।
36. वित्त मंत्रालय के वित्त आयोग प्रभाग को एक पूर्ण विभाग के रूप में रूपांतरित कर देना चाहिए जो कि वित्त आयोगों के स्थायी सचिवालय के रूप में कार्य करे।
37. योजना आयोग की वर्तमान परिस्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसकी भूमिका समन्वय की अधिक होनी चाहिए, केन्द्रीय मंत्रालयों एवं राज्यों की प्रक्षेत्रीय योजनाओं के सूक्ष्म प्रबंधन की कम।
38. अनुच्छेद 307 (सपठित सूची 1 की प्रविष्टि 42) के अंतर्गत अन्तर-राज्य व्यापार एवं वाणिज्य आयोग की स्थापना के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। इस आयोग में परामर्शदात्री एवं कार्यकारी भूमिकाएं निर्णयकारी शक्ति के साथ अंतर्नेिहित होनी चाहिए। एक संवैधानिक निकाय के रूप में आयोग के निर्णय अंतिम तथा सभी राज्यों के साथ-साथ भारतीय संघ पर भी बाध्यकारी होना चाहिए। आयोग के निर्णयों से प्रभावित कोई पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।
39. आयोग की रिपोर्ट सभी हितधारकों – राज्य सरकारों/संघ शासित प्रदेशों के प्रशासनों तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल/सम्बन्धित विभागों आदि को उनके सुविचारित दृष्टिकोण के लिए भेजी गई थी। केन्द्रीय मंत्रालयों विभागों तथा राज्य सरकारों/संघ शासित क्षेत्रों के प्रशासनों से प्राप्त टिप्पणियों का अंतर-राज्य परिषद (Inter State Council) द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
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- Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
- Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
- Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
- Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
- Chapter-8: राज्य के नीति निदेशक तत्व
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- Chapter-10: संविधान का संशोधन प्रक्रिया क्या है? आलोचना व महत्व
- Chapter-11: संविधान की मूल संरचना का विकास, सिद्धांत, तत्व और सम्बंधित मामले
- Chapter-12: संसदीय व्यवस्था की परिभाषा, विशेषतायें, गुण तथा दोष
- Chapter- 13: संघीय व्यवस्था तथा एकात्मक व्यवस्था
- Chapter- 14: केंद्र-राज्य संबंध