हमारे देश में एक इकाई के रूप में परिवार का बहुत महत्त्व माना जाता है। भारतीय परिवार बहुधा स्थिर व बाल केन्द्रित होते हैं। आइए जानते हैं कि दोनों संयुक्त (sanyukt parivaar) तथा एकल परिवारों की क्या-क्या विशेषताएं होती हैं।
संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) कुछ एकल परिवारों से मिलकर बनता है और परिणामस्वरूप यह काफी बड़ा होता है। यह पति-पत्नी, उनकी अविवाहित लड़कियों, विवाहित लड़कों, उनकी पत्नियों व बच्चों से मिलकर बनता है। यह एक या दो पीढ़ियों के लोगों का समूह है, जो साथ रहते हैं। संयुक्त परिवार की कुछ प्रारूपिक विशेषताएं हैं-
- सभी सदस्य एक ही छत के नीचे रहते हैं।
- सभी सदस्यों की सांझी रसोई होती है।
- परिवार के सभी सदस्य परिवार की संपत्ति के हिस्सेदार होते हैं। संयुक्त परिवार का सबसे बड़ा पुरूष परिवार का वित्त संचालन व संपत्ति देखता है। यानि परिवार का खर्च एक ही वित्त स्रोत से चलता है।
- सभी सदस्य पारिवारिक घटनाओं, त्यौहारों व धार्मिक उत्सवों में एक साथ शामिल होते हैं।
- परिवार की बेटियाँ शादी के बाद अपने पति के घर चली जाती हैं जबकि बेटे घर में ही अपनी पत्नियों व बच्चों के साथ रहते हैं।
- संयुक्त परिवार में निर्णय घर के सबसे बड़े पुरूष सदस्य द्वारा लिये जाते हैं। घर की सबसे बड़ी महिला भी निर्णय लेने का कार्य कर सकती है, परंतु अप्रत्यक्ष रूप से।
परम्परागत रूप से संयुक्त परिवार ही हमारे समाज में पाये जाते थे। अब परिवर्तन आ रहा है विशेषकर शहरी क्षेत्रों में। परंतु व्यापारिक व कृषि प्रधान घरानों में अभी भी संयुक्त परिवार की प्रथा जारी है।
संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) के लाभ
रामकृष्ण मुखर्जी ने पांच प्रकार के सम्बन्ध बताते हुए, वैवाहिक (conjugal), माता-पिता पुत्र-पुत्री (parentalfilial), भाई-भाई व भाई-बहन (inter-sibling), समरेखीय (lineal), तथा विवाहमूलक (affinal) सम्बन्ध-कहा है कि संयुक्त परिवार वह है जिसके सदस्यों में उपरोक्त पहले तीन सम्बन्धों में से एक या अधिक और या समरेखीय या विवाहमूलक या दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं।
- यह परिवार के सदस्यों को मिलनसार बनाता है। काम, विशेषकर कृषि कार्य को बांट कर किया जा सकता है।
- यह परिवार में बूढ़े, असहाय व बेरोजगारों की देखभाल करता है।
- छोटे बच्चों का लालन-पालन भली-भाँति होता है, विशेषकर जब दोनों माता-पिता काम काजी हों।
- माता या पिता की मृत्यु हो जाने पर बच्चे को संयुक्त परिवार में पूरा भावानात्मक व आर्थिक सहारा मिलता है।
- संयुक्त परिवार में आर्थिक सुरक्षा अधिक रहती है। संयुक्त परिवार की कुछ समस्यायें भी हैं-
- कभी-कभी महिलाओं को कम सम्मान दिया जाता है।
- अक्सर सदस्यों के बीच संपत्ति को लेकर या किसी व्यापार को लेकर विवाद उठ खड़ा होता है।
- कुछ महिलाओं को घर का सारा कार्य करना पड़ता है। उनको अपना व्यक्तित्व निखारने के लिये बहुत कम समय व अवसर मिलता है।
संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) की विशेषताएँ
कुछ विद्वानों (जैसे इरावती कर्वे) ने संयुक्तता के लिए सह-निवास (co-residentiality) को आवश्यक माना है तो कुछ विद्वान (जैसे, बी.एस.कोहन, एस.सी.दुबे, हैरोल्ड गूल्ड, पालिन कोलेण्डा व आर.के.मुकर्जी) सह निवास और सह भोजन दोनों को संयुक्तता के आवश्यक तत्व मानते हैं।
परम्परागत (संयुक्त) परिवार (sanyukt parivaar) के कुछ प्रमुख लक्षण हैं:
- सत्तात्मक संरचना
- पारिवारिक संगठन
- आयु और संबंधों के आधार पर सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण
- सन्तान तथा भ्रातृक संबंधों की दाम्पत्य संबंधों पर वरीयता
- संयुक्त दायित्यों के आदर्श पर परिवार का कार्य संचालन
- सभी सदस्यों के प्रति समान बर्ताव
- वरिष्ठता के सिमदान्त के आधार पर सत्ता-निर्धारण
1. सत्तात्मक संरचना
सत्तात्मकता का यहां अर्थ है कि निर्णय तथा निश्चय करने की शक्ति एक व्यक्ति में होती है जिसकी आज्ञा का पालन बिना चुनौती के होना चाहिए। प्रजातंत्रीय परिवार में सत्ता जबकि एक या एक से अधिक लोगों में निहित होती है जिसका आधार दक्षता और योग्यता होता है, सत्तात्मक परिवार में परम्परा से सत्ता आयु एवं वरिष्ठता के आधार पर सबसे बड़े पुरुष के पास ही होती है।
परिवार का मुखिया अन्य सदस्यों को थोड़ी ही स्वतंत्रता प्रदान करता है और निर्णय करने में वह भले ही अन्य सदस्यों की राय जाने या न जाने, उसका निर्णय अन्तिम रुप से मान्य होता है। लेकिन जनतंत्रीय परिवार में मुखिया का कर्नव्य होता है कि वह अन्य सदस्यों की सलाह ले और कोई भी निर्णय करने से पूर्व उनकी राय को पूर्ण महत्व प्रदान करे।
2. पारिवारिक संगठन
इसका अर्थ है कि व्यक्ति के हितों का पूरे परिवार के हितों के सामने कम महत्व होता है, अर्थात् परिवार (sanyukt parivaar) के लक्ष्य ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए, जैसे यदि बच्चा स्नातक परीक्षा उनीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा जारी रखना चाहता है परन्तु यदि उसे परिवार (sanyukt parivaar) के व्यापार को देखने के लिए दूकान पर बैठने को कहा जाय तो उसे परिवार के हितों के आगे अपने हितों की अनदेखी करनी होगी।
3. आयु और संबंधों के आधार पर सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण
परिवार के सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण उनकी आयु और संबंधों द्वारा निश्चित होता है। पति का पद पत्नी से उचा होता है। दो पीढ़ियों में उफंची पीढ़ी वाले व्यक्ति की परिस्थिति निम्न पीढ़ी के व्यक्ति की परिस्थिति से अधिक उफंची होती है। लेकिन उसी पीढ़ी में बड़ी आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति कम आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति से उफंची होती है। पत्नी की परिस्थिति उसके पति की परिस्थिति ने निश्चित होती है।
4. सन्तान तथा भ्रातृक संबंधों की दाम्पत्य संबंधों पर वरीयता
रक्त सम्बन्धों को वैवाहिक सम्बन्धों की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। दूसरे शब्दों में पति-पत्नि के सम्बन्ध, पिता-पुत्र या भाई-भाई सम्बन्धों की अपेक्षा निम्न माने जाते हैं।
5. संयुक्त दायित्यों के आदर्श पर परिवार का कार्य संचालन
परिवार संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) के उत्तरदायित्वों के आदर्शो के आधार पर कार्य करता है। यदि पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए प्ण लेता है तो उसके पुत्रों का भी यह दायित्व हो जाता है कि वह उसकी वापसी का प्रयत्न करें।
6. सभी सदस्यों के प्रति समान बर्ताव
परिवार के सभी सदस्यों पर समान मयान दिया जाता है। यदि एक भाई के पुत्र को 4000 रुपये मासिक आय के साथ एक खर्चीले कन्वेन्ट स्कूल में प्रवेश दिलाया जाता है तो दूसरे भाईयों के (कम मासिक आय वाले) पुत्रें को इन्हीं सुविधाओं के साथ अच्छे स्कूल में पढ़ाया जायेगा।
7. वरिष्ठता के सिमदान्त के आधार पर सत्ता-निर्धारण
परिवार में (स्त्री-पुरुषों, पुरुषों-पुरुषों, स्त्रियों-स्त्रियों के) बी के सम्बन्धों का निर्धारण वरीयता क्रम के अनुसार निर्धारित होता है। यद्यपि सबसे बड़ी आयु का पुरुष (या स्त्री) किसी दूसरे को सत्ता सौंप सकते हैं, लेकिन यह भी वरीयता के सिमदान्त पर ही होगा जिससे व्यक्तिवाद की भावना विकसित न हो सके।
संयुक्त परिवार के पतन के कारण
परिवार (sanyukt parivaar) में परिवर्तन किसी प्रभावों के एक समुच्चय (set of influences) से, नहीं आया है, और न यह सम्भव है कि इन कारकों में से किसी एक को प्राथमिकता दी जा सके। इस परिवर्तित होते हुए परिवार के लिए कई कारक उत्तरदायी है। मिल्टन सिंगर ने परिवार में परिवर्तन के लिए चार कारकों को उत्तरदायी माना है- आवासीय गतिशीलता, व्यावसायिक गतिशीलता, वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा और द्रव्यीकरण (monetization)।
इस लेखक ने भी ऐसे पांच कारकों को पहचान की है जिन्होंने परिवार को बहुत अधिक प्रभावित किया है। ये हैं-
- शिक्षा,
- नगरीकरण,
- औद्योगिकरण,
- विवाह संस्था में परिवर्तन (आयु के सन्दर्भ में)
- वैधानिक उपाय।
1. शिक्षा
शिक्षा ने परिवार को कई प्रकार से प्रभावित किया है। शिक्षा से न केवल व्यक्तियों की अभिवृतियों, विश्वास, मूल्य एवं आदर्श विचारधाराएं बदली हैं, बल्कि इसने व्यक्तिवादिता की भावना को भी उत्पन्न किया है। शिक्षा दर की वृद्धि स्त्री पुरुषों के ने केवल जीवन-दर्शन में परिवर्तन करती है, बल्कि स्त्रियों को रोजगार के नये आयाम भी उपलब्ध कराती है।
आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् स्त्रियां पारिवारिक मामलों में मताधिकार की मांग करती हैं और अपने पर किसी का भी प्रभुत्व स्वीकार करने से इन्कार करती हैं। यह दर्शाता है कि शिक्षा किस प्रकार पारिवारिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाती है जो कि बाद में संरचनात्मक परिवर्तन भी लाती है।
शिक्षा संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) को नहीं परन्तु एकाकी परिवार की पसन्द को बढ़ाती है। महिलाएं भी शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने पति, बच्चों व परिवार के प्रति भिन्न दृष्टिकोण अपना लेतीं हैं और अपनी रूढ़िवादी सास से संघर्ष में आकर पृथक घर में रहने की षिद करती हैं। यह सब परिवार के स्वरूप पर शिक्षा के प्रभाव को दर्शाता है। जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर उठता है, वैसे-वैसे एकाकी परिवार के पक्ष में प्रतिशत बढ़ता जाता है और संयुक्त परिवार में जीवन व्यतीत करने ;व्यवहार मेंद्ध के पक्षधर लोगों का प्रतिशत कम होता जाता है।
2. नगरीकरण
परिवार (sanyukt parivaar) को प्रभावित करने वाला एक अन्य कारक नगरीकरण भी है। गत कुछ दशकों में हमारे देश की शहरी जनसंख्या में तीव्र दर से वृद्धि हुई है। अठारवीं शताब्दी के मध्य में भारत की लगभग 10% जनसंख्या ही शहरों में रहती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में, 100 वर्षो के अन्तराल में भारत में शहरों की जनसंख्या में दस गुणा वृद्धि हुई।
नगरीय परिवार ग्रामीण परिवारों से न केवल संरचना में बल्कि विचारधारा में भी भिन्न होते हैं। शहरी क्षेत्रों में एकाकी परिवार, गैर-शहरी एकाकी परिवार से अपेक्षाछत छोटा होता है और शहर में रहने वाला व्यक्ति एकाकी परिवार का चयन अधिक रहता है।
उदाहरणार्थ, निर्णय लेने के मामले में ग्रामीण परिवारों के विपरीत नगरीय परिवारों में बच्चों से संबंधित निर्णय परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति ही नहीं परन्तु उनके माता-पिता लेते हैं। इसी प्रकार वे शहरी लोग जो माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त भाईयों के इकट्ठे रहने के विचार का समर्थन करते हैं, उनकी संख्या उसी विचार वाले ग्रामीण लोगों से कम है।
शहरी जीवन संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) के स्वरूप को कमजोर बनाता है तथा एकाकी परिवारों को दृढ़ बनाता है। नगरों में उच्च शिक्षा व नये व्यवसायों के चुनने के लिए अधिक अवसर होते हैं। वे लोग जो अपने परिवार के परम्परागत व्यवसाय को छोड़कर नये व्यवसाय अपनाते हैं अपने विचारों और अभिवृनियों में उन लोगों की अपेक्षा बड़ा परिवर्तन दर्शाते हैं जो अपने परम्परागत व्यवसाय को नहीं छोड़ते।
शहर में स्त्रियों को भी नौकरी के अधिक अवसर मिल जाते हैं और जब वे धन अर्जन करने लगती है तब वे कई क्षेत्रों में स्वतंत्रता चाहती हैं। वे अपने पति के जनक परिवार (family of orientation) से मुक्त होने की अधि क प्रयत्न करने लगती हैं। इस प्रकार नगर में रहने के कारण और समाज में परिवार के स्वरूप में एक भिन्नता दिखाई पड़ती हैं।
3. औद्योगिकरण
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तथा बीसवीं शताब्दी के प्रथम में भारत में औद्योगीकरण प्रारम्भ हो गया था। नये उद्योगों के चारों ओर शहरों का विकास हुआ। औद्योगीकरण से पूर्व हमारे पास यह व्यवस्था थी-
- कृषिक अमुद्राहीन अर्थव्यवस्था
- तकनीकी का वह स्तर जहां घरेलू इकाई आर्थिक विनिमय की इकाई भी थी,
- पिता-पुत्र व भाई-भाई के बीच व्यावसायिक भेद नहीं था,
- एक ऐसी मूल्य व्यवस्था थी जहां युक्तिसंगतता के मानदंड की अपेक्षा बुजुर्गो का सत्ता और परम्पराओं की पवित्रता दोनों को ही महत्व दिया जाता था।
लेकिन औद्योगीकरण ने हमारे समाज में सामान्य रूप से आर्थिक व सामाजिक-सांस्छतिक परिवर्तन तथा विशेष रूप से परिवार में परिवर्तन किया है।
आर्थिक क्षेत्र में इसके ये परिणाम हुए हैं-कार्य विशेषज्ञता, व्यावसायिक गतिशीलता, अर्थ व्यवस्था का द्रव्यीकरण तथा व्यावसायिक संरचनाओं व नातेदारी के बीच के सम्बन्धों का टूट जाना। जबकि सामाजिक क्षेत्र में इसका परिणाम हुआ है-ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में आगमन, शिक्षा का प्रसार और एक मजबूत राजनैतिक ढाचा।
पारिवारिक सम्बन्धों के स्वरूप पर औद्योगीकरण के प्रभाव को इस आधार पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि परिवार की आत्म-निर्भरता में कमी आई है और परिवार के प्रति दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आया है। औद्योगीकरण ने एक नई सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक व्यवस्थापन को जन्म दिया है जिसमें प्राधि कारवादी परिवारवादी संगठन (authoritarian familistic organisation) वाले पूर्व के संयुक्त परिवार (sanyukt parivaar) को बनाए रखना कठिन हो गया है।
4. विवाह व्यवस्था में परिवर्तन
हमारी परिवार व्यवस्था को विवाह की आयु में परिवर्तन, जीवन-साथी चुनाव की स्वतंत्रता तथा विवाह के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन ने भी प्रभावित किया है। जीवन-साथी के चुनाव की स्वतंत्रता ने अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया है जिससे पारिवारिक सम्बन्धों की संरचना प्रभावित हुई है।
इसी प्रकार जब विवाह धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं रहा है तथा वैवाहिक सम्बन्धों को विच्छेद की वैमाानिक स्वीकृति मिल चुकी है, पति के अधिकार की प्रतीक परिवार की सुसंगठित सत्ता कमजोर हो गई है।
5. वैधानिक उपाय
वैधानिक उपायों का भी परिवार के स्वरूप पर प्रभाव पड़ा है। बाल-विवाह निषेध तथा बाल-विवाह निवारक अधिनियम, 1929 के द्वारा कम से कम विवाह की आयु का निर्धारण एवं हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, ने शिक्षा की अवधि को बढ़ाया है और विवाह के बाद युगल (couple) के नयी परिस्थितियों में सामंजस्य को योगदान किया है।
जीवन-साथी के चुनाव की स्वतंत्रता, किसी भी जाति व धर्म में माता-पिता की सहमति बिना विवाह, जिसे विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अन्तर्गत अनुमति प्रदान की गयी है, विधवा विवाह अधिनियम, 1856 द्वारा विधवा पुनर्विवाह की अनुमति, हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार विवाह-विच्छेद की अनुमति, तथा हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पुत्रियों को माता-पिता की सम्पत्ति में हिस्सा इन सभी अधिनियमों ने न केवल अन्र्तव्यक्ति सम्बन्धों एवं परिवार संरचना को बल्कि संयुक्त परिवार की स्थिरता को भी प्रभावित किया है।
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