हड़प्पा की सभ्यता पाँच हज़ार वर्ष पुरानी है। कनिंघम इस सभ्यता को एक हज़ार वर्ष पुरानी मानते हैं। मार्शल ने पता लगाया कि हड़प्पा में मिलीं मुहरें, ठप्पे, लिखित लिपि और कलाकृतियाँ उनसे बिल्कुल भिन् न थीं जिनसे विद्वान पहले से परिचित थे और जो बहुत बाद के समय की थी।
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हड़प्पा की सभ्यता का युग
मोहनजोवड़ो में प्राचीन बस्तियाँ कुषाण युग से संबंधित बौद्ध बिहार के नीचे दबी हुई पाई गईं | इसलिए पुरातत्ववेत्ता जितनी गहरी खुदाई करता है, कालक्रम की दृष्टि से वह उतना ही पीछे पहुँच जाता है। इस प्रकार मार्शल यह पता लगा सका कि बौद्ध बिहार के नीचे जो मकान थे वे अवश्य ही कुषाणकाल से पहले के रहे होंगे। इसके बाद इस बात का भी प्रमाण मिल गया कि इन बस्तियों में रहने वाले लोग लोहे का प्रयोग करना नहीं जानते थे।
जब मार्शल ने अपनी खोजों द्वारा प्राप्त जानकारी को प्रकाशित किया तो कुछ अन्य लेखकों को मेसोपोटामिया में ऐसी वस्तुएँ मिलीं जो हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की वस्तुओं से मिलती-जुलती थीं।
मार्शल द्वारा प्रतिपादित हड़प्पा के कालक्रम को रेडियो कार्बन डेटिंग जैसे काल-निर्धारण के नए तरीकों, से और भी समर्थन मिला है। इसलिए विद्वानों ने हड़प्पा पूर्व (Pre Harappa) और हड़प्पा की संस्कृतियों के लिए निम्नलिखित कालक्रम माना है :
हड़प्पा पूर्व और हड़प्पा संस्कृति का कालानुक्रम
5500 बी.सी.ई. से 3500 बी.सी.ई. तक नवपाषाण युग
बलूचिस्तान और सिंधु के मैदानी भागों में मेहरगढ़ और किले गुलमुहम्मद जैसी बस्तियाँ उभरीं | यहाँ लोग पशु चराने के साथ-साथ थोड़ा बहुत खेती का काम भी करते थे। इस प्रकार स्थायी गाँवों का उद्भव हुआ | इस युग के लोग गेहूं, जौ, खजूर, तथा कपास की खेती की जानकारी रखते थे और भेड़ बकरियों और मवेशियों को पालते थे। साक्ष्य के रूप में मिट॒टी के मकान, मिट्टी के बर्तन और दस्तकारी की वस्तुएँ मिली हैं।
3500 बी.सी.ई. से 2600 बी.सी.ई. तक आरम्भिक हड़प्पा काल
इस काल में पहाड़ों और मैदानों में बहुत सी बस्तियाँ स्थापित हुईं। इसी समय गाँव सबसे अधिक संख्या में आबाद हुए | तांबा, चाक और हल का प्रयोग पाया गया। अन्न भण्डार, ऊँची-ऊँची दीवारें और सुदूर व्यापार के प्रमाण मिले हैं। सारी सिंधु घाटी में मिट्टी के बर्तनों की एकरूपता के प्रमाण मिलते हैं। इसके साथ-साथ पीपल, कुबड़े बैलों, शेषनागों, सींगदार देवता आदि के रूपाँकनों के प्रयोग के प्रमाण मिले हैं।
2600 बी.सी.ई. से 1800 बी.सी.ई. तक पूर्ण विकसित हड़प्पा युग
बड़े शहरों का अभ्युदय, समान आकार की इटें, तौलने के बाट, मुहरें, मनके और मिट्टी के बर्तन, नियोजित ढंग से बसे हुए शहर और दूर-दूर स्थानों के साथ व्यापार
1800 बी.सी.ई. से आगे उत्तर-हड़प्पा युग
हड़प्पा की सभ्यता के बहुत से शहर खाली हो गए, अंतर-क्षेत्रीय विनिमय में हास हुआ, लेखन कार्य और शहरी जीवन का त्याग कर दिया गया। हड़प्पा की सभ्यता के शिल्प और मिट्टी के बर्तनों की परम्परा जारी रही। पंजाब सतलुज-यमुना की ग्रामीण संस्कृतियों का विभाजन और गुजरात में हड़प्पा की शिल्प और मिट्टी के बर्तनों की परंपराओं को अपनाया जाना।
इसे हड़प्पा की सभ्यता क्यों कहा जाता है?
हड़प्पा की खोज के बाद से अब तक लगभग एक हजार बस्तियों की खोज की जा चुकी है जिनकी विशेषताएँ हड़प्पा से मिलती हैं। विद्वानों ने इसे “सिंधु घाटी की सभ्यता” का नाम दिया क्योंकि शुरू में बहुत सी बस्तियाँ सिंधु घाटी और उसकी सहायक नदियों के मैदानों में पाई गई थीं।
पुरातत्व-विज्ञान में यह परंपरा है कि जब किसी प्राचीन संस्कृति का वर्णन किया जाता है तो उस स्थान के आधुनिक नाम पर उस संस्कृति का नाम रखा जाता है, जहाँ से उसके अस्तित्व का पता चला है।
इसलिए पुरातत्ववेत्ता इसे “हड़प्पा की सभ्यता” कहते हैं। क्योंकि इसी स्थान पर इस विस्मृत सभ्यता का प्रमाण सबसे पहले मिला था।
पूर्ववर्ती इतिहास
यदि हम हड़प्पा की सभ्यता के उद्भव से रहने वाले लोगों द्वारा छोड़े गए अवशेषों का अध्ययन करते हैं तो हमें शहरों के उद्भव की जानकारी मिल सकती है। विद्वानों का विचार है कि मानवजाति के अतीत में एक ऐसा समय था जब शहरों का अस्तित्व नहीं था और लोग छोटे-छोटे गाँवों में रहते थे। ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनसे पता चलता है कि हड़प्पावासियों के पूर्वज गाँवों और छोटे- छोटे कस्बों में रहा करते थे। उनमें से घूम फिरकर पशु चराने का काम करते थे और कुछ व्यापार के कार्य में लगे हुए थे।
कृषि की शुरुआत और बसे हुए गाँव
कृषक समुदायों के उद्भव का सबसे प्राचीन प्रमाण मेहरगढ़ नामक स्थान से मिलता है जो पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में बोलन दर्रे के निकट स्थित है। यह स्थान अस्थायी शिविर के रूप में स्थापित हुआ तथा पाँचवीं सहत्त्राब्दी बी.सी.ई. में आबाद गाँव बन गया। इस स्थान पर लोग गेहूं, जौँ, कपास और खजूर पैदा करते थे और भेड़-बकरियों और मवेशी पालते थे। मेहरगढ़ उस स्थान पर स्थित है जहाँ सिंधु नदी के कछारी मैदान और भारत-ईरान सीमांत प्रदेश के ऊँचे-नीचे पहाड़ी पठार मिलते हैं। मेहरगढ़ के लोग कच्चे मकानों में रहते थे।
तीसरी सहस्त्राब्दी बी.सी.ई. के मध्य में बहुत से छोटे और बड़े गाँव सिंधु नदी के आस-पास बलूचिस्तान और अफगानिस्तान के क्षेत्र में बस गए थे। सिंधु नदी के बाढ़ वाले मैदानों में हड़प्पा के पास जलीलपुर जैसे गाँव बस गए थे। इन किसानों ने सिंधु नदी के अत्यधिक उपजाऊ मैदानों का उपयोग करना सीख लिया था, इसलिए गाँवों के आकार और उनकी संख्या एकाएक बढ़ गई | इन किसानों ने सिंधु नदी के मैदानों का धीरे-धीरे उपयोग करना और सिंधु नदी के बाढ़ पर नियंत्रण करना सीख लिया था। इस प्रकार प्रति एकड़ भूमि पर खेती करने से प्रचुर मात्रा में उपज होती थी। इस कारण सिंधु, राजस्थान, बलूचिस्तान और अन्य क्षेत्रों में भी बस्तियों का काफी विस्तार हुआ।
इस काल में अस्थायी बस्तियों में पशुचारी खानाबदोश समुदायों के संपर्क ने कृषकों को अन्य क्षेत्रों के संसाधनों का उपयोग करने में सहायता दी क्योंकि पशुचारी खानाबदोशों के बारे में यह माना जाता है कि जिन क्षेत्रों से वे गुजरते हैं वे वहाँ व्यापारिक गतिविधियों में लग जाते हैं। इन सभी कारणों में छोटे-छोटे कस्बों का विकास हुआ। सिंधु नदी के आस-पास के क्षेत्रों की सभ्यता में पाई गई कुछ समानताओं के कारण इस नए विकास के काल को “आरम्भिक हड़प्पा काल” कहते हैं।
हड़प्पा की सभ्यता का अभ्युदय
प्रौद्योगिकीय और वैचारिक एकीकरण की इन प्रक्रियाओं की पृष्ठभूमि में हड़प्पा की सभ्यता का अभ्युदय हुआ। इस सभ्यता की उत्पत्ति से संबंधित प्रक्रियाएँ अस्पष्ट हैं क्योंकि उनकी लिपि का अध्ययन नहीं किया गया है और अनेक बस्तियों की खुदाई की जाने की जरूरत है|
उन्नत और सिंधु घाटी के उर्वर मैदानों में खेती करने तथा उन्नत प्रौद्योगिकी के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी हुई होगी। इससे अधिकांश खाद्यान्न की संभावनाएँ पैदा हुई | इसके कारण जनसंख्या में भी वृद्धि हुई । इसके साथ-साथ समाज के धनी वर्ग बहुमूल्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दूर- दराज के समुदायों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करते थे। अधिकांश खाद्यान्नों से गैर- कृषि कार्य करने के अवसर मिले | इसी प्रकार की प्रक्रियाएँ धातु-कर्मियों, कुम्हारों और शिल्पियों के संबंध में सामने आईं।
कृषक समुदाय में अधिक उपजाऊ भूमि को हथियाने के लिए संघर्ष होता था। संभवत: यही कारण है कि कुछ समुदायों ने अपने चारों ओर सुरक्षा के लिए दीवार बना ली थी। गाँवों में अनाज रखने के चबूतरे बड़े-बड़े कोठारों में बदल गए।
हड़प्पा सभ्यता एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में फैली हुई थी। इस कारण विकसित हड़प्पा काल के आरंभ होने की कोई एक तिथि
नहीं हो सकती थी। यह संभव है कि विकास के केंद्र के रूप में इस शहर का कई सौ वर्षों की समयावधि में अभ्युदय हुआ होगा। परंतु यह शहर अस्तित्व में आया और यही कारण है कि इस शहर के अगले सात-आठ सौ वर्षों के लिए पूरे उत्तर-पश्चिम क्षेत्र का प्रभुत्व रहा |
हड़प्पा के महत्त्वपूर्ण केंद्र
हड़प्पा के लोगों ने अफगानिस्तान में शार्तुघई या गुजरात में सुरकोटड़ा जैसे दूरवर्ती स्थानों को अपने कब्जे में लाने की कोशिश क्यों की? इस सवाल का जवाब हमें मिल सकता है यदि हम कुछ महत्त्वपूर्ण केंद्रों की भौगोलिक स्थिति और विशेषताओं से संबंधित विवरण की जांच करें |
हड़प्पा
हड़प्पा पहली बस्ती थी, जहाँ खुदाई की गई |सन् 1920 से दयाराम साहनी, एम.एस. वत्स और मॉर्टिमर व्हीलर जैसे पुरातत्वविदों ने हड़प्पा में खुदाई का कार्य किया | यह बस्ती पश्चिमी पंजाब में रावी के तट पर स्थित है। इस नगर के अवशेष लगभग 3 मील के घेरे में फैले हुए हैं।
हड़प्पा में जनसंख्या का एक बड़ा भाग खाद्य उत्पादन से भिन्न क्रिया कलापों में लगा हुआ था। ये क्रियाकलाप प्रशासन, व्यापार, कारीगरी या धर्म से संबंधित रहे होंगे। चूंकि ये लोग अपने लिए अन्न का उत्पादन नहीं कर रहे थे, इसलिए किसी दूसरे को उनके लिए यह कार्य करना पड़ता था।उत्पादकता कम थी और परिवहन के साधन अविकसित थे |
हड़प्पा की भौगोलिक स्थिति का सबसे अलग-अलग होने का कारण यही बताया जा सकता है कि यह कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण व्यापार मार्गों के मध्य स्थित था, जो आज तक प्रयोग में है। इन मार्गों ने हड़प्पा को मध्य एशिया, अफगानिस्तान और जम्मू से जोड़ा | हड़प्पा की स्थिति इसलिए उत्कृष्ट मानी जाती थी क्योंकि यहाँ दूर-दूर से आकर्षक वस्तुएँ लाई जाती थीं।
मोहनजोदड़ो
सिन्धु नदी के तट पर बसे सिंध प्रांत के लरकाना जिले में स्थित मोहनजोदड़ो को हड़प्पा- सभ्यता की सबसे बड़ी बस्ती माना जाता है। इस सभ्यता की नगर-योजना, गृह-निर्माण, मुद्रा, मुहरों आदि के बारे में अधिकांश जानकारी मोहनजोदड़ो से प्राप्त होती है। इस जगह खुदाई का काम 4922 में, आर.डी. बेनर्जी और सर जॉन मार्शल की देख-रेख में शुरू किया गया। बाद में मैके और जार्ज डेल्स ने भी खुदाई की।
खुदाई से पता चलता है कि लोग वहाँ बड़े लम्बे समय तक रहे और एक ही जगह पर मकानों का निर्माण तथा पुनर्निर्माण करते रहे | मोहनजोदड़ो में बसावट के समय से बराबर बाढ़ आती रही | बाढ़ की वजह से जलोड़ मिट॒टी इकट्ठी हो गई | परिणामस्वरुप मोहनजोदड़ो के आस-पास की भूमि की सतह लगभग तीस फुट ऊँची हो गई। भू-जल तालिका का स्तर भी उसके अनुरूप बढ़ता चला गया है। अतः मोहनजोदड़ो में सबसे पुरानी इमारतें आजकल के मैदानी स्तर से लगभग 39 फुट नीचे पाई गई है |
कालीबंगन
कालीबंगन की बस्ती राजस्थान में घग्घर नदी के सूखे तल के आस-पास स्थित है। कालीबंगन की खुदाई 4960 के दशक में बी.के. थापर के निर्देशन में की गई थी। इस स्थान से पूर्व हड़प्पा और हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों की मौजूदगी के प्रमाण मिले हैं।
कुछ विद्वानों का मत है कि कालीबंगन हड़प्पा-सभ्यता के “पूर्वी अधिकार क्षेत्र” का हिस्सा रहा होगा। यहाँ हड़प्पा काल के मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ कुछ ऐसे प्रमाण भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि मिट्टी के बर्तन बनाने में इन बस्तियों की अपनी अलग स्थानीय परंपराएँ भी मौजूद थीं।
लोथल
गुजरात में रंगपुर, सुरकोटड़ा और लोथल जैसी बस्तियाँ पाई गई हैं। लोथल काम्बे की बाड़ी के तट से लगे सपाट क्षेत्र में स्थित है। ऐसा लगता है कि यह स्थान समकालीन पश्चिम एशियाई समाजों के साथ समुद्री व्यापार के लिए सीमा-चौकी के रूप में महत्त्वपूर्ण रहा होगा । इसके उत्खनक, एस.आर. राव ने वहाँ एक जहाजी पोतगाह की खोज का दावा किया है।
सुत्कागन-दोर
सुत्कागन दोर पाकिस्तान-ईरान सीमा से लगे मकरान समुद्रतट के समीप स्थित है। आजकल यह बस्ती सूखे बंजर मैदानों के बीच स्थित है। इस शहर में एक किला था जिसके चारों ओर रक्षा के लिए पत्थर की दीवार थी | बंजर भूमि में इसके स्थित होने का कारण यही हो सकता है कि यहाँ एक बन्दरगाह था जिसकी व्यापार के लिए आवश्यकता थी।
हड़प्पा की सभ्यता की भौतिक विशेषताएँ
इसमें हड़प्पा-सभ्यता की नगर-योजना, मिट्टी के बर्तन, औज़ार और उपकरण, कला एवं दस्तकारी, लिपि और जीविका के स्वरूप पर विचार किया जाएगा।
नगर-योजना
मॉर्टिमर व्हीलर और स्टूआर्ट पिगोट जैसे पुरातत्वविदों का मत था कि हड़प्पा-सभ्यता के नगरों की संरचना और बनावट में असाधारण प्रकार की एकरूपता थी प्रत्येक नगर दो भागों में बंटा होता था। एक भाग में ऊँचा दुर्ग होता था जिसमें शासक और राजघराने के लोग रहते थे। नगर के दूसरे भाग में शासित और गरीब लोग रहते थे। इन नगरों की योजना ऐसी की गई थी जिसमें कि वहाँ के मूल निवासियों को शासकवर्ग से अलग रखा जा सके। इस तरह, शासकों ने ऐसे किलों का निर्माण किया जिनमें वे आम जनता से अलग-थलग, शान से रह सकें।
हड़प्पा सभ्यता के शहर नदियों के बाढ़ वाले मैदानों, रेगिस्तान के किनारों पर या समुद्री तट पर स्थित थे | इसका मतलब है कि अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को तरह-तरह की प्राकृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगन बस्तियों की नगर-योजना में कुछ समानताएँ हैं। ये शहर दो भागों में विभाजित थे। इन शहरों के पश्चिम में किला बना होता था और बस्ती के पूर्वी सिरे पर नीचे एक नगर बसा होता था। निचले शहर में रिहायशी क्षेत्र होते थे। यह दुर्ग या किला ऊँचे चबूतरे पर, कच्ची ईटों से बनाया जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्ग में बड़े-बड़े भवन होते थे जो संभवतः प्रशासनिक या धार्मिक केंद्रों के रूप में काम करते थे। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में किलों के चारों ओर ईंटों की दीवार होती थी। कालीबंगन में, दुर्ग और निचले शहर दोनों के चारों ओर दीवार थी, निचले शहर में सड़कें उत्तर से दक्षिण की ओर जाती थीं और समकोण बनाती थीं।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भवनों और इमारतों के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया | कालीबंगन में कच्ची ईंटें प्रयोग में लाई गईं | सिंध में कोट-दीजी और आमरी जैसी बस्तियों में नगर की किलेबंदी नहीं थी | गुजरात में स्थित लोथल का नक्शा भी बिल्कुल अलग सा है। यह बस्ती आयताकार थी जिसके चारों तरफ ईंट की दीवार का घेरा था | इसका कोई आंतरिक विभाजन नहीं था, अर्थात् इसे दुर्ग और निचले शहर में विभाजित नहीं किया गया था। शहर के पूर्वी सिरे में ईंटों से निर्मित कुण्ड सा पाया गया, जिसे इसकी खुदाई करने वालों ने बन्दरगाहों के रूप में पहचाना है।
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगन में किले के क्षेत्रों में बड़ी विशाल इमारतें थीं जिनका प्रयोग विशेष कार्यों के लिए किया जाता होगा। इनमें से एक इमारत, मोहनजोदड़ो का प्रसिद्ध “विशाल स्नान कुण्ड” है। विद्वानों का मत है कि इस स्थान का उपयोग राजाओं, या पुजारियों के धार्मिक स्थान के लिए किया जाता था।
हड़प्पा की प्रसिद्ध इमारतों में से एक विशाल अन्नभण्डार’ है। इसमें एक क्रम में ईंटों के चबूतरे बने हुए थे जो अन्नभण्डारों के लिए नींव का काम देते थे। इन पर बने अन्न भण्डारों की दो कतारें थीं और प्रत्येक कतार में छः अन्नभण्डार थे| अन्न भण्डार के दक्षिण में ईंटों के गोल चबूतरों की कई कतारें थीं। फर्श की दरारों में पाया गया गेहूं और जौ का भूसा यह सिद्ध करता है कि इन गोल चबूतरों का इस्तेमाल अनाज गाहने (अनाज से भूसी अलग करने) के लिए किया जाता है।
मिट्टी के बर्तन
हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में पाए गए अवशेषों में मिट्टी के बर्तन विशेष स्थान रखते हैं। हड़प्पा की सभ्यता के मिट्टी के बर्तनों में से अधिकांश बिल्कुल सादे हैं, लेकिन काफी बर्तनों पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग से की गई चित्रकारी भी पाई गई है। रंग से की गई चित्रकारी में विविध मोटाई की सपाट लाइनें, पत्तियों के नमूने, तराजू, चारखाने, जाली का काम, ताड़ और पीपल वृक्ष शामिल है| पक्षियों, मछलियों और पशुओं को भी दर्शाया गया है। मिट्टी के कुछ बर्तनों पर मुद्रा के निशान पाए जाने से संकेत मिलता है कि कुछ खास किस्म के बर्तनों का व्यापार भी किया जाता था।
औजार और उपकरण
हड़प्पा-सभ्यता के निवासियों द्वारा इस्तेमाल किए गए औज़ारों और उपकरणों के आकारप्रकार तथा उत्पादन की तकनीक में भी आश्चर्यजनक एकरूपता दिखाई पड़ती है। वे तांबा, कांसा और पत्थर के बने औज़ार का प्रयोग करते थे उनके मूल औज़ार तांबे तथा कांसे के थे। इनमें चपटी कुल्हाड़ी, छैनी, चाकू हरावल और वाणाग्र मुख्य रूप से पाए जाते हैं। सभ्यता के आगे के चरणों में वे छुरे, चाकू और चपटे तथा तीखी नोक वाले औज़ारों का भी प्रयोग करने लगे थे।
“प्रारम्भिक-हड़प्पा” काल में औज़ार बनाने की परम्पराओं में विविधता थी, लेकिन बाद में हुई प्रगति के युग में हड़प्पा-सभ्यता के निवासियों ने लम्बे, पैनी धार वाले, सुव्यवस्थित औज़ारों का ही निर्माण किया जो उनकी उच्चस्तरीय क्षमता और विशिष्टता का संकेत देते हैं।
कला और शिल्प
कलाकृतियाँ हमें यह भी बताती हैं कि समाज, प्रकृति, मानव और ईश्वर के प्रति क्या विचार रखता है। पूर्व आधुनिक समाजों के अध्ययन में कला और शिल्प को अलग करना कठिन काम है। हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों से पक्की मिट्टी की लघु मूर्तियाँ बड़ी संख्या में पाई गई हैं।मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाई गई हड़प्पा-सभ्यता की संभवत: सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है नृत्य की मुद्रा में नग्न स्त्री की एक कांस्यमूर्ति |मोहनजोदड़ों में पाई गई दाढ़ी वाले सिर की प्रस्तर प्रतिमा भी बड़ी प्रसिद्ध कलाकृति है। चेहरे पर दाढ़ी है परन्तु मूंछ नहीं है। अर्ध-मुदित आंखें शायद विचारमग्न मुद्रा को दर्शाती है।
“’हड़प्पा-सभ्यता के लोग गोमेद, फीरोजा, लाल-पत्थर और सेलखंड़ी जैसे बहुमूल्य एवं अर्थ-कीमती पत्थरों से बने अति सुन्दर मनकों का प्रयोग करते थे। इन मनकों को बनाए जाने की प्रक्रिया चन्हूदारों में एक कारखाने के पाए जाने से स्पष्ट हो जाती
है। हड़प्पा की बस्तियों से 2000 से अधिक मुहरें पाई गई हैं। इन्हें ग्रामीण शिल्पकारिता के क्षेत्र में सिन्धु घाटी का उत्कृष्ट योगदान माना जाता है। मुहरों का प्रयोग बड़े शहरों के बीच माल के विनिमय के लिए भी किया जाता होगा।
मुहरों पर चित्रलिपि में संकेत चिन्हों से सम्बद्ध अनेक तरह के जानवरों के आकारबने होते थे। कुछ मुहरों पर केवल लिपि उत्कीर्ण है जबकि कुछ अन्य पर मानव और अर्ध-मानव आकृतियाँ बनी हुई हैं। कुछ मुहरों पर ज्यामिति से संबंधित विभिन्न नमूने बने हुए हैं। दर्शाई गई पशु आकृतियों में भारतीय हाथी, गवल (बिश) ब्राह्मनी सांड, गैंडा और बाघ प्रमुख हैं। पशुओं से घिरे और योग की मुद्रा में बैठे सींगयुक्त देवता को दर्शाने वाली मुहर को भगवान् पशुपति से संबंधित माना गया है।
सिन्धु-लिपि
हड़प्पा-सभ्यता के लोगों द्वारा प्रयोग की गई मुहरों पर लिखावट होती थी। यह लिपि अभी तक पढ़ी न जा सकने के कारण रहस्य बनी हुई है। प्राचीन मिश्र की लिपियों जैसे अन्य विस्मृत लिपियों को दुबारा पढ़ना इसलिए संभव हो सका क्योंकि विस्मृत लिपि में लिखित कुछ लेख बाद में एक परिचित लिपि में पाए गए हैं। हड़प्पा में कोई द्विभाषिक लेख अभी तक नहीं मिले हैं। हड़प्पा निवासी चित्राक्षरों का प्रयोग करते थे और दाईं से बाई ओर लिखते थे।

किन्तु, विद्वान अभी भी इस लिपि के रहस्य को खोलने की कोशिश में लगे हुए हैं। इस कार्य में सफलता मिलने पर हड़प्पा की सभ्यता के बारे में और भी जानकी प्राप्त होगी।
जीवन-यापन का स्वरूप
हड़प्पा सभ्यता की शहरी आबादी कृषि उत्पादन पर निर्भर करती थी। भेड़ और बकरी के अलावा, कूबड़दार मवेशियों को भी पाला जाता था। बहुत सी बस्तियों में सूअर, भेंस, हाथी और ऊँट की हडिडियाँ भी पाई गई हैं| अभी तक यह निश्चित नहीं है कि ये जानवर पाले जाते थे या उनका शिकार किया जाता था| फिर भी, कुछ मुहरों पर एक सुसज्जित हाथी के चित्र में यह संकेत मिलता है कि इस जानवर को पालतू बना लिया गया था।
हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में गेहूँ की दो किसमें अधिक पाई गई हैं। जाँ काफी बार पायी गई है| अन्य फसलों में खजूर और फलदार पौधों की किसमें शामिल हैं, जैसे कि मटर | उनके अलावा इस काल में सरसों और तिल की फसल भी होती थी। मोहनजोदड़ों में सूती कपड़े का एक टुकड़ा पाया गया है जिससे पता चलता है कि हड़प्पा-सभ्यता के लोग कपास की खेती करने और कपड़े बनाने पहनने की कला में निपुण हो चुके थे।
कालीबंगन में खांचेदार खेत के प्रमाण मिले हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि हड़प्पा-सभ्यता के लोग लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। इस क्षेत्र में अभी भी एक दिशा में काफी दूर-दूर और एक दिशा में बहुत पास-पास आड़े-तिरछे खांचे बनाने की पद्धति प्रचलित है। इस तरह, यह पाया गया है कि हड़प्पा-युग के जीवन-निर्वाह की व्यवस्था अनेक प्रकार की फसलों, पालतू पशुओं और जंगली जानवरों पर निर्भर करती थी। इस विविधता के कारण ही जीवन-निर्वाह व्यवस्था मजबूत बनी हुई थी। वे प्रति वर्ष एक साथ दो फसलें उगा रहे थे।
हड़प्पा की सभ्यता का व्यापार तंत्रों की स्थापना
यह माना जाता है कि पूर्व शहरी समाज में विभिन्न क्षेत्रों के बीच सक्रिय लेन-देन नहीं था। ये लोग प्रशासनिक, व्यापार और विनिर्माणी कार्य करते हैं। साथ ही यदि वे स्वयं खाद्यान्न उत्पादन नहीं करते हैं तो वह काम दूसरे को उनके लिए करना पड़ता है। यही कारण है कि नगर, खाद्यान्न आपूर्ति के लिए आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र पर निर्भर हैं।
हड़प्पा समाज में इस सम्पत्ति का नियंत्रण शहरी समाज के सबसे अधिक प्रभावशाली लोगों के हाथ में था। साथ ही शहर के धनी और प्रभावशाली लोग आरामदायक जीवन बिताते थे| उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा उनके द्वारा बनाए गए भवनों और उनके द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली भोग विलास की वस्तुओं के अधिग्रहण से प्रतिबिम्बित होती है जो स्थानीय रूप से अनुपलब्ध थीं।
कच्चे माल के स्रोत
हड़प्पा-सभ्यता की विभिन्न बस्तियों की खुदाई द्वारा बहुत संख्या में चूड़ियाँ, मनके, मिट्टी के बर्तन और विभिन्न प्रकार के तांबे, कांसे और पत्थर की वस्तुयें पाई गई हैं। वे अनेक प्रकार की धातुओं और बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग करते थे जो प्रत्येक क्षेत्र में समान रूप से उपलब्ध नहीं थे |अब प्रश्न यह उठता है कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले खनिज पदार्थ और धातुओं के क्या स्रोत थे?
- हड़प्पावासी उस क्षेत्र से तांबे के औज़ारों का आयात करते थे जहाँ के लोग चरवाहे और शिकारी के रूप में जीवन यापन करते थे।
- हड़प्पा-सभ्यता के लोग तांबा बलूचिस्तान और उत्तरी पश्चिमी सीमांत से प्राप्त करते थे।
- सोना सम्भवतया कर्नाटक के कोलार क्षेत्र और कश्मीर से प्राप्त किया जाता था।
- चांदी शायद अफगानिस्तान और ईरान से आयात किया जाती होगी |
- सीसा शायद कश्मीर या राजस्थान से प्राप्त किया जाता होगा।
- समुद्री सीपियाँ जो हड़प्पावासियों में बहुत लोकप्रिय थीं गुजरात के समुद्र तट और पश्चिमी भारत से प्राप्त की जाती थीं |
- अच्छी किस्म की लकड़ी अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों से प्राप्त होती थी और मध्य सिंधू घाटी में नदियों द्वारा पहुँचाई जाती थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि व्यापार विनिमय व्यापारियों का आपसी मामला न होकर एक प्रशासनिक कार्यकलाप था क्योंकि लगभग 500 किलोमीटर के क्षेत्र में उपनिवेश स्थापित करना किसी व्यापारी के लिए सम्भव नहीं था। हड़प्पा काल के प्रशासक दूरस्थ प्रदेशों के संसाधनों को नियंत्रित करना चाहते थे।
विनिमय व्यवस्था
हड़प्पा-सभ्यता के लोगों में भारतीय उपमहाद्वीप के भीतर और बाहर अंतर्क्षत्रीय व्यापार का एक बृहद तंत्र स्थापित किया था|हड़प्पा-सभ्यता के लोगों की विनिमय प्रणाली के बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।
हड़प्पाकालीन नगरों के बीच विनिमय पद्धति
हड़प्पा-सभ्यता के लोगों ने आपसी व्यापार और विनिमय को नियंत्रित करने के प्रयास किए। दूर फैली हुई हड़प्पा कालीन बस्तियों में भी नाव और तौल की व्यवस्थाओं में समरूपता थी | नाप और तौल की समरूप व्यवस्था केंद्रीय प्रशासन द्वारा हड़प्पा-सभ्यता के लोगों में आपसी तथा अन्य लोगों के साथ विनिमय को व्यवस्थित करने के प्रयास की ओर इशारा करती है।
हड़प्पा-सभ्यता की बस्तियों में काफी संख्या में मुहरें और मुद्रांकण पाए गए हैं। ये मुहरें और मुद्रांकण दूरस्थ स्थानों को भेजे जाने वाले उत्पादों के उच्च स्तर और स्वामित्व की ओर संकेत करते हैं। इनका प्रयोग व्यापारिक गतिवधियों में होता था।
परिवहन के साधन
बैलगाड़ी अंतर्देशीय परिवहन का साधन थी। हड़प्पाकालीन बस्तियों से मिट्टी के बने बैलगाड़ी के अनेक नमूने पाए गए हैं। जंगलों वाले क्षेत्र में लम्बे सफर के लिए भारवाही बैलों के काफिले परिवहन का मुख्य साधन रहे होंगे। ऐतिहासिक काल में खानाबदोश चरवाहे सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान भेजते थे। सम्भवतया हड़प्पा-सभ्यता के लोग भी ऐसा ही करते होंगे। उस समय नौ परिवहन अधिक प्रचलित सुलभ तथा सस्ता था।
हड़प्पा-सभ्यता के समाज
हम इस समाज के लोगों की वेश-भूषा और खान-पान, व्यापार, शिल्प कलायें तथा विभिन्न सामाजिक समूहों के प्रति जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
वेश-भूषा
कंकालों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि हड़प्पा के लोग वर्तमान उत्तर भारत के निवासियों जैसे दिखते थे। उनके चेहरे, रंग रूप एवं लम्बाई में इन क्षेत्रों के वर्तमान निवासियों से काफी कुछ समानता दिखती है।हम उनके पहनावे एवं फैशनों का अनुमान उस काल की शिल्प कला तथा पक्की मिट्टी की बनी मूर्तियों के अध्ययन से लगा सकते हैं।
पुरुषों को बहुधा ऐसे पहनावे में दिखाया गया है जिससे उनके शरीर का निचला भाग लपेटा रहता था तथा वस्त्र का एक सिरा बायें कन्धे से लेकर दायें बाजू के नीचे पहुँच जाता था, जिस प्रकार आधुनिक साड़ी पहनी जाती है। दूसरी पोशाक एक घुटने तक घाघरा और कमीज थी जो पुरुषों और महिलाओं दोनों के द्वारा पहनी जाती थी | पुरुष अपने बाल विभिन्न तरीकों से बनाते थे, कभी- कभी जूड़ा बनाकर माथे पर पटूटी बांधते थे। आधुनिक भारतीयों की अपेक्षा वे कहीं अधिक गहनों का प्रयोग करते थे। वे अंगूठियाँ पहनते थे, कंगन पहनते थे तथा गले और हाथों में काफी गहने पहनते थे। दाढ़ी रखना सामान्य था लेकिन वे अपनी मूंछे मुंडवा लेते थे।
महिलायें कमर में गहने पहनती थीं। गले में वे कई प्रकार के हार पहनती थीं, चूड़ियों का भी प्रयोग होता था तथा बाल काढ़ने के असंख्य तरीके थे। पुरुष और महिलायें दोनों ही लंबे बाल रखते थे वे सूती कपड़े पहनते थे तथा एक मूर्ति में वस्त्र लाल रंगों में त्रिदल पद्धति में दिखाया गया है|
खान-पान
वे तेल और चबी, तिल, सरसों तथा संभवतः घी से प्राप्त करते थे | वे अपने खाने को मीठा बनाने के लिए शहद का उपयोग करते हों। हड़प्पा स्थलों से मिलने वाले उन्नाव और खजूर के बीजों से यहाँ के लोगों की फल के प्रति प्राथमिकता का पता चलता है। संभवत: वे केले, अनार, खरबूजा, नींबू, अंजीर तथा आम भी खाते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि वे विभिन्न प्रकार के जंगली फलों का भी सेवन करते थे लेकिन उन फलों की पहचान करना अत्यंत कठिन है। वे मटर भी खाते थे| इसके अतिरिक्त हड़प्पा निवासी मांसाहारी भोजन भी शौक से खाते थे। हड़प्पा बस्तियों के अवशेषों में हिरन, भालू, भेड़ तथा बकरियों की हड्डियाँ मिलती रही हैं। वे मछली, दूध तथा दही का भी सेवन करते रहे होंगे।
भाषा एवं लिपि
हड़प्पा की लिपि के संदर्भ में एक बात स्पष्ट नजर आती है कि पूरी हड़प्पा-सभ्यता के काल में इस लिपि में कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं जबकि अन्य सभी प्राचीन लिपियों में समय के साथ-साथ परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। इससे ये सिद्ध होता है कि हड़प्पा की लिपि का उपयोग विस्तृत नहीं था। कुछ विद्वानों का मत है कि वहाँ लिखी जाने वाली भाषा द्रविड़ भाषा समूहों (जैसे तमिल) की जननी थी | अन्य विद्वान इसे किसी आर्य भाषा (जैसे संस्कृत) की जननी मानते हैं।
युद्ध
हड़प्पा- सभ्यता के उद्भव के समय कई “आरंभिक हड़प्पा’ स्थल (जैसे कोट दीजी तथा कालीबंगन) जला दिये गये थे। दुर्घटनापूर्ण अग्नि से बड़े नगरों का ध्वस्त हो जाना असंभव तो नहीं है। लेकिन इस बात की प्रबल संभावना है कि ये बस्तियाँ विजयी मानवीय समूहों द्वारा जलायी गयी होंगी। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो की गलियों में कंकालों के बिखरे पाये जाने के भी प्रमाण मिलते हैं।
हड़प्पा के कई नगरों के चारों ओर किलेबंदी और दुर्ग बने होने से इस तथ्य की ओर संकेत मिलता है कि इन लोगों को बाहय तत्वों से सुरक्षा की आवश्यकता प्रतीत होती थी। कुछ सुरक्षा दीवारों का उपयोग बाढ़ से बचने के लिए बांध के रूप में भी हुआ होगा।
हड़प्पा नगरों के आस-पास की ग्रामीण जनता की तुलना में नगरवासियों की संपन्नता को देखते हुए इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी बस्तियों की किलेबंदी करके अपने जानमाल की सुरक्षा करना चाहते थे। यहाँ से तांबे एवं कांसे के काफी हथियार भी प्राप्त हुए हैं।
मुख्य शिल्प व्यवसाय
समाजों के अधिकतर लोग कृषि से जुड़े हुए थे, मालाएँ बनाना हड़प्पा के निवासियों का मन पसंद व्यवसाय था। मोहनजोदड़ो चंहुदड़ो तथा लोथल बस्तियों की काफी बड़ी संख्या में हड़प्पावासी इस कार्य से जुड़े हुए थे। चूंकि मालाएँ बनाने में अकीम, लाजवर्द, सुलेमानी पत्थर तथा नीलम जैसे बहुमूल्य रत्नों का प्रयोग होता था अत: संभव है कि प्रत्येक रत्न के माला बनाने के लिए भिन्न दक्ष कारीगर होते हों।
कुछ अन्य हड़प्पावासी पत्थर के औज़ार में दक्ष थे | इनके अतिरिक्त हड़प्पा नगरों में कुम्हारों, कांसे एवं तांबे के कार्य करने वालों, पत्थर के काम करने वालों, घर बनाने वालों, ईंट बनाने वालों तथा मुहरें काटने वाले होने की पूरी संभावना है।
हड़प्पा के शासक
हड़प्पा समाज के शीर्ष पर तीन प्रकार के लोगों की अदृश्य श्रेणियाँ थीं – शासक, व्यापारी तथा पुरोहित। सामाजिक संगठन की समस्याओं की समझ के आधार पर इन श्रेणियों की कल्पना की जा सकती है। सभ्यता के उदय का संबंध सीधे-सीधे केंद्रीकृत निर्णय प्रणाली के अभ्युदय से है, जिसे राज्य कहा जाता है। हड़प्पा-सभ्यता के अन्तर्गत स्थानीय शासन चलाने के लिए निर्णय लेने के अधिकार रखने वालों के अस्तित्व की प्रबल संभावना है। इसके कई कारण हैं।
- व्यापक स्तर पर नीतियों की व्यवस्था तथा सड़कें बनाने एवं व्यवस्थित रखने के लिए शहरों में स्थानीय प्रशासन की आवश्यकता रही होगी।
- आस-पास से अनाज इकट्ठा करके नागरिकों के बीच बॉटने के लिए प्रशासन अवश्य रहा होगा।
- कुछ हथियार तथा औज़ार किसी एक स्थान पर बड़े पैमाने पर बनाए जाते और विभिन्न नगरों एवं बस्तियों में वितरित किए जाते थे।
- बड़े नगरों के निवासियों द्वारा उत्पादनों के प्रकार एवं मात्रा के उपभोग की दर से संकेत मिलता है कि वहाँ कोई शासक वर्ग रहता होगा |
हड़प्पा के शासक कौन थे, संभव है वे राजा रहे हों अथवा पुरोहित अथवा व्यापारी| हम जानते हैं कि पूर्व आधुनिक समाजों में आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक इकाइयों में स्पष्ट रूप से भेद नहीं किया जाता था जिसका अर्थ यह है कि एक ही व्यक्ति प्रधान पुरोहित भी हो सकता था, राजा भी हो सकता था और धनी व्यापारी भी, लेकिन उपलब्ध प्रमाणों से संकेत मिलता है कि यहाँ शासक वर्ग अवश्य मौजूद था तथापि इस शासक वर्ग के स्पष्ट रूप से हम अवगत नहीं हैं।
धर्म एवं धार्मिक रीतियाँ
हड़प्पा के लोग के धार्मिक मान्यताओं को समझने के लिए हमें केवल अपनी बुद्धि और तर्क पर निर्भर होना पड़ेगा।
पूजा-स्थल
मोहनजोदड़ो के किलेबंद नगर तथा निचले नगर की कई बड़ी इमारतें मन्दिरों के रूप में देखी गयी हैं। इस दृष्टिकोण से इस तथ्य को और भी बल मिलता है कि अधिकतर पत्थर की मूर्तियाँ इन्हीं इमारतों में मिली हैं।
आराध्य
आराध्य अथवा पूज्य वस्तुओं के विषय में प्रमाण हड़प्पा की मुहरों एवं पकी मिट्टी की मूर्तियों से प्राप्त होते हैं, मुहरों से मिलने वाले प्रमाणों में सबसे प्रसिद्ध देवता की पहचान आदि – शिव के रूप में की गई है। कई मुहरों में एक देवता जिसके सिर पर भैंस के सींग का मुकूट है, योगी की मुद्रा में बैठा हुआ है। देवता बकरी, हाथी, शेर तथा मृग से घिरा हुआ है। मार्शल ने इस देवता को पशुपति माना है|
मातृ देवी
हड़प्पा बस्तियों में भारी संख्या में महिलाओं की भी मूर्तियाँ हैं जो कि बड़ी सी मेखला, वस्त्र तथा गले में हार पहने हुए दिखाई गयी हैं। वे सिरों पर पंखानुमी मुकुट धारण किए हैं। अभिजनन पंथ को आमतौर से गर्भ धारण के विभिन्न रूपों द्वारा चित्रित किया गया है। इन प्रमाणों से हड़प्पा सभ्यता में अभिजनन पंथ के प्रति विश्वास तथा देवियों की आराधना की ओर संकेत मिलते हैं।
वृक्ष आत्माएँ
संभवत: हड़प्पा के लोग वृक्ष आत्माओं की पूजा करते थे। कई स्थानों पर वृक्षों की शाखाओं के बीच से झांकती हुई आकृतियाँ दिखायी गयी हैं। भारत में पीपल के पैड़ की पूजा युगों से होती रही है और कहीं-कहीं पीपल के पेड़ और शिव की पूजा साथ-साथ होती दिखाई गयी है।
कुछ पौराणिक नायक
कुछ अन्य माननीय आकृतियाँ जिनका धार्मिक महत्त्व हो सकता है मुहरों और गण्डों पर पायी गयी हैं। मुहरों के सिर पर सींग तथा लम्बी दुम वाली आकृतियाँ बड़ी मात्रा में पायी गयी हैं। उदाहरण के लिए दो शेरों से लड़ता हुआ एक पुरुष हमारा ध्यान तुरन्त उस प्रसिद्ध योद्धा गिलगामेष की ओर ले जाता है जिसके विषय में दो शेरों को मारने की कथा प्रचलित है।
जानवरों की पूजा
हड़प्पा के लोग कई प्रकार के जानवरों की पूजा करते थे, इस संदर्भ में भी हमारी जानकारी का स्रोत मुहरें एवं पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ हैं|मुहरों पर बहुधा एक ब्राह्मणी बैल चित्रित मिलता है जिसके गले के नीचे भारी झालरदार खाल लटकती दिखाई देती है| संभवत: वर्तमान सभ्यता के बैलों एवं गायों के प्रति आदर भाव के बीज हड़प्पा-सभ्यता में रहे हों।
मिथकीय जानवर
मुहरों पर ऐसे जानवर रूपी जीव मिलते हैं जिनका अगला हिस्सा मनुष्य जैसा है तथा पिछला शेर जैसा दिखाया गया है। इसी प्रकार भेड़ों, बैलों तथा हाथियों की मिली-जुली आकृतियों वाले समष्टि काफी संख्या में प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा के बाद के भारतीय परंपरा के मिथकों से समष्टि आकृति वाले जीवों जैसे “नर सिंह” का विशेष स्थान रहा है। एक अन्य मुहर में एक श्रृडक एक मिथकीय पशु था क्योंकि इस प्रकार का कोई पशु कहीं नहीं पाया जाता | संभवत: इसकी उपासना की जाती रही होगी।
मृतकों का अंतिम संस्कार
मानव जाति अपने सगे सम्बन्धियों के मृत शरीरों के अंतिम संस्कार को महत्त्वपूर्ण धार्मिक गतिविधि के रूप में मानती रही है। इसका कारण मृतकों के प्रति दृष्टिकोण तथा इस जीवन तथा मृत्योपरांत जीवन के संबंध में मानव जाति के विश्वास से परस्पर जुड़ाव है।
हड़प्पा में कई कब्रें मिली हैं। शव साधारणतया उत्तर-दक्षिण दिशा में रखकर दफनाए जाते थे। उन्हें सीधा लिटाया जाता था। कब्र में बड़ी संख्या में मिट्टी के बर्तन रख दिए जाते थे | कुछ स्थानों पर शवों को गहनों जैसे सीप की चूड़ियों, हार तथा कान की बालियों के साथ दफनाया जाता था। कुछ कढ्रों में तांबे के दर्पण, सीप और सुरमें की सलाइयाँ भी रखी जाती थीं।
इन रीतियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि हड़प्पा के लोगों में मुर्दों के अंतिम संस्कार की रीतियाँ भारत में बाद में आने वाले समय की रीतियों से भिन्न थीं | भारत के ऐतिहासिक चरणों में अंतिम संस्कार की मुख्य पद्धति दाह संस्कार प्रतीत होती है। साथ ही मुर्दों का
सावधानीपूर्वक रखकर अंतिम संस्कार करना तथा आभूषण एवं श्रृंगार की वस्तुएँ उनके साथ रखना इस तथ्य का द्योतक है कि वे लोग मरणोपरांत जीवन में विश्वास रखते थे।
हड़प्पा-सभ्यता के ह्यास
विद्वानों ने इस प्रश्न के विभिन्न उत्तर दिए हैं कि यह सभ्यता नष्ट क्यों हुई? हड़प्पा-सभ्यता के ह्यास के लिए कुछ अपेक्षाकृत अधिक संभावना युक्त सिद्धांत निम्न हैं :
- यह भयंकर बाढ़ से नष्ट हो गई।
- ह्ास नदियों का रास्ता बदलने से और घग्घर-हाकड़ नदी तंत्र के धीरे-धीरे सूख जाने के कारण हुआ।
- बर्बर आक्रमणकारियों ने शहरों को बर्बाद कर दिया।
- केंद्रों की बदली हुई माँगों से क्षेत्र की पारिस्थितिकी भंग हो गई और उसे संभाला नहीं जा सका।
बाढ़ और भूकम्प
हड़प्पा सभ्यता के ह्यास के लिए विद्वानों ने जो कारण बताए हैं, उनमें उन्होंने मोहनजोदड़ो में बाढ़ आने के साक्ष्य भी शामिल किए हैं| यह निष्कर्ष इस तथ्य से निकाला जा सकता है कि मोहनजोदड़ो में मकानों और सड़कों पर इसके लम्बे इतिहास में अनेक बार कीचड़युक्त मिट्टी भरी पड़ी थी और टूटे हुए भवनों की सामग्री और मलबा भरा पड़ा था। लगता है कीचड़युक्त यह मिट्टी उस बाढ़ के पानी के साथ आई जिस पानी में सड़कें और मकान डूब गए थे।
करांची के पास बालाकोट और मकरान तट पर सुतकागनदौड़ और सतका-कोह जैसे स्थान हड़पपा निवासियों के समुद्री तट थे| तथापि आजकल ये समुद्र तट से दूर स्थित है। ऐसा संभवतः उग्र भूकम्प के कारण समुद्र तट पर भूमि के उत्थान के परिणामस्वरूप हुआ | कुछ विद्वानों का मत है कि इन उग्र भूकम्पों से जिन्होंने नदियों को अवरुद्ध कर दिया
नदी की कीचड़ के ढेर आज के भूतल से 80 फुट ऊँचाई तक मिले हैं जिसका अर्थ है कि बाढ़ का पानी इस क्षेत्र में इस ऊँचाई तक पहुँचा | मोहनजोदड़ो के हड़प्पा निवासी इन बार-बार आने वाली बाढ़ों से मुकाबला करने में हिम्मत हार गए। एक अवस्था ऐसी आई जब कंगाल हड़प्पा निवासी इसे और सहन न कर सके और इन बस्तियों को छोड़कर चले गए |
सिंधु नदी का मार्ग बदलना
सिंधु नदी एक अस्थिर नदी तंत्र है जो अपना तल बदलता रहता है, स्पष्टतः सिंधु नदी मोहनजोदड़ो से लगभग 30 मील दूर चली गई | शहर और आसपास के खाद्यान्न उत्पादक गाँवों के लोग इस क्षेत्र से चले गए क्योंकि वे पानी के लिए तरस गए थे | मोहनजोदड़ो के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ |
शुष्कता में वृद्धि और घग्घर का सूख जाना
डी.पी. अग्रवाल और सूद का मत है कि हड़प्पा-सभ्यता का ह्ास उस क्षेत्र में बढ़ती हुई शुष्कता के कारण और घग्घर नदी-हाकडा-के सूख जाने के कारण हुआ। घग्घर-हाकड़ा क्षेत्र हड़प्पा सभ्यता का एक मूल क्षेत्र था| घग्घर एक शक्तिशाली नदी थी जो समुद्र में गिरने से पहले पंजाब, राजस्थान और कच्छ के रन में से होकर बहती थी।
सतलुज और यमुना नदियाँ इस नदी की सहायक नदियाँ हुआ करती थीं। कुछ विवर्तनिक विक्षोमों के कारण सतलुज सिंध नदी में समा गई तथा यमुना नदी गंगा नदी में मिलने के लिए पूर्व की ओर रास्ता बदल गई
बर्बर आक्रमण
व्हीलर का मत है कि हड़प्पा-सभ्यता आक्रमणकारी आर्यों ने नष्ट की थी। जैसा पहले बताया जा चुका है, मोहनजोदड़ो में आवास के अन्तिम चरणों में जनसंहार के साक्ष्य मिलते हैं। ऋग्वेद में इनके स्थानों पर दासों और दस्युओं के किलों का उल्लेख मिलता है। वैदिक देवता इन्द्र को पुरन्दर कहा जाता है, जिसका अर्थ है “किलों को नष्ट करने वाला” | ऋग्वेद कालीन आर्यों के आवास के भौगोलिक क्षेत्र में पंजाब तथा घग्घर-हाकड़ा क्षेत्र शामिल थे।
चूंकि इस ऐतिहासिक चरण में किसी अन्य संस्कृति समूहों के किले होने के कोई कारण अवशेष नहीं मिलते| वस्तुतः ऋग्वेद में एक स्थान का उल्लेख है जिसे हरियूपिया कहा गया है। यह स्थान रावी नदी के तट पर अवस्थित था। आर्यों ने यहाँ एक युद्ध लड़ा था। इस स्थान के नाम से हड़प्पा नाम लगता है। इन साक्ष्यों से व्हीलर ने निष्कर्ष निकाला कि हड़प्पा के शहरों को नष्ट करने वाले आर्य आक्रमणकारी ही थे।
यह सिद्धांत आकर्षक तो है, पर अनेक सिद्धांतों को मान्य नहीं है। उनका कहना है कि हड़प्पा-सभ्यता के ह्ास का अनुमानित समय 4800 बी.सी.ई. माना जाता है। पर इसके विपरीत आर्य यहाँ लगभग 4500 बी.सी.ई. से पहले आए नहीं माने जाते।
इसलिए संभावना यही है कि हड़प्पा निवासियों और आर्यों का कभी एक दूसरे से मिलन नहीं हुआ। साथ ही, न तो मोहनजोदड़ो में और न ही हड़प्पा में किसी सैन्य आक्रमण के साक्ष्य मिले हैं। सड़कों पर मनुष्यों के शव पड़े मिलने का साक्ष्य महत्वपूर्ण है।
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