प्राचीन भारत का इतिहास (History of Ancient India)
मानव का विकास
मानव का वर्तमान स्वरूप उसके क्रमिक विकास का परिणाम है। मानव का उद्विकास वानर से माना जाता है। मानव जैसे प्राणी अथवा आदिम होमीनिड्स सबसे पहले अफ्रीका में अभिनूतन काल (प्लिस्टोसीन) के आरम्भ में प्रकट हुए। भारत में मानव के विकास के अद्यतन साक्ष्य शिवालिक पहाड़ियों के अभिनूतन (Pliocene) युगीन निक्षेपों से मिलते हैं। मानव के जिस रूप के साक्ष्य यहाँ प्राप्त हुए हैं, उसे रामापिथेकस के नाम से जाना आता है, परन्तु पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आदि मानव का कोई जीवाश्म (फॉसिल) नहीं मिला है। भारत में मानव का सर्वप्रथम साक्ष्य नर्मदा घाटी के हथनौरा नामक स्थान से मिला है, जो मध्यपाषाण काल से सम्बन्धित स्थल है।
इतिहास का वर्गीकरण
प्राचीन भारतीय इतिहास (History of Ancient India) को स्रोतों की विविधता के आधार पर तीन भागों में बाँटा जाता है-
- प्रागैतिहासिक काल (मानव उत्पत्ति से 3000 ई.पू. तक) – इस काल की जानकारी का एकमात्र स्रोत, उस समय के मानवों द्वारा प्रयोग की गई वस्तुएँ हैं। इस काल में मानव लेखन कला से अपरिचित था, इसलिए इस काल को ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहते हैं। भारतीय प्रागैतिहास को उद्घाटित करने का श्रेय डॉ. प्राइमरोज नामक एक अंग्रेज को जाता है, जिसने 1842 ई. में कर्नाटक के रायचूर जिले के लिंगसुगुर नामक स्थान में प्रागैतिहासिक औजारों की खोज की।
- आध ऐतिहासिक काल (3000 ई.पू. से 600 ई.पू.) – इस काल का मानव लिपि से तो परिचित था, परन्तु वह लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, ‘आद्य-ऐतिहासिक काल’ कहलाता है। हड़प्पा सभ्यता भारत के आद्य ऐतिहासिक काल से सम्बन्धित है। है
- ऐतिहासिक काल (600 ई.पू. से आगे) – इस काल का मानव लिपि से परिचित था और वह लिपि पढ़ी भी जा चुकी है, यह ‘ऐतिहासिक काल’ कहलाता है।
प्रागैतिहासिक काल का विभाजन
पाषाण काल (Stone Age)
भारतीय पाषाण युग को मानव द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पत्थर के औजारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर तीन अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है- पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल।
भारत में पाषाणकालीन बस्तियों के अन्वेषण की शुरूआत 1863 ई. में जियोलॉजिकल सर्वे से सम्बद्ध अधिकारी रॉबर्ट ब्रूसफूट ने की, उसे चेन्नई के समीप पल्लवरम से एक पाषाण उपकरण प्राप्त हुआ कनिघम। अन्तत: सर मार्टीमर व्हीलर के प्रयासों से भारत के समग्र प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक अनुक्रम का ज्ञान हुआ ए. कनिंघम को ‘प्रागैतिहासिक पुरातत्त्व का जनक कहा जाता है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण संस्कृति मन्त्रालय के अधीन एक विभाग है।
- पुरापाषाण काल (Paleolithic Age) (10 लाख से 10 हजार ई. पू.) पू)
- मध्य पाषाण काल (Mesolithic Age) 10 हजार से 7 हजार ई. पू.)
- नवपाषाण काल (Neolithic Age) (7 हजार ई. पू. के बाद) 7 हजार ई.
- ताम्रपाषाण काल
पुरापाषाण काल
तकनीकी विकास तथा जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर पुरापाषाण काल को निम्न, मध्य एवं उच्च पुरापाषाण काल में विभाजित किया गया है। History of Ancient India
- निम्न पुरापाषाण काल – पुरापाषाण काल का सबसे लम्बा समय ‘निम्न पुरापाषाण काल’ के रूप में जाना जाता है। इस समय मनुष्य पत्थरों (क्वार्जाइट) से निर्मित हथियारों (हस्तकुठार, विदारणी, खण्डक) का उपयोग करता था। अधिकांश पुरापाषाण युग हिम युग में गुजरा था। निम्न पुरापाषाण स्थल भारतीय महाद्वीप के लगभग सभी क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं, जिनमें असम की घाटी, सोहन घाटी, नर्मदा घाटी एवं बेलनघाटी प्रमुख हैं। इस काल के लोग शिकारी एवं खाद्य संग्राहक की श्रेणी में आते हैं।
- मध्य पुरापाषाण काल – मध्य पुरापाषाण काल में शल्क उपकरणों की प्रधानता बढ़ गई तथा कच्चे माल के रूप में क्वार्जाइट के स्थान पर चर्ट और जैस्पर प्रमुख हो गया। इस काल में फलकों की सहायता से बेधनी, छेदनी एवं खुरचनी जैसे उपकरण बनाए गए। फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को फलक संस्कृति भी कहा जाता है। एच डी सांकलिया ने नेवासा (गोदावरी नदी के तट पर) को प्रारूप स्थल घोषित किया है।
- उच्च पुरापाषाण काल – उच्च पुरापाषाण काल आधुनिक मानव अर्थात् होमोसेपियन्स के अस्तित्व का युग था। इस काल में मानव उपकरणों के निर्माण में हड्डी, हाथी दाँत एवं सींगों का प्रयोग करने लगा था। उच्च पुरापाषाण काल के उपकरणों में तक्षणी एवं खुरचनी के थे। मानव रहने के लिए उपरोक्त शैलाश्रयों का प्रयोग करने लगा। इस काल में नक्काशी और चित्रकारी दोनों रूपों में कला का विकास हुआ।
मध्यपाषाण काल
मध्यपाषाण काल (हिम युग के अन्त के पश्चात् मध्यपाषाण काल प्रारम्भ हुआ। भारत में के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867 ई. में हुई, जब सी एल कार्लाइल) ने विध्य क्षेत्र में लघु पाषाण उपकरण खोज निकाले। इस काल के औजार छोटे पत्थरों से बने हुए हैं, जिन्हें माइक्रोलिथिक(सूक्ष्म पाषाण) कहा गया है।
भारत में मानव अस्थि-पंजर सर्वप्रथम मध्यपाषाण काल से ही प्राप्त होने लगता है। मध्यपाषाण युगीन औजार बनाने की तकनीक को फ्लूटिंग कहा जाता है। इस काल के कुछ सूक्ष्म औजारों का आकार ज्यामितीय है, जिसमें ब्लेड, क्रोड, त्रिकोण, चन्द्राकार तथा समलम्ब औजार प्रमुख हैं।
मध्यपाषाण काल के लोग शिकार, मछली पकड़ने तथा खाद्य-संग्रहण पर निर्भर करते थे। इस काल में बागौर (राजस्थान) तथा आदमगढ भीमबेटका (मध्य प्रदेश) से पशुपालन का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होता है। इसी काल में मानव ने सर्वप्रथम कुत्ते को पालतू पशु बनाया था।
राजस्थान में स्थित साम्भर झील निक्षेप के कई मध्यपाषाणिक स्थल प्राप्त हुए हैं, जिनमें नरवा, गोविन्दगढ़ तथा लेखवा प्रमुख हैं। यहाँ से विश्व के सबसे पुराने वृक्षारोपण का साक्ष्य मिला है।
स्थायी निवास का प्रारम्भिक साक्ष्य सराय नाहर राय)एवं महदहा से स्तम्भ गर्त के रूप में मिलता है। सराय नाहर राय (उत्तर प्रदेश) से बड़ी मात्रा में हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं तथा महदहा से हड्डी का वाणान प्राप्त हुआ है। मध्यपाषाण काल के मनुष्यों ने अनुष्ठान के साथ शवों को दफनाने की प्रथा प्रारम्भ ने की। मध्य भारत के लेखनिया से मध्यपाषाण कालीन शवों को अनुष्ठान के साथ दफनाने का साक्ष्य मिला है।
भीमबेटका की गुफाएँ भीमबेटका से चित्रकारी के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जो मध्यपाषाण काल से सम्बन्धित हैं। भीमबेटका (Bhimbetaka) का चट्टानी शरणस्थल भोपाल से 45 किमी पश्चिम में स्थित है। यूनेस्को ने भीमबेटका शैल चित्रों को विश्व विरासत सूची में सम्मिलित किया है। इन गुफाओं में जीवन के विविध रंगों को पेण्टिग के रूप में उकेरा गया, जिनमें हाथी, साम्भर, हिरन आदि के चित्र हैं। इस काल के लोगों ने गहरे लाल, हरे, उजले तथा पीले रंगों का प्रयोग किया।
नवपाषाण काल
पहला नवपाषाणिक स्थल एच सी मेस्यूरर के द्वारा 1860 ई. में उत्तर प्रदेश में खोजा गया। नवपाषाण या नियोलिथिक शब्द का प्रयोग सबसे पहले सर जॉन लुबाक ने 1865 ई. में किया था। History of Ancient India
- पुरातत्त्वविद् मिल्स बुरकिट के अनुसार, पशुओं को पालतू बनाना कृषि व्यवहार को प्रथम प्रयोग, घिसे तथा (पॉलिशदार पत्थर के औजार एवं मद्भाण्डों का निर्माण नवपाषाण काल की प्रमुख विशेषता है।
- पाकिस्तान के बलूचिस्तान में अवस्थित मेहरगढ़ तथा भारत के कश्मीर में स्थित (बुर्जहोम एवं गुफ्कराले महत्त्वपूर्ण नवपाषाण कालीन स्थल हैं। बुर्जहोम में गर्त निवास का साक्ष्य मिलता है, जहाँ कब्रों में पालतू कुत्ते भी मालिकों के शवों के साथ दफनाए जाते थे।
- चिरांद (बिहार) से हड्डियों के उपकरण पाए गए हैं, जो मुख्य रूप से हिरण सींगों के हैं। मृद्भाण्ड निर्माण का प्रारम्भ नवपाषाण से हुआ। मृद्भाण्ड का प्राचीनतम साक्ष्य चौपानीमाण्डों से प्राप्त हुआ है।
- कर्नाटक में संगनकल्लू (मैसूर) तथा पिकलीहल से ‘राख के टीले’ प्राप्त हुए हैं। महगड़ा (बेलन घाटी) से गौशाला के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। दक्षिण भारत में प्रयुक्त होने वाली पहली फसल रागी थी।
- कोल्डिहवा (उत्तर प्रदेश) से वन्य एवं कृषिजन्य दोनों प्रकार के चावल के साक्ष्य मिलते हैं। यह धान की खेती का प्राचीनतम साक्ष्य है।
ताम्रपाषाण काल
मानव ने सर्वप्रथम ताँबा धातु का प्रयोग किया, जिस काल में लोगों ने पत्थर के साथ-साथ ताँबे के हथियारों का प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया, इसे ताम्रपाषाण युग (2000 ई.पू. से 500 ई.पू.) कहा गया। ताम्रपाषाण काल के लोग मुख्यत: ग्रामीण समुद्राय के थे। भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (अहाड़ एवं गिलुण्द), पश्चिमी मध्य प्रदेश (मालवा, और एरण), पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिणी-पूर्वी भारत हैं। History of Ancient India
मालवा संस्कृति की एक विलक्षणता है-मालवा मृद्भाण्ड, जो ताम्रपाषाण मृद्भाण्डों में उत्कृष्टतम् माना गया है। सबसे विस्तृत उत्खनन पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए हैं, जहाँ उत्खनन हुए हैं, वे स्थल हैं-अहमदनगर के जोरवे, नेवासा एवं दैमाबाद, पुणे में चन्दौली, सोनेगाँव एवं इनामगाँव।
जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी, फिर भी इसकी कई बस्तियाँ; जैसे-दैमाबाद और इनामगाँव में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई थी।
- जोरवे स्थलों में सबसे बड़ा दैमाबाद है। दैमाबाद)की ख्याति ताँबे की वस्तुओं की उपलब्धि के लिए है। दैमाबाद से ताँबे का रथ चलाता, मनुष्य, साँड, गैण्डे तथा हाथी की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं।
- इनामगाँक एक बड़ी बस्ती है, जो किलाबन्द है तथा खाई से घिरी हुई है
- ताम्रपाषाणिक स्थलों में सबसे बड़ा उत्खनित ग्रामीण स्थल एच डी आकलिया द्वारा उत्खनित नवदाटोली है, जहाँ से सर्वाधिक फसल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। .
अहाड़ संस्कृति का प्राचीन नाम ताम्बावती अर्थात् ताँबा वाली जगह है। गिलुण्द इस संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना जाता है। यहाँ एक प्रस्तर फलक उद्योग के अवशेष मिले हैं। अहाड़ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे। यहाँ से ताँबे की बनी कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ तथा कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। History of Ancient India
कायथा संस्कृति के मृद्भाण्डों पर प्राक् हड़प्पन, हड़प्पन और हड़प्पोत्तर संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है। ताम्रपाषाणिक बस्तियों के लुप्त होने का कारण अत्यल्प वर्षा (सूखा) मोना जाता है। कायथा से स्टेटाइट और कॉर्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमे पाए गए हैं। गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति भी एक महत्त्वपूर्ण ताम्रपाषाणकालीन संस्कृति है। इसका काल 2000 से 1500 ई.पू. निर्धारित किया गया है। गैरिक मृद्भाण्ड पात्र का नामकरण हस्तिनापुर में हुआ था।
प्रमुख ताम्रपाषाणिक संस्कृति
- अहाड़ संस्कृति 2100 ई.पू. 1800 ई.पू.
- कायथा संस्कृति । 2100 ई.पू. 1800 ई.पू
- सावाल्दा संस्कृति 2100 ई.पू. 1800 ई.पू.
- प्रभास संस्कृति 1800 ई.पू. 1200 ई.पू.
- मालवा संस्कृति 1700 ई.पू. 1200 ई.पू.
- रंगपुर संस्कृति 1500 ई.पू. 1200 ई.पू.
- जोरवे संस्कृति 0 1400 ई.पू. 700 ई.पू.
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