The Era of Enlightenment in Hindi: प्रबोधन से तात्पर्य है अंधकार के एक लंबे युग से प्रकाश के युग मे समाज को प्रवेश करना । यहाँ अंधकार का तात्पर्य अज्ञान, अंधविश्वास, असहिष्णुता और अतीत के प्रति दासता-बोध से है, जबकि प्रकाश का तात्पर्य ज्ञान से है ।
प्रबोधन का आधार अथवा कारण
कारण 1: निरंकुश राजतंत्र का उद्भव
प्रबोधन एक बौद्धिक आंदोलन था, परंतु इस बौद्धिक आंदोलन का एक मज़बूत भौतिक आधार था। बदलते हुए वर्ग समीकरण ने प्रबोधन का सामाजिक आधार निर्मित किया। वस्तुतः 14वीं सदी से 18वीं सदी के बीच के काल में यूरोप परिवर्तनों की प्रक्रिया से गुजरता रहा था। इसके परिणामस्वरूप 18वीं सदी में शक्ति के दो केन्द्र उभरकर आये, एक था निरंकुश राजतंत्र और दूसरा था महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग।
कारण 2: मध्यवर्ग में शक्ति और आत्मविश्वास का आना
जबकि अब तक मध्यवर्ग ने राजतत्र का साथ दिया था परन्तु 18वीं सदी तक मध्यवर्ग में शक्ति और आत्मविश्वास आ चुका था। अतः मध्यवर्ग ने राजतंत्र को चुनौती देनी आरम्भ कर दी। वहीं राजतंत्र ने अपनी निरंकुश शक्ति को बनाये रखने के लिए अपने पुराने प्रतिद्वन्द्वी कुलीन वर्ग और चर्च के साथ एक गठबन्धन बनाने का प्रयास किया। फिर भी मध्यवर्ग पीछे नहीं हटा और उसने राजतंत्र कुलीन वर्ग तथा चर्च के समक्ष माँगों की एक तालिका रख दी। एक दृष्टिकोण से अगर देखा जाये तो यही प्रबोधन था।
कारण 3: वैज्ञानिक क्रान्ति का प्रभाव
17वीं शताब्दी की वैज्ञानिक क्रांति ने लोगों का अपने आस पास की वस्तुओं को देखने का नज़रिया बदल दिया। इस वैज्ञानिक क्रान्ति का प्रभाव मानव चेतना पर भी पड़ा। उभरते हुये मध्यवर्ग ने वैज्ञानिक विचारधारा का उपयोग अपने पक्ष में किया और उसके समर्थन से अपनी माँगों को 4 और भी मजबूत बनाया।
प्रबोधन की विशेषताएँ एवं उसका विचार
प्रबोधन के उदय ने सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र मे काफी योगदान भी दिया जो निम्न है –
1. वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग पर बल
राजनीतिक आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं को हल करने के लिये वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग पर बल दिया गया।
2. तर्कवाद
तर्कवाद को ज्ञान का आधार माना गया और साथ ही यह भी माना गया कि तर्कवाद से निर्देशित मनुष्य का भविष्य उज्ज्वल है।
3. बाह्य हस्तक्षेप पर रोक
राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं को अपने प्राकृतिक नियमों के अनुसार कार्य करना चाहिये और इसमें बाह्य हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिये।
4. मानवतावाद पर जोर
प्रबोधन ने आशावादी नजरिया प्रस्तुत किया जिसमें मानव जीवन में खुशहाली पर जोर दिया गया तथा मोक्ष एव मुक्ति के आदर्शों को त्याग दिया गया।
प्रबोधन के प्रमुख चिंतक एवं उनके विचार
वाल्तेयर
माना जाता है कि प्रबोधन का उद्भव तब हुआ जब एक फ्राँसीसी चिन्तक वाल्तेयर ने ब्रिटेन की यात्रा की। फिर उसने फ्रांसीसी बन्द समाज की तुलना ब्रिटेन के खुले समाज से की। प्रबोधन का सबसे अधिक प्रभाव फ्राँस तथा ब्रिटेन पर देखा गया। इसके बाद इसका प्रसार अन्य क्षेत्रों में हुआ। प्रबुद्ध चिन्तकों से तात्पर्य वैसे चिन्तकों से है जो प्रबोधन के मूलभूत विचारों को मानकर चलते थे अर्थात् वे तर्क एवं वैज्ञानिक पद्धति को मानव जीवन का कारगर हथियार मानते थे। इन चिन्तकों में एक महत्वपूर्ण फ्रांसीसी चिन्तक वाल्तेयर ने व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए राजतंत्र की शक्ति एव चर्च के नियंत्रण पर अंकुश लगाना चाहा।
दिदरो
उसी प्रकार दिदरो ने भी विश्वकोष की रचना कर राजतंत्रवादी निरकुशता की ओर लोगों का ध्यान खींचा।
मॉन्टेस्क्यू
मॉन्टेस्क्यू ने अपनी कृति ‘स्पिरिट ऑफ लॉज’ (Spirit of Laws) में शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत दिया। इसके अनुसार कार्यपालिका विधानमण्डल एवं न्यायपालिका सरकार के इन तीनों अंगों को एक-दूसरे से पृथक होना चाहिए। उसका मानना था कि इससे राजतंत्र की निरंकुशता स्वयं सीमित हो जायेगी।
जॉन लॉक
उसी प्रकार एक ब्रिटिश चिन्तक जॉन लॉक ने व्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए सीमित राजतंत्र की अवधारणा रखी। इस प्रकार प्रबोधन ने आधुनिक संविधानवाद की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया।
रूसो
रूसो प्रबोधन के युग में पैदा होने के बाद भी अन्य चिन्तकों से पृथक् विचार रखता था। जहाँ अन्य प्रबुद्ध चिन्तकों का बल तर्कवाद एवं वैज्ञानिक पद्धति पर रहा था… वहीं रूसो का बल भावावेश (Emotions) पर था। फिर. जहाँ अन्य प्रबुद्ध चितक संवैधानिक राजतंत्र की बात करते थे, वहीं रूसो प्रजातंत्र की। उसने व्यक्ति की जगह समुदाय के महत्व को बल दिया तथा यह घोषित किया कि सामान्य इच्छा ही संप्रभु की इच्छा है। वे समाजवाद तथा आधुनिक राष्ट्रवाद के भी जनक माने जाते हैं।
प्रबोधन का प्रभाव
प्रबोधन ने समकालीन राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक सरचना को नवीन वैचारिक आधार प्रदान किया
राजनीतिक क्षेत्र
इसने निरंकुश राजतंत्र को अस्वीकार कर ‘सीमित राजतंत्र‘ अथवा ‘संवैधानिक राजतंत्र‘ का मॉडल प्रस्तुत किया। इसके अनुसार राजतंत्र को एक निर्वाचित विधानमंडल की सहायता से शासन करना चाहिये. यद्यपि ऐसा विधानमंडल सीमित मताधिकार के LIS आधार पर निर्वाचित हो, न कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर। ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक राजतंत्र के संदर्भ में नवीन मॉडल की परिकल्पना की।
आर्थिक क्षेत्र
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में प्रबोधन ने ‘वाणिज्यवाद’ का विरोध कर ‘मुक्त व्यापार‘ की वकालत की। प्रबोधन युग के महान ब्रिटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने अपनी महानतम कृति ‘द वेल्थ ऑफ नेशंस’ में मुक्त व्यापार नीति के माध्यम से देशों की राष्ट्रीय समृद्धि में वृद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार जिस प्रकार प्रकृति के नियम निश्चित हैं उसी प्रकार बाजार के भी निश्चित नियम हैं। ये नियम हैं- माँग और पूर्ति के नियम ।
सामाजिक क्षेत्र
सामाजिक क्षेत्र में प्रबोधन ने व्यक्तिवाद एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विचार को बढ़ावा दिया। प्रबुद्ध चितक मोटेस्क्यू ने अपने लेख ‘स्पिरिट ऑफ ‘लॉज’ में सरकार के तीन अंगों के पृथक्करण की अपील की ताकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संरक्षित किया जा सके। इस प्रकार प्रबोधन के दौरान तथाकथित गणतांत्रिक अथवा लोकतांत्रिक विचारों के बीज बोए गए थे।
प्रबोधन की सीमाएँ
इसकी अद्वितीय प्रकृति के बावजूद इसकी कुछ सीमाएँ भी थीं-
1. पुरूषों की प्रधानता
प्रबोधन पर पितृसत्तावाद (पुरूषों की प्रधानता) का प्रभाव था महिलाओं के अधिकारों की बात नहीं उठायी गयी थी।
2. सीमित मताधिकार
प्रबोधन ने मध्यवर्ग के अधिकारों की बात उठायी तथा सीमित मताधिकार की बात की परन्तु इसने निम्न वर्ग का तिरस्कार किया।
3. सीमित स्वतंत्रता की अवधारणा
प्रबुद्ध चिन्तकों के अनुसार सरकार जनता के लिए तो होनी चाहिए परन्तु जनता के द्वारा नहीं । इसके तहत मानव अधिकार एवं व्यक्ति की स्वतंत्रता की समस्त अवधारणा केवल यूरोप के लिए थी उपनिवेशों के लिए नहीं।
4. तर्कवाद को चुनौती
प्रबोधन के विचारों को आरंभिक चुनौती स्वयं प्रबोधन के काल में ही एक विद्वान जीन जैक्विस रूसो के द्वारा मिली थी। उन्होंने तर्कवाद पर प्रश्न उठाया तथा तर्क की जगह भावावेश (Emotions) पर बल दिया।
वर्तमान में उत्तर आधुनिकतावाद से प्रबोधन के विचारों को चुनौती मिली है। प्रबोधन के द्वारा प्रेरित आधुनिकतावाद ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि तर्क की पद्धति एवं विज्ञान सत्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन है। उत्तर आधुनिकतावाद के विचार में इस प्रकार का दावा सर्वाधिक US अनुचित है न तो कोई एकमात्र सत्य है और न ही उस सत्य तक पहुँचने का कोई एक मार्ग।
अमेरिकी क्रांति से प्रबोधन का संबंध
अमेरिकी समाज तथा यूरोपीय समाज के लोग अलग-अलग पृष्ठभूमि से आये थे। उनका कोई सामान्य अतीत नहीं था परतु वे एक समान लक्ष्य से जरूर बँधे हुए थे। औसत अमेरिकी अपने दृष्टिकोण में आशावादी थे और परिवर्तन के प्रति उत्साहित थे। वहीं दूसरी तरफ प्रबोधन आशावाद से भरा हुआ था। इसलिए प्रबोधन की अपील अमेरिकी लोगो तक बड़ी शीघ्रता से पहुँच गयी। कहा जाता है कि दो अमेरिकी नेता टॉमस जैफरसन और बेंजामिन फ्रैंकलिन ने यूरोप की यात्रा की थी और प्रबोधन के विचारो से प्रभावित होकर अमेरिका लौटे थे।
फ्राँस की क्रांति से प्रबोधन का संबंध
1789 ई. की फ्रांसीसी क्रांति का एक कारण प्रबोधन को माना जाता रहा है परन्तु यह समझने की जरूरत है कि यह क्रांति का वास्तविक कारण नहीं था। अधिकाश विचारक सुधारक थे क्रांतिकारी नहीं। लगभग सभी विचारक स्वय उच्च वर्ग से आए थे तथा व्यवस्था में सुधार लाकर एक प्रबुद्ध राजतंत्र अथवा सवैधानिक राजतंत्र की स्थापना का लक्ष्य रखते थे परन्तु वे प्रतिनिध्यात्मक अथवा लोकप्रिय सरकार की स्थापना के पक्षपाती नहीं थे। इन विचारको ने किसी राजनीतिक दल अथवा क्रांतिकारी संगठन बनान में रूचि नहीं दिखाई और न ही उन्होंने काई रेडिकल नीति अथवा कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उनमें से किसी ने भी 1789 ई की फ्रांसीसी क्रांति में प्रत्यक्ष रूप में हिस्सा नहीं लिया।