कृषि (Agriculture) मानव समूह द्वारा मिट्टियों पर की जाने वाली कला है, या वह कार्य है, जिससे के परिणाम स्वरूप फसलें उत्पन्न होती है। इस प्रकार विभिन्न समाज में इसको करने की अलग – अलग तरीके है, क्योंकि मानव अपने अपनी सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप ही कार्य करता है।
कृषि का अर्थ (Meaning of Agriculture in Hindi)
कृषि शब्द की व्युत्पत्ति विज्ञान के अनुसार कृषि का अभिप्राय कर्षण से या खींचने से होता है। कृषि का अंग्रेजी पर्याय Agriculture लेटिन भाषा के दो शब्दों को मिलाकर बना है। Ager ( agerfiels or soil) तथा Culture (cultura- the care of tillingh) से मिलकर बना है। Culture का हिन्दी अर्थ संस्कृति होता है। तात्पर्य जीवन जीने की एक विशेष कला है। इस प्रकार कृषि का सामान्य अर्थ भूमि को जोत कर फसलें पैदा करना है।
कृषि की परिभाषा (Definition of Agriculture)
लौंगमेन के आधुनिक शब्दकोश के अनुसार कृषि फसलें पैदा करने के लिये बड़े पैमाने में भूमि को जोतने की कला है।
वाटसन ने कृषि को मृदा की खेती की संज्ञा दी है, जिसमें फसलें उगाना तथा पशुपालन दोनों ही सम्मिलित है।
ग्रिग कृषि की फसलों का उत्पादन करने के लिए मिट्टी पर खेती करने की क्रिया माना है।
बुकानन वस्तुतः कृषि फसलों उत्पादन से कही अधिक व्यापक है। यह मानव द्वारा पर्यावरण का रूपांतरण है। जिससें फसलों एवं पशु के लिए अनुकुलतम दशायें सुनिश्चित की जा सके तथा विवेकपूर्ण चयन से इनकी उपयोगिता में वृद्धि की जा सके।
कृषि के प्रकार (Types of Agriculture in hindi)
कृषि के प्रकार, भारत में कृषि के प्रकार, भारत में कृषि पद्धतियॉ अपनाई जाती है।
1. आर्द्र कृषि
भारत के उन क्षेत्रों में जहॉ वर्षा 200 सेमी. से अधिक सालाना होती है और समतल धरातल पर कॉप मिट्टी की प्रधानता है वहॉ वर्षा के सहयोग से आर्द्र कृषि की जाती है, जिसमें धान, मक्का, कोदो, साग-सब्जी, गन्ना, जूट, चाय आदि की प्रधानता है। यहॉ धान की दो फसलें उगाई जाती है। बंगाल, ब्रम्हापुत्र घाटी, हिमालयी क्षेत्र, केरल, पूर्वी तट के दक्षिणी भाग तथा पूर्वी भारत के अन्य प्रदेशों में तट कृषि का अधिक प्रचलन है।
2. झूमिंग कृषि
जिन क्षेत्रों में आदिवासियों की अधिकता है जैसे नागालैण्ड, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश और पश्चिमी घाट वहॉ परिवर्तनशील कृषि की जाती है। इसे झूमिंग कृषि कहते है। यह कृषि भी पूर्णता: वर्षा आधारित है लेकिन 2-3 फसलें लेने के बाद जंगल काट कर खेत बना लिये जाते है और पुराने खेत का त्याग कर दिया जाता है।
चूंकि इन आदिवासियों को मिट्टी की उर्वरता बनाये रखने का ज्ञान नहीं है और न भूमि की कमी है, अत: वहॉ सदियों पूर्व प्रचलित कृषि पद्धति आज भी प्रयोग में लाई जा रही है। इससे होने वाली हानियों से ये बेखबर है। सरकार इस पद्धति को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।
3. सिंचित कृषि
जिन क्षेत्रों में 50 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है वहॉ जमीन में नमी की कमी होती है। शुष्क काल में यह क्षेत्र बिल्कुल नमी विहीन हो जाता है। फलत: ऐस क्षेत्रों में सिंचाई की मदद से खरीफ और रबी फसलें उगाई जाती है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, पूर्वी तटीय डेल्टाई भाग और मध्यवर्ती प्रायद्वीप की कुछ नदी घाटियों एवं तालाबों के समीपवर्ती भागो में ऐसी कृषि की जाती है।
4. अर्द्ध सिंचित कृषि
जिन भागों में 100 सेमी. से 200 सेमी. वर्षा होती है। जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा ओर पूर्वी मध्य प्रदेश, वहॉ की खरीफ की फसलें पूर्णतः वर्षा पर आधारित होती है जिसमें धान की कृषि प्रधान रूप से की जाती है। शुष्क काल में रबी की फसलें सामान्य: सिंचाई से की जाती है क्योंकि जमीन में कुछ नमी बनी रहती है। गेहॅु, चना, तिलहन और गन्ना इस समय विशेष रूप से उगाये जाते है।
5. शुष्क कृषि
जिन क्षेत्रों में 50 सेमी के आस-पास वर्षा होती है वहॉ मिट्टी की नमी के आधार पर शुष्क कृषि की जाती है। ऐसी कृषि में उन फसलों की प्रधानता होती है जा कम नमी के बावजूद उपज दे सके जैसे – चना, ज्वार-बाजरा, तिलहन, जौ, केसरी आदि। दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, कनार्टक, आन्ध्र प्रदेश, बिहार, एवं तमिलनाडु के पठारी भागों में एसे ी कृषि की जाती है।
6. पहाड़ी कृषि
पहाड़ी ढालों पर जहॉ वषार् और धूप की सुविधा उपलब्ध होती है वहॉ सीढ़ीदार खेतों से अनाज एवं फल की कृषि की जाती है। हिमालय में कश्मीर से लेकर पूर्वी भाग तक इस प्रकार की कृषि की जाती है। लेकिन कुछि क्षेत्रों में विकसित बागवानी का भी प्रचलन है। चाय की कृषि इसका प्रमुख उदाहरण है। कुछ क्षेत्रों में फल के बागों की प्रधानता है विशेषकर कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल के हिमालय क्षेत्रों में पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में चाय के बागों की प्रधानता है।
कृषि को प्रभावित करने वाले तत्व (factors affecting Agriculture in hindi)
कृषि को प्रभावित करने में भिन्न- भिन्न प्रकार के कारकों एवं तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान है, जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है।
1. बाजार (Market)
बाजार से कृषि पर प्रभाव पड़ता है। जिन क्षेत्रों में बाजार काफी दूर है। उन क्षेत्रों में कृषि के रूप में विभिन्नता पायी जाती है। दूरी बढ़ने पर किसानों कों अपने उत्पादित पदार्थों का उचित फायदा नहीं मिल पाता है। कभी-कभी तो बाजार के दूर होने पर उत्पादन का लागत भी नहीं निकल पाता है। किन्तु इसी के विपरीत अगर बाजार समीप होता है। तो किसान उत्पादन लागत कों साथ मुनाफा भी कमा सकता है।
2. परिवहन (Transportation)
परिवहन एक महत्वपूर्ण तथ्य है। इसकी समुचित व्यवस्था होने से समय की अत्यधिक बचत होती है। कृषि उत्पाद के आदान- प्रदान में तेजी आती है। तथा जल्दी समाप्त होने अथवा नष्ट होने वाले प्रदार्थो को जल्दी से परिवहन द्वारा बाजार तक पहुंचाया जा कर लाभ कमाया जा सकता है।
3. श्रम (Labour)
कृषि को प्रभावित करने वाले तत्वों में श्रम एक विशिष्ट कारक है। कृषि ज्यादा मानवीय श्रम के द्वारा ही संपन्न होती है। श्रमिकों की उचित व्यवस्था अच्छे परिणाम के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसके अभाव में परिणाम की आकांक्षा व्यर्थ है।
4. जोत आकार (Holding size)
कृषि को कृषिजोत का आकार बहतु प्रभावित करता है। किसी भी फसलें की कृषि उसके जोत के आकार पर निर्भर करता है। जितना बढ़ा जोत उतनी अच्छी सिंचाई एवं उतना ही अच्छा उत्पादन अत: जोत का आकार अच्छे उत्पादन को इंगित करता है।
5. मृदा (Soil)
कृषि की आधारशिला मिट्टी है। जो परोक्ष तौर पर उपयोगी है। मिट्टी के अलग- अलग प्रकार होते है इसकी उपजाऊ क्षमता इसे भिन्न भिन्न करती है। उत्तम कृषि हेतु मृदा की अहम 56 भूमिका है। इसके अभाव में तो राष्ट्र की कल्पना असंभव है। मृदा का तापक्रम, मृदा की उर्वरता मृदा जिवांश आदि कृषि को प्रभावित करती है।
6. जलवायु (Climate)
भूमि उपयोग को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक कारकों में प्रमुख कारक जलवायु का स्थान है। इसके माध्यम से कृषि के विभिन्न प्रकार के स्वरूप निर्धारित एवं नियंत्रित होते है। विशेषकर आज के वैज्ञानिक युग में कृषि पर जलवायु का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। अत: इसे जलवायु पर निर्भर एक उद्योग कह सकते है।
7. तापमान (Temperature)
एक उचित तापमान बीजों के जमने या अंकुरण, वनस्पतियों के वर्धन होने के लिए बहुत आवश्यक है। कोई भी बीज या पौधा उपयुक्त तापमान की कमी में विकसीत नहीं हो सकता।
8. सौर प्रकाश (Solar light)
सौर प्रकाश का वनस्पतियों के विकास एवं वितरण को प्रभावित करने में विशिष्ट योगदान होता है। वनस्पतियों के लिए सूर्य ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। और सूर्य के इसी विकिरण उर्जा से पौधों की पर्णहरीतिमा के माध्यम से कुछ तरंग का अवशोषण करके भोजन बनाते है। इसके अभाव में भोजन बना पाना असंभव है।
9. वर्षा (Rain)
मृदा के विभिन्न प्रकार के पोशक तत्व को पूरा करने के लिए जल की आवश्यकता होती है। जल की पूर्ति करने हेतु वृष्टि या कृत्रिम माध्यमों द्वारा सिंचाई की जाती है। इसलिए फसलों हेतु अनुकूल तापमान ही की तरह अनुकूलतम नमी की मात्रा भी आवश्यक है। पौधे नमी अपने जड़ो से धारण करते है। अत: मिट्टी में नमी की मात्रा बहुत महत्वपूर्ण है।
10. वायु (Air)
वायु कृषि को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष दोनों रूप से प्रभावित करती है। नमी एवं तापमान दोनों का ही परिवहन हवा के जरिये होता है। जिससे वाष्पीकरण की प्रक्रिया संभव होता है। हवा के माध्यम से ही बीजों व परागों का प्रसरण होते है।
11. पाला (Frost)
कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक नुकसान बिना समय के पड़ने वाले पाले से होता है।
12. उच्चावच (Relief)
किसी प्रदेश की उच्चतम एवं न्यूनतम भागो के ऊंचाई के अन्तर को उच्चावच की संज्ञा प्रदान की है। यह खेती को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है। क्योंकि फसलों के वितरण एवं सम्बंधित कार्य धरातलीय स्वरूप पर ही आधारित है।
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