युद्ध , बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह’ के कारण आपातकाल (अनुच्छेद 352), को ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय आपातकाल
यदि भारत की अथवा इसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरा उत्पन्न हो गया हो तो अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपात की घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा वास्तविक युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशक्त विद्रोह से पहले भी कर सकता है। यदि वह समझे कि इनका आमन्न खतरा है।
राष्ट्रपति युद्ध, बाह्य आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह अथवा आसन्न खतरे के आधार पर वह विभिन्न उद्घोषणाएं भी जारी कर सकता है। चाहे उसने पहले से कोई उद्घोषणा की हो या न की हो या ऐसी उद्घोषणा लागू हो। यह प्रावधान 1975 में 38वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा जोड़ा गया है।
जब राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण के आधार पर की जाती है, तब इसे बाह्य आपातकाल के नाम से जाना जाता है। दूसरी ओर, जब इसकी घोषणा सशस्त्र विद्रोह के आधार पर की जाती है तब इसे ‘आंतरिक आपातकाल‘ के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा संपूर्ण देश अथवा केवल इसके किसी एक भाग पर लागू हो सकती है। 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रपति को भारत के किसी विशेष भाग पर राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने का अधिकार प्रदान किया है।
प्रारंभ में संविधान ने राष्ट्रीय आपातकाल के तीसरे आधार के रूप में आंतरिक गड़बड़ी‘ का प्रयोग किया था किंतु यह शब्द बहुत ही अस्पष्ट तथा विस्तृत अनुमान वाला था। अत: 1978 के 44वें संशोधन आधनियम द्वारा ‘आंतरिक गडबडी शब्द का सशस्त्र विद्राह‘ शब्द में विस्थापित कर दिया गया। अत: अब ‘आंतरिक गडबडी के आधार पर आपातकाल की घोषणा करना संभव नहीं है जेसा कि 1975 में इंदिर गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार न किया था।
राष्ट्रीय आपातकाल की उदघ्ोषणा केवल मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश प्राप्त होने पर ही कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि आपातकाल की घोषणा कवल मंत्रिमंडल की सहमति से ही हो सकती है न कि मात्र प्रधानमंत्री की सलाह से ।
1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बिना मंत्रिमंडल की सलाह के राष्ट्रपति का आपातकाल की घोषणा करने की सलाह और आपातकाल लागु करने के बाद मंत्रिमंडल का इस उदृघोषणा के बार म बताया। 1978 के 44व संशाधन अधिनियम न प्रधानमंत्री के इस संदर्भ में अकल बात करने और निर्णय लन की संभावना क समाज करन के लिए इस सुरक्षा का परिचय दिया है। 1975 के 38वें संशोधन अधिनियम ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा न्यायिक समीक्षा की परिधि में बाहर रखा था किंतु इस प्रावधान का 1978 के 44व संशोधन अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा को अथवा इस आधार पर कि घोषणा की कि वह पूरी तरह बाह्य प्रभाव तथा असंबद्ध तथ्यों पर या विवेक शून्य या हटधर्मिता के आधार पर की गयी हो तो अदालत में चुनौती दी जा सकती है।
राष्ट्रीय आपातकाल संसदीय अनुमोदन तथा समयावधि
संसद के दानों सदनों द्वारा आपातकाल की उदृघोषणा जारी होने के एक माह के भीतर अनुमोदित होनी आवश्यक है। प्रारंभ में संसद द्वारा अनुमोदन के लिए दी गई समय सीमा दो माह थी कित् 1978 के 44व संशोधन अधिनियम द्वारा इसे घटा दिया गया। किंतु आपातकाल की उदृघोषणा जब लोकसभा का विघटन हो गया हो अथवा लोकसभा का विघटन एक माह के समय में बिना उदघोषणा के अनुमोदन के हो गया हो; तब उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक जारी रहेगी, इस बीच राज्यसभा द्वारा इसका अनुमोदन कर दिया गया हो।
यदि संसद के दोनों सदनों से इसका अनुमोदन हो गया हो तो आपातकाल छह माह तक जारी रहेगा तथा प्रत्येक छह माह के अनुमोदन से इस अनंतकाल तक बढ़ाया जा सकता है। संसदीय अनुमादन का यह प्रावधान भी 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया है। इसके पहले आपातकाल एक बार संसद द्वारा अनुमोदन के पश्चात् मंत्रिमंडल की इच्छानुसार प्रभावी रह सकता था। किंतु यदि लोकसभा का विघटन, छह माह की अब में आपातकाल को जारी रखने के अनुमोदन के बिना हो जाता है, उद्घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 कि तक जारी रहती है, जबकि इस बीच राज्यसभा ने इसके जारी रहने की अनुमोदन कर दिया हो।
आपातकाल की उद्घोषणा अथवा इसके जारी रहने का प्रत्येक प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित होना चाहिए जो कि है-
- उस सदन के कुल सदस्यों का बहुमत
- उस सदन में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहमत।
इस विशेष बहुमत का प्रावधान 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा किया गया। इससे पूर्व ऐसा प्रस्ताव संसद के साधारण बहुमत द्वारा पारित हो सकता था।
उद्घोषणा की समाप्ति
राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा किसी भी समय एक दूसरी उद्घोषणा से समाप्त की जा सकती है।
- ऐसी उद्घोषणा को संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती।
- इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति को ऐसी उद्घोषणा को समाप्त कर देना आवश्यक है, जब लोकसभा इसके जारी रहने के अनुमोदन का प्रस्ताव निरस्त कर दे।
- यह सुरक्षा उपाय भी 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा पेश किया गया था।
- संशोधन से पहले राष्ट्रपति किसी उद्घोषणा को अपने विवेक से समाप्त कर सकता था तथा लोकसभा का इस संदर्भ में कोई नियंत्रण नहीं था।
1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने यह व्यवस्था भी की है कि यदि लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 1/10 सदस्य स्पीकर (अध्यक्ष) को अथवा राष्ट्रपति को (यदि सदन नहीं चल रहा हो) लिखित रूप से नोटिस दें तो 14 दिन के अंदर उद्घोषणा के जारी रहने के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए सदन की विशेष बैठक विचार-विमर्श के उद्देश्य से बुलाई जा सकती है।
उद्घोषणा को अस्वीकार करने का प्रस्ताव उद्घोषणा के जारी रहन के अनुमोदन के प्रस्ताव से निम्न दो तरह से भिन्न होता है:
- पहला केवल लोकसभा से ही पारित होना आवश्यक है, जबकि दूसरे को संसद के दोनों सदनों से पारित होने का आवश्यकता है।
- पहले को केवल साधारण बहुमत से स्वीकार किया जाता है, जबकि दूसरे को विशेष बहमत से स्वीकार किया जाता राष्ट्रीय आपातकाल के प्रभाव आपात की उद्घोषणा के राजनीतिक तंत्र पर तीव्र तथा दरगामी प्रभाव होते हैं।
इन परिणामों को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है:
- केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव,
- लोकसभा तथा राज्य विधानसभा केकार्यकाल पर प्रभाव, तथा;
- मौलिक अधिकारों पर प्रभाव।
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
जब आपातकाल की उद्घोषणा लागू होती है, तब केंद्र-राज्य के सामान्य संबंधों में मूलभूत परिवर्तन होते हैं। इनका अध्ययन तीन शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-
- कार्यपालक,
- विधायी तथा
- वित्तीय।
कार्यपालक
राष्ट्रीय आपातकाल के समय केंद्र की कार्यपालक शक्तियों का विस्तार, राज्य को उसकी कार्यपालक शक्तियों के प्रयोग के तरीकों के संबंध में निर्देश देने तक हो जाता है। सामान्य समय में केंद्र, राज्यों को केवल कुछ विशेष विषयों पर ही कार्यकारी निर्देश दे सकता है किंतु राष्ट्रीय आपातकाल के समय केंद्र को किसी राज्य को किसी भी विषय पर कार्यकारी निर्देश देने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अत: राज्य सरकारें, केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में हो जाती हैं, यद्यपि उन्हें निलंबित नहीं किया जाता।
विधायी
राष्ट्रीय आपातकाल के समय संसद को राज्य सूची में वर्णित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यद्यपि किसी राज्य विधायिका की विधायी शक्तियों को निलंबित नहीं किया जाता, यह संसद की असीमित शक्ति का प्रभाव है। अत: केंद्र तथा राज्यों के मध्य विधायी शक्तियों के सामान्य वितरण का निलंबन हो जाता है, यद्यपि राज्य विधायिका निलंबित नहीं होती। संक्षेप में, संविधान संघीय की जगह एकात्मक हो जाता है। संसद द्वारा आपातकाल में राज्य के विषयों पर बनाए गए कानून आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह तक प्रभावी रहते हैं।
जब राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा लागू होती है, तब यदि संसद का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, राज्य सूची के विषयों पर भी अध्यादेश जारी का सकता है। इसके अतिरिक्त संसद, राष्ट्रीय आपातकाल के परिणामस्वरूप केंद्र अथवा इसके अधिकारियों तथा प्राधिकारियों को संघ सूची से बाहर के विषयों पर इसके विस्तृत अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत बनाए गए कानूनों को लागू करने की शक्ति तथा कर्तव्य प्रदान कर सकती है। 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा यह व्यवस्था की गई कि उपरोक्त वर्णित दो परिणामों (कार्यकारी तथा विधायी) का केवल आपातकाल लागू होने वाले राज्य तक ही नहीं वरन् किसी अन्य राज्य में भी विस्तार होता है।
वित्तीय
जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब राष्ट्रपति, केंद्र तथा राज्यों के मध्य करों के संवैधानिक वितरण को संशोधित कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि राष्ट्रपति, केंद्र से राज्यों को दिए जाने वाले धन (वित्त) को कम अथवा समाप्त कर सकता है। ऐसे संशोधन उस वित्त वर्ष की समाप्ति तक जारी रहते हैं, जिसमें आपातकाल समाप्त होता है। राष्ट्रपति के ऐसे प्रत्येक आदेश को संसद के दोनों सदनों के सभा पटलों पर रखा जाना आवश्यक है।
लोकसभा तथा राज्य विधानसभा के कार्यकाल पर प्रभाव
जब राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा लागू हो तब लोकसभा का कार्यकाल इसके सामान्य कार्यकाल (5 वर्ष) से आगे संसद द्वारा विधि बनाकर एक समय में एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ाया जा सकता है। किंतु यह विस्तार आपातकाल की समाप्ति के बाद छह माह से ज्यादा नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए पांचवीं लोकसभा (1971-1977) का कार्यकाल दो बार एक समय में एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया था।
इसी प्रकार, राष्ट्रीय आपात के समय संसद किसी राज्य विधानसभा का कार्यकाल (पांच वर्ष) प्रत्येक बार एक वर्ष के लिए (कितने भी समय तक) बढ़ा सकती है जो कि आपात काल की समाप्ति के बाद अधिकतम छह माह तक ही रहता है।
मूल अधिकारों पर प्रभाव
अनुच्छेद 358 तथा 359 राष्ट्रीय आपातकाल में मूल अधिकार पर प्रभाव का वर्णन करते हैं। अनुच्छेद 358, अनुच्छेद 19 द्वारा दिए गए मूल अधिकारों के निलंबन से संबंधित है, जबकि अनुच्छेद 359 अन्य मूल अधिकारों के निलंबन (अनुच्छेद 20 तथा 21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर) से संबंधित है। ये दो प्रावधान निम्नानुसार वर्णित किए जाते हैं:
अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त मूल अधिकारों का निलंबन:
अनुच्छेद 358 के अनुसार जब राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की जाती है जब अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त छह मूल अधिकार स्वतः ही निलंबित हो जाते हैं। इनके निलंबन के लिए किसी अलग आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। जब राष्ट्रीय आपातकाल की उदघोषणा लागू होती है तब राज्य अनुच्छेद 19 द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से स्वतंत्र होता है। दूसरे शब्दों में, राज्य अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधिकारों को कम करने अथवा हटाने के लिए कानून बना सकता है अथवा कोई कार्यकारी निर्णय ले सकता है। ऐसे किसी कानून अथवा कार्य को, इस आधार पर कि यह अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधिकारों का उल्लंघन है, चुनौती नहीं दी जा सकती।
जब राष्ट्रीय आपातकाल समाप्त हो जाता है, अनुच्छेद 19 स्वतः पुनर्जीवित हो जाता है तथा प्रभाव में आ जाता है। आपातकाल के बाद अनुच्छेद 19 के विपरीत बना कोई कानून अप्रभावी हो जाता है। किंतु आपातकाल के समय हुई किसी चीज का प्रतिकार (भरपाई) नहीं होता यहां तक कि आपातकाल के बाद भी। इसका तात्पर्य है कि आपातकाल में किए गए विधायी तथा कार्यकारी निर्णयों को आपातकाल के बाद भी चुनौती नहीं दी जा सकती।
1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने अनुच्छेद 358 की संभावना पर दो प्रकार से प्रतिबंध लगा दिया है।
- अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त 6 मूल अधिकारों को युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण के आधार पर घोषित आपातकाल में ही निलंबित किया जा सकता है न कि सशस्त्र विद्रोह के आधार पर।
- दूसरे, केवल उन विधियों को जो आपातकाल से संबंधित हैं चुनौती नहीं दी जा सकती है तथा ऐसी विधियों के अंतर्गत दिए गए कार्यकारी निर्णयों को भी चुनौती नहीं दी जा सकती है।
अन्य मूल अधिकारों का निलंबन:
अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को आपातकाल के मूल अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार को निलंबित करने के लिए अधिकृत करता है। अत: 359 के अंतर्गत मूल अधिकार नहीं अपितु उनका लागू होना निलंबित होता है। वास्तविक रूप में ये अधिकार जीवित रहते हैं केवल इनके तहत उपचार निलंबित होता है। यह निलंबन उन्हीं मूल अधिकारों से संबंधित होता है, जो राष्ट्रपति के आदेश में वर्णित होते हैं। इसके अतिरिक्त यह निलंबन आपातकाल की अवधि अथवा आदेश में वर्णित अल्पावधि हेतु लागू हो सकते हैं और निलंबन का आदेश पूरे देश अथवा किसी भाग पर लागू किया जा सकता है। इसे संसद की मंजूरी के लिए प्रत्येक सदन में प्रस्तुत करना होता है।
जब राष्ट्रपति का आदेश प्रभावी रहता है तो राज्य उस अधिकार को रोकने व हटाने के लिए कोई भी विधि बना सकता कार्यकारी कदम उठा सकता है। ऐसी किसी भी विधि या कार्य को आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि यह संबंधित मूल अधिक से साम्य नही रखता है। ऐसे किसी आदेश की अवधि समाप्त होनी संबंधित विधि को मूल अधिकार के समान ही समाप्त माना जाप परंतु इस आदेश के दौरान बनाई विधि के अंतर्गत किए गए कार्य की इस आदेश के समाप्त होने के बाद कोई उपचार उपलब्ध नहीं होगा इसका अर्थ है कि आदेश के प्रभाव में किए गए विधायी व कार्यकारी कार्यों को आदेश समाप्ति के उपरांत चुनौती नहीं दी जा सकती है।
44वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1978, अनुच्छेद 359) के क्षेत्र में दो प्रतिबंध लगाता है-
- प्रथम, राष्ट्रपति अनुच्छेद 20 तथा 21 के अंतर्गत दिए गए अधिकारों को लागू करने के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार को निलंबित नहीं कर सकता है। अन्य शब्दों में, अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण का अधिकार (अनुच्छेद 20) तथा प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) आपातकाल में भी प्रभावी रहता है।
- द्वितीय, केवल उन्हीं विधियों को चुनौती से संरक्षण प्राप्त है जो आपातकाल से संबंधित हैं, उन विधियों व कार्यो को नहीं जो इनके तहत लिए अथवा बनाए गए हैं।
अनुच्छेद 358 और 359 में अंतर
अनुच्छेद 358 और 359 में निम्नलिखित अंतर हैं:
अनुच्छेद 358 | अनुच्छेद 359 |
1. अनुच्छेद 358 केवल अनुच्छेद 19 के अंतर्गत मूल अधिकारों से संबंधित है, | 1. अनुच्छेद 359 उन सभी मूल अधिकारों से संबंधित है, जिनका राष्ट्रपति के आदेश द्वारा निलंबन हो जाता है। |
2. अनुच्छेद 358 स्वतः ही, आपातकाल की घोषणा होने पर अनुच्छेद 19 के अंतर्गत के मूल अधिकारों का निलंबन कर देता है। | 2. अनुच्छेद 359 मूल अधिकारों का निलंबन स्वत: नहीं करता। यह राष्ट्रपति को यह शक्ति देता है कि वह मूल अधिकारों के निलंबन को लागू करे। |
3. अनुच्छेद 358 केवल (जब, युद्ध या बाह्य आक्रमण के आधार पर आपातकाल घोषित किया जाता है) में लागू होता है न कि आंतरिक आपातकाल (सशस्त्र विद्रोह) के समय | 3. अनुच्छेद 359 बाह्य तथा आंतरिक दोनों आपातकाल में लागू होता है। |
4. अनुच्छेद 358, अनुच्छेद 19 के अंतर्गत के मूल अधिकारों को आपातकाल की संपूर्ण अवधि के लिए निलंबित कर देता है | 4. अनुच्छेद 359 मूल अधिकारों के निलंबन का राष्ट्रपति द्वारा उल्लेख की गई अवधि के लिए लागू करता है। यह अवधि संपूर्ण आपातकालीन अवधि अथवा अल्पावधि हो सकती है। |
5. अनुच्छेद 358 संपूर्ण देश में लागू होता है | 5. अनुच्छेद 359 संपूर्ण देश अथवा किसी भाग विशेष में लागू हो सकता है। |
6. अनुच्छेद 358, अनुच्छेद 19 को पूर्ण रूप से निलंबित कर देता है | 6. अनुच्छेद 359 अनुच्छेद 20 व 21 के निलंबन को लागू नहीं करता है। |
7. अनुच्छेद 358 राज्य को अनुच्छेद 19 के अंतर्गत के मूल अधिकारों से साम्य नहीं रखने वाले नियम बनाने अथवा कार्यकारी कदम उठाने का अधिकार देता है | 7. अनुच्छेद 359 केवल उन्हीं मूल अधिकारों के संबंध में ऐसे कार्य करने का अधिकार देता है जिन्हें राष्ट्रपति के आदेश द्वारा निलंबित किया गया है। |
अनुच्छेद 358 और अनुच्छेद 359 में एक समानता भी है। वे उन्हीं विधियों को चुनौती से उन्मुक्ति देते हैं, जो आपातकाल से संबंधित हैं, उनको नहीं जो आपातकाल संबंधित नहीं हैं। ऐसी विधियों के अंतर्गत किए कार्यों को भी दोनों अनुच्छेद संरक्षण देते हैं।
अब तक की गई ऐसी घोषणाएं
इस प्रकार के आपातकाल अभी तक तीन बार- 1962, 1971 और 1975 में घोषित किए गए हैं।
पहला राष्ट्रीय आपातकाल अक्तूबर 1962 में NEFA [नॉर्थ ईस्ट फ्रटियर ऐजेन्सी (अब अरूणाचल प्रदेश)| में चीनी आक्रमण के कारण लागू किया गया था और यह जनवरी 1968 तक जारी रहा। अतः 1965 में पाकिस्तान के विरुद्ध हुए युद्ध में नया आपातकाल जारी करने की आवश्यकता नहीं हुई।
दूसरा राष्ट्रीय आपातकाल दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के आक्रमण के फलस्वरूप जारी किया गया। यद्यपि यह आपातकाल प्रभावी था किंतु एक तीसरा राष्ट्रीय आपातकाल जून 1975 में लागू हुआ। दूसरी तथा तीसरी दोनों ही आपातकालीन घोषणाएं मार्च 1977 में समाप्त की गईं।
पहली दो आपातकाल घोषणाएं (1962 और 1971) बाह्य आक्रमण के आधार पर, जबकि तीसरी आपातकाल घोषणा (1975) ‘आंतरिक उपद्रव’ के आधार पर थी। कुछ लोग पुलिस और सशस्त्र बलों को उनके कार्य तथा नित्य कर्तव्यों के विरुद्ध उन्हें भड़का रहे थे।
1975 में घोषित आपातकाल (आंतरिक आपातकाल) सबसे ज्यादा विवादास्पद सिद्ध हुआ। उस समय आपातकाल में अधिकारों के दुरुपयोग के विरुद्ध व्यापक विरोध हुआ था। आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी पराजित हो गई और जनता दल सत्ता में आया। इस सरकार ने 1975 में घोषित आपातकाल के कारणों तथा परिस्थितियों का पता लगाने के लिए ‘शाह आयोग‘ का गठन किया गया। आयोग ने आपातकाल को तर्कसंगत नहीं बताया। अत: 44वां संशोधन, 1978 में लाया गया, जिसमें आपातकालीन अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के कई उपाय किए गए।
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- Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- Chapter-2: संविधान का निर्माण
- Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
- Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
- Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
- Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
- Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
- Chapter-8: राज्य के नीति निदेशक तत्व
- Chapter-9: मूल कर्तव्य | Fundamental Duties
- Chapter-10: संविधान का संशोधन प्रक्रिया क्या है? आलोचना व महत्व
- Chapter-11: संविधान की मूल संरचना का विकास, सिद्धांत, तत्व और सम्बंधित मामले
- Chapter-12: संसदीय व्यवस्था की परिभाषा, विशेषतायें, गुण तथा दोष
- Chapter- 13: संघीय व्यवस्था तथा एकात्मक व्यवस्था
- Chapter- 14: केंद्र-राज्य संबंध
- Chapter- 15: अंतर्राज्यीय संबंध | Interstate Relation
- Chapter-16: आपातकालीन प्रावधान क्या है? परिभाषा, प्रकार, आलोचना