अनुच्छेद 355 केंद्र को इस कर्तव्य के लिए विवश करता है कि प्रत्येक राज्य सरकार संविधान की प्रबंध व्यवस्था के अनुरूप ही कार्य करेगी। इस कर्तव्य के अनुपालन के लिए केंद्र, अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य में संविधान तंत्र के विफल हो जाने पर राज्य सरकार को अपने नियंत्रण में ले सकता है। यह सामान्य रूप में ‘राष्ट्रपति शासन‘ के रूप में जाना जाता है। इसे ‘राज्य आपात’ या ‘संवैधानिक आपातकाल’ भी कहा जाता है।
राष्ट्रपति शासन
राष्ट्रपति शासन अनुच्छेद 356 के अंतर्गत दो आधारों पर घोषित किया जा सकता है
- एक तो अनुच्छेद 356 में ही उल्लिखित है तथा
- दूसरा अनुच्छेद 365 में:
अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को घोषणा जारी करने का अधिकार देता है, यदि वह आश्वस्त है कि वह स्थिति आ गई है कि राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुरूप नहीं चल सकती है। राष्ट्रपति राज्य के राज्यपाल (रिपोर्ट) के आधार पर या दूसरे ढंग से (राज्यपाल के विवरण के बिना) भी प्रतिक्रिया कर सकता है।
अनुच्छेद 365 के अनुसार यदि कोई राज्य केंद्र द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने या उसे प्रभावी करने में असफल होता है तो यह राष्ट्रपति के लिए विधिसंगत होगा कि उस स्थिति को संभाले, जिसमें अब राज्य सरकार संविधान की प्रबंध व्यवस्था के अनुरूप नहीं चल सकती।
संसदीय अनुमोदन तथा समयावधि
राष्ट्रपति शासन के प्रभाव की घोषणा जारी होने के दो माह के भीतर इसका संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदन हो जाना चाहिए। यदि राष्ट्रपति शासन का घोषणा-पत्र लोकसभा के विघटित होने के समय जारी होता है या लोकसभा दो माह के भीतर बिना घोषणा-पत्र को स्वीकृत किए विघटित हो जाती है, तब घोषणा-पत्र लोकसभा की पहली बैठक के तीस दिन तक बना रहता है, बशर्ते राज्यसभा ने इसे निश्चित समय में स्वीकृत कर दिया हो।
यदि दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत हो तो राष्ट्रपति शासन छह माह तक चलता है इसे अधिकतम तीन वर्ष की अवधि के लिए संसद को प्रत्येक छह माह की स्वीकृति से बढ़ाया जा सकता है। हालांकि यदि छह माह की अवधि में यदि लोकसभा, राष्ट्रपति के शासन को जारी रखने के प्रस्ताव को मंजूर किए बिना विघटित हो जाती है तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद इसकी प्रथम बैठक के तीस दिनों तक लागू रहेगी, परंतु इस अवधि में राज्यसभा द्वारा इसे मंजूरी देना आवश्यक है।
राष्ट्रपति शासन की घोषणा को मंजूरी देने वाला प्रत्येक प्रस्ताव किसी भी सदन द्वारा सामान्य बहुमत द्वारा पारित किया जा सकता है अर्थात सदन में सदस्यों की उपस्थिति व मतदान का बहुमत।
44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में संसद द्वारा राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष के बाद भी जारी रखने की शक्ति पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक प्रावधान जोड़ा गया।
अतः इसमें प्रावधान किया गया कि एक वर्ष के पश्चात्, राष्ट्रपति शासन को छह माह के लिए केवल तब बढ़ाया जा सकता है जब निम्नलिखित दो परिस्थतियां पूरी हों:
- यदि पूरे भारत में अथवा पूरे राज्य या उसके किसी भाग में राष्ट्रीय आपात की घोषणा की गई हो, तथा;
- चुनाव आयोग यह प्रमाणित करे कि संबंधित राज्य में विधानसभा के चुनाव के लिए कठिनाइयां उपस्थित हैं।
राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति शासन की घोषणा को, किसी भी समय परवर्ती घोषणा द्वारा वापस लिया जा सकता है। ऐसी घोषणा के लिए संसद की अनुमति आवश्यक नहीं होती।
राष्ट्रपति शासन के परिणाम
जब किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति को निम्नलिखित असाधारण शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं:
- वह राज्य सरकार के कार्य अपने हाथ में ले लेता है और उसे राज्यपाल तथा अन्य कार्यकारी अधिकारियों की शक्ति प्राप्त हो जाती है।
- वह घोषणा कर सकता है कि संसद, राज्य विधायिका की शक्तियों का प्रयोग करेगी।
- वह वे सभी आवश्यक कदम उठा सकता है, जिसमें राज्य के किसी भी निकाय या प्राधिकरण से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को निलंबन करना शामिल है।
अत: जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो तो राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद को भंग कर देता है। राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति के नाम पर राज्य सचिव की सहायता से अथवा राष्ट्रपति दारा नियकक्त किसी सलाहकार की सहायता से राज्य का प्रशासन चलाता है। यही कारण है कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत की गई घोषणा को राज्य में राष्ट्रपति शासन‘ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त राज्य विधानसभा को विघटित अथवा निलबित कर सकता है। पर राज्य के विधेयक और बजट प्रस्ताव को पारित करती है।
जब कोई राज्य विधानसभा इस प्रकार निलंबित हो या विघटित हो:
- संसद राज्य के लिए विधि बना ने की शक्ति राष्ट्रपति अपना उनके द्वारा उल्लिखित किसी अधिकारी को दे सकती है।
- संसद या किसी प्रतिनिधिमंडल के मामले में, राष्ट्रपति या अन्य कोई प्राधिकारी, केंद्र अथवा इसके अधिकारियों व प्राधिकरण पर शक्तियों पर विचार करने और कर्तव्यों के निर्वहन के लिए विधि बना सकते हैं।
- जब लोकसभा का सत्र नहीं चल रहा हो तो राष्ट्रपति, संसद की अनुमति के लिए लंबित पड़े राज्य की संचित निधि के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकता है।
- जब संसद का सत्रावसान हो तो राष्ट्रपति, राज्य के लिए अध्यादेश जारी कर सकता है।
राष्ट्रपति अथवा संसद अथवा अन्य किसी विशेष प्राधिकारी द्वारा बनाया गया कानून, राष्ट्रपति शासन के पश्चात् भी प्रभाव में रहेगा। अर्थात् ऐसा कोई कानून जो इस अवधि में प्रभावी है, राष्ट्रपति शासन की घोषणा की समाप्ति पर अप्रभावी नहीं होगा। परंतु इसे राज्य विधायिका द्वारा वापस अथवा परिवर्तित अथवा पुनः लागू किया जा सकता है।
यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि राष्ट्रपति को संबंधित उच्च न्यायालय की शक्तियां प्राप्त नहीं होती हैं और वह उनसे संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को निलंबित नहीं कर सकता। अन्य शब्दों में, राष्ट्रपति शासन की अवधि में संबंधित उच्च न्यायालय की स्थिति, स्तर, शक्तियां और कार्य प्रभावी रहती हैं।
अनुच्छेद 356 का प्रयोग
वर्ष 1950 से अब तक, 25 से अधिक बार राष्ट्रपति शासन का प्रयोग किया जा चुका है, अर्थात् औसतन प्रत्येक वर्ष में दो बार इसका प्रयोग होता है। इसके अतिरिक्त, अनेक अवसरों पर राष्ट्रपति शासन का प्रयोग मनमाने ढंग से राजनैतिक व व्यक्तिगत कारणों से किया गया है। अत: अनुच्छेद 356 संविधान का सबसे विवादास्पद एवं आलोचनात्मक प्रावधान बन गया है।
सर्वप्रथम राष्ट्रपति शासन का प्रयोग 1951 में पंजाब में किया गया। अब तक लगभग सभी राज्यों में एक अथवा दो अथवा इससे अधिक बार, इसका प्रयोग हो चुका है।
जब 1977 में आंतरिक आपातकाल के पश्चात् लोकसभा के चुनाव हुए तब सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी चुनाव में हार गयी और जनता पार्टी सत्तारूढ़ हुईं।
- मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली नई सरकार ने कांग्रेस शासित नौ राज्यों में इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया कि वे राज्य विधानसभाएं जनमत खो चुकी हैं।
- जब 1980 में, कांग्रेस पार्टी सत्ता में आई तो उसने भी इसी आधार पर नौ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया।
- सन 1992 में बीजेपी शासित राज्यों (मध्य प्रदेश, हिमाचल व राजस्थान) में कांग्रेस पार्टी सरकार द्वारा इस आधार पर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया कि ये राज्य केंद्र द्वारा धार्मिक संगठनों पर लगाए गए प्रतिबंधों का अनुपालन करने में असमर्थ हो रहे थे।
बोम्मई केस (1994)” में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक दूरगामी निर्णय में, राष्ट्रपति शासन की घोषणा का इस आधार पर अनुमोदन किया कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का ‘मूल विशेषता’ है। परंतु न्यायालय ने 1988 में नागालैंड, 1989 में कर्नाटक एवं 1991 में मेघालय में राष्ट्रपति शासन को वैध नहीं ठहराया।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस प्रावधान के आलोचकों को उत्तर देते हुए आशा व्यक्त की थी कि अनुच्छेद 356 की यह उग्र शक्ति एक ‘मृत-पत्र’ की भांति ही रहेगी और इसका प्रयोग अंतिम साधन के रूप में किया जाएगा। उन्होंने कहा: ेंद्र को उसके हस्तक्षेप से प्रतिबंधित करना चाहिए, क्योंकि वह प्रांत (राज्य) की संप्रभुता पर आक्रमण माना जाएगा। यह एक सैद्धांतिक प्रतिज्ञा है जिसमें हमें उन कारणों को मानना पड़ेगा कि हमारा संविधान एक संघीय है। ऐसा होने पर, यदि केंद्र प्रांतीय प्रशासन में कोई हस्तक्षेप करता है, तो यह संविधान द्वारा केंद्र पर लागू प्रावधानों के अंतर्गत होना चाहिए। मुख्य बात यह कि हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसे अनुच्छेद कभी भी प्रयोग में नहीं लाए जाएंगे और वे एक ‘मृत-पत्र’ होंगे। यदि कभी उनका प्रयोग होता है, तो मैं उम्मीद करता हूं कि राष्ट्रपति जिसमें ये सभी शक्तियां निहित हैं, प्रांत के प्रशासन को निलंबित करने से पूर्व उचित सावधानी बरतेगा।”
हालांकि अनुवर्ती घटनाओं से स्पष्ट होता है जिसे संविधान का मृत-पत्र माना गया, वही राज्य सरकारों व विधानसभाओं के विरुद्ध एक घातक हथियार सिद्ध हआ। इस संदर्भ में संविधान सभा के एक सदस्य एच.वी. कामथ ने एक दशक पूर्व कहा, “डॉ. अंबेडकर ता अब जीवित नहीं हैं परंतु ये अनुच्छेद अभी भी जीवित हैं।”
न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं
1975 के 38वें संविधान संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान कर दिया गया है कि अनुच्छेद 356 के प्रयोग में राष्ट्रपति को संतुष्ट किया जायेगा तथा इसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन 1978 के 44वें संविधान संशोधन से इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि, न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है।
बोम्मई मामले (1994) में, उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित निर्णय दिए:
- राष्ट्रपति शासन लागू करने की राष्ट्रपति की घोषणा न्यायिक समीक्षा योग्य है।
- राष्ट्रपति की संतुष्टि तर्कसंगत संसाधनों पर आधारित होनी चाहिए। राष्ट्रपति के कार्य पर न्यायालय द्वारा रोक लगाई जा सकती है, यदि यह अतार्किक अथवा अन्यथा आधार पर आधारित है अथवा यह दुर्भावना या तर्क विरुद्ध पाया जाए।
- केंद्र पर यह जिम्मेदारी होगी कि वह राष्ट्रपति शासन को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए तर्कसम्मत कारणों को प्रस्तुत करे।
- न्यायालय यह नहीं देख सकता कि संसाधान सही अथवा पर्याप्त हैं अपितु यह देखता है कि कार्य तर्क सम्मत है अथवा नहीं।
- यदि न्यायालय राष्ट्रपति की घोषणा को असंवैधानिक और अवैध पाता है तो उसे विघटित राज्य सरकार को पुन: स्थापित करने और निलंबित अथवा विघटित विधानसभा को पुनः बहाल करने का अधिकार है।
- राज्य विधानसभा को केवल तभी विघटित किया जा सकता है जब राष्ट्रपति की घोषणा को संसद की अनुमति मिल जाती है। जब तक ऐसी कोई घोषणा को मंजूरी नहीं प्राप्त होती है, राष्ट्रपति विधानसभा को केवल निलंबित कर सकता है। यदि संसद इसे मंजूरी देने में असमर्थ होती है तो विधानसभा पुनर्जीवित हो जाती है।
- धर्मनिरपेक्षता संविधान का ‘मूल विशेषता’ है। अत: यदि कोई राज्य सरकार सांप्रदायिक राजनीति करती है तो इस अनुच्छेद के अंतर्गत, उस पर कार्यवाही की जा सकती है।
- राज्य सरकार का विधानसभा में विश्वास मत खोने का संसद में निश्चित किया जाना चाहिए जब तक यह न हो ना तक मंत्रिपरिषद बनी रहेगी।
- जब केंद्र में कोई नया राजनैतिक दल सत्ता में आता है। उसे राज्यों में अन्य दलों की सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार प्राप्त नहीं होगा।
- अनुच्छेद 356 के अधीन शक्तियां विशिष्ट शक्तिया है इनका प्रयोग विशेष परिस्थितियों में यदा-कदा ही करना चाहिए।
उपयुक्त और अनुपयुक्कत प्रयोग के मामले
सरकारिया आयोग की केंद्र-राज्य संबंधों (1988) पर आधारित रिपोर्ट तथा उच्चतम न्यायालय का बोम्मई मामले (1994) में व परिस्थितियां उल्लिखित हैं
जहां अनुच्छेद 356 का उचित व अनुचित रूप से प्रयोग किया गया है। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन का प्रयोग निम्नलिखित परिस्थितियों में उचित होगा:
- जब आम चुनावों के बाद विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो अर्थात त्रिशंकु विधानसभा हो।
- जब बहुमत प्राप्त दल सरकार बनाने से इनकार कर दे और राज्यपाल के समक्ष विधानसभा में स्पष्ट बहुमत वाला कोई गठबंधन न हो।
- जब मंत्रिपरिषद त्याग-पत्र दे दे और अन्य कोई दल सरकार बनाने की इच्छुक न हो अथवा स्पष्ट बहुमत के अभाव में सरकार बनाने की अवस्था में न हो।
- यदि राज्य सरकार केंद्र के किसी संवैधानिक निर्देश को मानने से इनकार कर दे।
- जहां आंतरिक उच्छेदन हो उदाहरण के लिए, सरकार जब सोच-विचारपूर्वक संविधान व कानून के विरुद्ध कार्य करे और इसका परिणाम एक उग्र विद्रोह के रूप में फूट पड़े।
- भौतिक विखंडन, जहां सरकार इच्छापूर्वक अपने संवैधानिक दायित्व निभाने से इनकार कर दे जो राज्य को सुरक्षा को खतरा उत्पन्न कर दे।
किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन का उपयोग निम्नलिखित परिस्थितियों में अनुचित हैः
- जब मंत्रिपरिषद त्याग-पत्र दे दे अथवा सदन के बहुमत के अभाव के कारण बर्खास्त कर दी जाए और राज्यपाल एक वैकल्पिक सरकार की संभावनाओं की जाच किए बिना राष्ट्रपति शासन आरोपित करने की सिफारिश करे।
- जब राज्यपाल मंत्रिपरिषद के समर्थन के संबंध में स्वयं निर्णय ले एवं मंत्रिपरिषद को सदन में बहुमत सिद्ध करने की अनुमति दिए बिना राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर
- जब विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल, लोकसभा के आम चुनावों में भारी हार का सामना करे जैसा कि 1977 तथा 1980 में हुआ था।
- आंतरिक गड़बड़ी जिससे कोई आतरिक उच्छेदन अथवा भौतिक विघटन गड़बड़ी न हो।
- राज्य में कुशासन अथवा मंत्रिपरिषद के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप अथवा राज्य में वित्तीय संकट।
- जहां राज्य सरकार को अपनी गलती सुधारने के लिए पूर्व चेतावनी नहीं दी गई हो। केवल उन मामलों को छोड़कर जहां स्थितिया, विपत्तिकारक घटनाओं में परिवर्तित होने वाली हों।
- जहा सत्ताधारी दल के अंदर की परेशानियों के सुलझाने के लिए अथवा किसी के बाह्य अथवा असंगत उद्देश्य के लिए शक्ति का प्रयोग संविधान के विरुद्ध किया जाए।
राष्ट्रीय आपातकाल एवं राष्ट्रपति शासन में तुलना
राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) | राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) |
1. यह केवल तब उदृघोषित की जाती है जब भारत अथवा इसके किसी भाग की सुरक्षा पर युद्ध, बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह का खतरा हो। | 1. इसकी घोषणा तब की जाती है जब किसी राज्य की सरकार संविधान के प्रावधान के अनुसार कार्य न कर रही हो और इनका कारण युद्ध, बाह्य आक्रमण व सैन्य विद्रोह न हो। |
2. इसकी घोषणा के बाद राज्य कार्यकारिणी व विधायिका संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करती रहती हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि राज्य की विधायी एवं प्रशासनिक शक्तियां केंद्र को प्राप्त हो जाती हैं। | 2. इस स्थिति में राज्य कार्यपालिका (बर्खास्त हो जाती है तथा राज्य विधायिका या तो निलंबित हो जाती है अथवा विघटित हो जाती है। राष्ट्रपति, राज्यपाल के माध्यम से राज्य का प्रशासन चलाता है तथा संसद राज्य के लिए कानून बनाती है। संक्षेप में, राज्य की कार्यकारी व विधायी शक्तिया केंद्र को प्राप्त हो जाती हैं। |
3. इसके अंतर्गत, संसद राज्य विषयों पर स्वयं नियम बनाती है अर्थात् यह शक्ति किसी अन्य निकाय अथवा प्राधिकरण को नहीं दी जाती है। | 3. इसके अंतर्गत, संसद राज्य के लिए नियम बनाने का अधिकार राष्ट्रति अथवा उसके द्वारा नियुक्त अन्य किसी प्राधिकारी को सौंप सकती है। अब तक यह पद्ठति रही है कि राष्ट्रपति संबंधित राज्य से संसद के लिए चुने गए सदस्यों की सलाह पर विधियां बनाता है। यह कानून ‘राष्ट्रपति के नियम’ के रूप में जाने जाते हैं। |
4. इसके लिए अधिकतम समयावधि निश्चित नहीं है। इसे प्रत्येक छह माह बाद संसद से अनुमति लेकर अनिश्चित काल तक लागू किया जा सकता है। | 4. इसके लिए अधिकतम तीन वर्ष की अवधि निश्चित की गई है। इसके पश्चात् इसकी समाप्ति तथा राज्य में सामान्य संवैधानिक तंत्र की स्थापना आवश्यक है |
5. इसके अंतर्गत सभी राज्यों तथा केंद्र के बीच संबंध परिवर्तित होते हैं। | 5. इसके तहत केवल उस राज्य जहां पर आपातकाल लागू हो तथा केंद्र के बीच संबंध परिवर्तित होते हैं। |
6. इसकी घोषणा करने अथवा इसे जारी रखने से संबंधित सभी प्रस्ताव संसद में विशेष बहुमत द्वारा पारित होने चाहिए। | 6. इसको घोषणा करने अथवा इसे जारी रखने से संबंधित सभी प्रस्ताव संसद के सामान्य बहुमत द्वारा पारित होने चाहिए। |
7. यह नागरिकों के मूल अधिकारों को प्रभावित करता है। | 7. यह नागरिकों के मूल अधिकारों को प्रभावित नहीं करते हैं। |
8. लोकसभा इसकी घोषणा वापस लेने के लिए प्रस्ताव पारित कर सकती है। | 8. इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इसे राष्ट्रपति स्वयं वापस ले सकता है। |
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- वित्तीय आपातकाल क्या है? सांसद द्वारा अनुमोदन और प्रभाव
Read more Chapter:-
- Chapter-1: संवैधानिक विकास का चरण – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- Chapter-2: संविधान का निर्माण
- Chapter-3: भारतीय संविधान की विशेषताएं व आलोचना
- Chapter-4: संविधान की प्रस्तावना
- Chapter-5: संघ एवं इसका क्षेत्र
- Chapter-6: नागरिकता | Citizenship
- Chapter-7: मूल अधिकार | Fundamental Rights
- Chapter-8: राज्य के नीति निदेशक तत्व
- Chapter-9: मूल कर्तव्य | Fundamental Duties
- Chapter-10: संविधान का संशोधन प्रक्रिया क्या है? आलोचना व महत्व
- Chapter-11: संविधान की मूल संरचना का विकास, सिद्धांत, तत्व और सम्बंधित मामले
- Chapter-12: संसदीय व्यवस्था की परिभाषा, विशेषतायें, गुण तथा दोष
- Chapter- 13: संघीय व्यवस्था तथा एकात्मक व्यवस्था
- Chapter- 14: केंद्र-राज्य संबंध
- Chapter- 15: अंतर्राज्यीय संबंध | Interstate Relation
- Chapter-16: आपातकालीन प्रावधान | Emergency Provision